नई दिल्‍ली: कल 16 मार्च देश के लगभग 10 लाख बैंक कर्मचारी हड़ताल पर थे और इनमें से बड़ी संख्या में बैंक कर्मचारियों ने हमें लिखा है कि वो चाहते हैं कि Zee News उनकी आवाज़ बने और हमें लगता है कि मीडिया का यही कर्तव्य है कि आज जब बैंक के लाखों कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर हैं तब उनके मन की बात हम देश के सामने ईमानदारी से रखें. ये कर्मचारी देश के सरकारी बैंकों के निजीकरण का विरोध कर रहे हैं.


बैंक कर्मचारियों की हड़ताल क्‍यों हुई?


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सबसे पहले आपको इस हड़ताल के बारे में बताते हैं. दो दिन की ये हड़ताल यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्‍स की तरफ से बुलाई गई थी, जो बैंकों के 9 संगठनों का एक बड़ा समूह है और बताया जा रहा है कि इस हड़ताल में करीब 10 लाख बैंक कर्मचारियों ने हिस्सा लिया. ये हड़ताल क्यों हुई. इसे कुछ पॉइंट्स में आपको बताते हैं-


-हड़ताल की प्रमुख वजह है सरकारी बैंकों का निजीकरण और बैंक यूनियन इसके विरोध में हैं.  उनका कहना है कि सरकारी बैंकों को निजी हाथों में सौंपना एक बड़ी ग़लती होगी और इससे बैंक ग्राहकों और कर्मचारियों के हित भी प्रभावित होंगे. सरल शब्दों में कहें तो इस हड़ताल का मकसद ये है कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर अपने नियंत्रण और शक्तियों को कम ना करें और इन बैंकों का स्‍टेटस सरकारी से बदल कर प्राइवेट न किया जाए.


-बैंक कर्मचारियों की दलील है कि ऐसा करने से देश को नुक़सान होगा और निजी बैंक अपनी सामाजिक भूमिका को कभी नहीं समझेंगे और उन्हें डर है कि निजीकरण की वजह से किसानों, ग़रीब मज़दूरों और शिक्षा के लिए जो लोन अभी सरकारी बैंकों से आसानी से मिल जाता है, वो नहीं मिलेगा.


-सबसे बड़ी वजह ये है कि इन बैंकों में काम करने वाले लोग प्राइवेट सेक्टर का हिस्सा बन जाएंगे, जिससे उनके हित और दूसरी सुविधाएं प्रभावित हो सकती हैं.


-हालांकि इस डर की एक और वजह है और इसका जवाब 1 फरवरी को पेश किए गए देश के बजट में छिपा है. इस बजट में सरकार ने ऐलान किया था कि उसने सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों को डिस्‍इन्‍वेस्‍ट करने का लक्ष्य रखा है, लेकिन ये दो बैंक कौन से हैं. ये सरकार ने नहीं बताया और इसी उलझन ने अब बैंक कर्मचारियों की चिंता बढ़ा दी है.


-देश में अभी 12 PSU बैंक हैं,  जिन्हें सरकारी बैंक भी कहा जाता है क्योंकि, इन बैकों में सरकार की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से ज़्यादा है और ये बैंक उसके नियंत्रण में आते हैं. अब सरकार ने तय किया है कि वो इन 12 में से दो बैंकों का विनिवेश करेगी, यानी इन बैंकों में अपनी हिस्सेदारी को घटाएगी और बैंक कर्मचारियों की दलील है कि सरकार का ये क़दम इन्हें प्राइवेट बैंक बना देगा. 


बैंकों में सरकार का अपनी हिस्सेदारी घटाना सही क़दम है?


यानी ये पूरा मामला बैंकों के नियंत्रण का है और बहस इस पर है कि PSU बैंकों का नेतृत्व सरकार के पास ही रहना चाहिए या इन बैंकों में सरकार का अपनी हिस्सेदारी घटाना सही क़दम है. आज हम आपको इसके बारे में भी बताएंगे. 


इस पूरे विषय को समझने के लिए सबसे पहला आपका ये जानना ज़रूरी है कि बैंक क्या होता है?


बैंक का अपना कुछ नहीं होता इसलिए कहते हैं कि बैंक एक ट्रस्‍टी की तरह काम करता है. आप बैंक में अपना पैसा जमा करते हैं और इस पैसे पर बैंक आपको ब्याज़ देता है और ये ब्याज़ देने के लिए बैंक के पास पैसा उन लोगों से आता है, जिन्हें वो लोन देता है. यानी बैंक एक ऐसा संस्थान है, जो आपका पैसा अपने पास सुरक्षित रखता है और उस पैसे को लोन के रूप में दूसरे लोगों को देकर मुनाफा कमाता है और उस मुनाफे का कुछ हिस्सा आपके साथ भी शेयर करता है. ऐसे में अब सवाल है कि जो बैंक एक ट्रस्‍टी की तरह काम करता है, वो सरकारी नियंत्रण में होना चाहिए या बैंकों का निजीकरण सही निर्णय है?



असल में भारत में छोटे छोटे कई सरकारी बैंक हैं और सरकार इन बैंकों का विलय कर इनकी संख्या को सीमित करना चाहती है. ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार चाहती है कि 12 बैंक न होकर देश में तीन चार बड़े सरकारी बैंक हों, जो बड़े बड़े प्रोजेक्‍ट को फंड कर सकें और उनके लिए लोन जारी कर सकें.


अमेरिका के बैंकिंग सिस्टम से समझिए ये बातें 


अभी केन्द्रीय बैंक आरबीआई की गाइडलाइंस के मुताबिक, ये बैंक तय सीमा से ज़्यादा लोन जारी नहीं कर सकते और इस वजह से सरकार को कई बड़े प्रोजेक्‍ट्स के लिए इन बैंकों से लोन नहीं मिल पाता या ये बैंक इन प्रोजेक्‍ट्स को फंड नहीं कर पाते. ऐसे में सरकार बैंकों के मर्जर और उनमें अपनी हिस्सेदारी घटाने की योजना पर काम कर रही है. जिसे आप अमेरिका के बैंकिंग सिस्टम से समझ सकते हैं.


अमेरिका में बैंकिंग सिस्टम पर सरकारी नियंत्रण काफ़ी सीमित है. यानी वहां जो बड़े बड़े बैंक हैं, वो प्राइवेट हैं और इन बैंकों की क्षमता इतनी ज़्यादा है कि ये अपने देश के प्रोजेक्‍ट्स को तो फंड करते ही हैं. साथ ही दूसरे देशों को भी लोन देते हैं.


यानी आप कह सकते हैं वहाँ के प्राइवेट बैंक अमेरिका की अर्थव्यवस्था के लिए मज़बूत इम्‍युनिटी की तरह हैं. अमेरिका के JP Morgan Chase Bank की कुल संपत्ति का मूल्य 3.03 ट्रिलियन यूएस डॉलर है, जो भारत की कुल जीडीपी से भी काफ़ी ज़्यादा है.


चीन का उदाहरण


चीन भी हमारे देश के लिए एक उदाहरण की तरह है, जहां बैंकों पर वहां की कम्‍युनिस्‍ट सरकार का पूरा नियंत्रण है. लेकिन चीन में भारत की तरह बहुत सारे बैंक नहीं हैं. चीन में पांच बड़े सरकारी बैंक हैं और इन बैंकों की क्षमता इतनी है कि चीन के लिए बड़े प्रोजेक्‍ट्स के लिए फंड इकट्ठा करना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होता.


भारत के बैंकिंग सिस्टम की स्थिति को आंकड़ों से समझिए- 


भारत के बैंकिंग सिस्टम की इस स्थिति को आप कुछ आंकड़ों से भी समझ सकते हैं. 


-बैंकों के राष्ट्रीयकरण और निजीकरण की बहस नई नहीं है. सबसे पहले वर्ष 1955 में Imperial Bank का राष्ट्रीयकरण किया गया था, जिसे आज State Bank of India के नाम से जाना जाता है.


-हालांकि देश के बैंकिंग सिस्टम में उस समय सबसे बड़ा बदलाव आया, जब देश में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार आई. ये बात 1969 की है. तब इंदिरा गांधी ने देश के 14 बड़े प्राइवेट बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था. उस समय इन 14 प्राइवेट बैंकों में कुल डिपोजिट का 85 प्रतिशत जमा था.


इंदिरा गांधी के फ़ैसले की तीन बड़ी वजहें


इंदिरा गांधी के इस फ़ैसले की तीन बड़ी वजहें थींं. पहली थी राजनीतिक, दूसरी थी आर्थिक और तीसरी थी बैंकिंग ढांचे में बदलाव.


-उनका ये फ़ैसला राजनीतिक इसलिए था क्योंकि, इंदिरा गांधी 1966 में देश की प्रधानमंत्री तो बन गई थी लेकिन तब उन्हें कांग्रेस के अंदर भारी विरोध का सामना करना पड़ा था और उन्हें गूंगी गुड़िया भी तब कहा गया था. यही वजह है कि इंदिरा गांधी ने पार्टी में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए बैकों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा उठाया और आलोचकों को कड़ा जवाब दिया. महत्वपूर्ण बात ये है कि इस फ़ैसले ने कांग्रेस के अंदर उनको लेकर नेताओं का नज़रिया बदल दिया था.


-इस फ़ैसले की दूसरी वजह थी आर्थिक वर्ष 1965 और 1966 में भारत की GDP ग्रोथ रेट माइनस में रही थी और 1969 के अप्रैल महीने में महंगाई दर 10 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई थी. ऐसे हालात में इंदिरा गांधी ने ग़रीब हटाओ का नारा अपनाया और बैंकों का राष्ट्रीयकरण इस दिशा में पहला निर्णय था, जिसका उन्हें 1971 के लोक सभा में फायदा भी मिला. 


-तीसरी वजह थी, बैंकिंग ढांचे में बदलाव. तब प्राइवेट बैंक मनमानी करते थे और लोन का एक बड़ा हिस्सा कुछ ख़ास उद्योगपतियों को ही मिल पाता था. यही नहीं ग्रामीणों इलाक़ों में तब इन बैंकों की शाखाएं नहीं होती थी, जिसकी वजह से कई दशकों तक गांव में रहने वाले लोग भारत के बैंकिंग सिस्टम का हिस्सा नहीं बन पाए.


बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा 


ऐसा नहीं है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा उसके बाद फिर कभी नहीं उठा. वर्ष 1980 में भी 6 प्राइवेट बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था और तब भी देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी.


हालांकि अगर आज की स्थिति को समझें तो पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में प्राइवेट बैंक सरकारी बैंकों से उनके व्यापार का बड़ा हिस्सा छीन चुके हैं क्योंकि, मार्च 2010 में कुल लोन का 75 प्रतिशत सरकारी बैंकों से जारी होता था, जो सितंबर 2020 तक 57 प्रतिशत ही रह गया है. यानी पिछले कुछ वर्षों में सरकारी बैंक तो पिछड़ते चले गए और प्राइवेट बैंक की स्थिति मज़बूत होती चली गई और इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है कि प्राइवेट बैंकों में आम लोगों का जमा पैसा पिछले कुछ 8 वर्षों में 17 प्रतिशत से बढ़ कर 29 प्रतिशत हो चुका है. यानी लोग भी प्राइवेट बैंकों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं.


बैंक कर्मचारियों ने हमेशा दिया साथ


जब-जब हमारे देश पर कोई संकट गहराया है और कोई मुसीबत आई है. तब-तब बैंक कर्मचारियों ने हमारा साथ दिया है. चाहे वो नोटबंदी का समय हो या फिर कोविड काल का दौर हो. 8 नवंबर 2016 को देशभर में नोटबंदी लागू हुई थी और उसके बाद हमारे देश के बैंक कर्मचारी देश की रीढ़ बन कर खड़े रहे थे. तब बैंक कर्मचारियों ने छुट्टी के दिन भी काम किया था और देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाई थी. इसी तरह कोविड काल में भी लॉकडाउन के दौरान बैंक बंद नहीं हुए थे और बैंक कर्मचारियों ने कोरोना वायरस के ख़तरे के बावजूद अपनी ड्यूटी निभाई थी. ये देश को समर्पित बैंक कर्मचारियों की इस 100 प्रतिशत असली भावना है.