4 Days Work and 3 Days Leave Culture: जिन दफ्तरों में सप्ताह में पांच दिन काम होता है वहां के कर्मचारियों के लिए शुक्रवार हफ्ते का आखिरी वर्किंग डे होता है. इसके बाद दो दिन की छुट्टियां, जिसमें लोग शॉपिंग करते हैं, घूमते हैं, परिवार के साथ वक्त बिताते हैं, पार्टी करते हैं, या फिर दूसरे पेंडिंग काम निपटाते हैं. लेकिन सोचिए अगर आपकी कंपनी या ऑफिस आपको सप्ताह में तीन दिन की छुट्टियां देने लगे. आज DNA में हम सप्ताह में चार दिन काम और तीन दिन के आराम वाले कॉन्सेप्ट का ही विश्लेषण करेंगे और ये भी समझने की कोशिश करेंगे कि क्या भारत जैसे देश में ये संभव है. लेकिन इस कॉन्सेप्ट का DNA टेस्ट करने से पहले आपको बिजनेस इंडस्ट्री के दो दिग्गजों के विचार जरूर जान लेने चाहिए.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

भारतीय कंपनी बॉम्बे शेविंग के सीईओ शांतनु देशपांडे ने फ्रेशर्स को दिन में 18-18 घंटे काम करने की सलाह दे डाली. उन्होने अपनी लिंक्डइन पोस्ट पर लिखा कि युवा कर्मचारियों के लिए करियर की शुरुआत में ही वर्क-लाइफ बैलेंस की बात करना जल्दबाज़ी है और नए लोगों को रोना-धोना छोड़कर 18-18 घंटे तक काम करना चाहिए. लेकिन उनकी इस टिप्पणी पर सोशल मीडिया में नई बहस छिड़ गई और लोग शांतनु देशपांडे पर खराब वर्क कल्चर को बढ़ावा देने का आरोप लगाने लगे. हालांकि बाद में उन्हे माफ़ी भी मांगनी पड़ी.


अब आपको कारोबारी दुनिया के एक उभरते सितारे की राय के बारे में भी जान लेना चाहिए. शांतनु देशपांडे की इस टिप्पणी पर रतन टाटा के डिप्टी मैनेजर शांतनु नायडू ने कहा कि इंसान के जीवन का मूल्य काम के घंटों से कहीं ज्यादा है. लिंक्डिन पर एक वीडियो शेयर कर उन्होंने कहा कि इस जहरीले वर्क कल्चर के साथ समस्या ये है कि ये किसी व्यक्ति के मूल्य को उसकी उपलब्धियों और उसकी प्रोडक्टिविटी से जोड़कर ही देखता है, और मुझे लगता है कि इंसान के तौर पर हमारी वैल्यू इन सबसे कहीं ज्यादा है.


नायडू ने कहा कि जो लोग 18 घंटे रोज़ाना काम करना चाहते हैं, वो उनका अपना तरीका हो सकता है, और वो इसके लिए आज़ाद हैं, लेकिन उन्हे इस बात का प्रचार नहीं करना चाहिए, न ही इसे युवाओं पर थोपना चाहिए क्योंकि ये हमें इंसान नहीं बनाती हैं और अंत में रिश्ते और प्यार ही मायने रखते हैं, और यही हमें इंसान बनाते हैं, न कि हमारे काम करने के घंटे.


अमेरिका में इतने घंटे काम करते हैं लोग


शांतनु नायडू की ये टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज दुनिया भर के कई देशों में लोगों के काम के घंटे घटाने और हफ्ते में 3 छुट्टियां देने तक की बात चल रही है. अमेरिका के लोग आज एक हफ्ते में सिर्फ़ 34 घंटे काम करते हैं. लेकिन आज से 150 साल पहले स्थिति ये नहीं थी. 19वीं शताब्दी के मध्य में अमेरिका के लोग हफ्ते में 100 घंटे काम करते थे.


लेकिन जैसे जैसे समय बदला,  काम के घंटे कम होने लगे और वर्ष 1926 में Ford कम्पनी के संस्थापक, Henry Ford पहली बार Five Day Work Week का Concept लेकर आए, जिसके तहत कर्मचारी सोमवार से शुक्रवार काम करते थे और शनिवार और रविवार उनकी छुट्टी होती थी.


हालांकि उस समय दुनिया ने Henry Ford की आलोचना की थी और ये कहा था कि हफ्ते में दो छुट्टी मिलने से कर्मचारी आलसी बन जाएंगे. लेकिन जब इसके नतीजे आए तो पूरी दुनिया चौंक गई. Henry Ford ने उस समय दुनिया को बताया कि उनके कर्मचारी हफ्ते में दो छुट्टियां लेने के बाद भी उतना ही काम कर रहे हैं, जितना हफ्ते में एक दिन छुट्टी लेने पर करते थे.


इसके अलावा तब ये बात भी सामने आई कि इससे कर्मचारियों की उत्पादकता बढ़ी है, वो खुश रहने लगे हैं और कम्पनी का भी मुनाफा बढ़ गया है और इस शोध के बाद से ही दुनिया में अलग अलग समय पर ये बहस होती रही कि इंसानों को हफ्ते में कितने घंटे काम करना चाहिए.


Norway में लोग हफ्ते में सिर्फ़ 27 घंटे काम करते हैं, लेकिन Productivity के मामले में ये लोग दुनिया के दूसरे देशों से कहीं आगे हैं. इसे आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि Norway के लोग जितना काम हफ्ते के 27 घंटों में करते हैं, उतना काम भारत और पाकिस्तान जैसे देशों के लोग हफ्ते के 40 घंटों में भी नहीं कर पाते.


इसी तरह जर्मनी, फ्रांस, Denmark और Netherlands की गिनती उन देशों में होती है, जहां लोग हफ्ते में 30 घंटे से भी कम काम करते हैं, लेकिन Productivity के मामले में ये दुनिया के टॉप 10 देशों में आते हैं.
दूसरी तरफ़ जिन देशों में लोग ज्यादा काम करते हैं, वहां लोगों की उत्पादन क्षमता काफ़ी कम है.


जापान में लोग हफ्ते में 33 घंटे काम करते हैं. जबकि भारत में लगभग 41 घंटे है, चीन में 42 घंटे, सिंगापुर में 45 घंटे, बांग्लादेश में साढ़े 46 घंटे और म्यांमार में लोग एक हफ्ते में 47 घंटे काम करते हैं.
और रिसर्च ये कहती है कि इन देशों में लोग काम तो ज्यादा घंटे करते हैं लेकिन उनकी उत्पादन क्षमता बहुत कम है और इन देश के लोग काम के दौरान खुद को थका हुआ ज्यादा महसूस करते हैं और इसीलिए अब दुनियाभर में चार दिन काम के कॉन्सेप्ट को लागू किया जा रहा है.


भारत में नियम लागू करना मुश्किल


आज भारत में भी चार दिन काम और तीन दिन आराम वाले कॉन्सेप्ट पर काम जारी है और केंद्र सरकार इसके लिए श्रम क़ानूनों से जुड़े नियमों में बदलाव करने की तैयारी कर रही है. भारत में इस नियम के अनुसार कर्मचारियों को रोज़ाना 12 घंटे काम करना होगा और उन्हे सप्ताह में तीन छुट्टियां दी जाएंगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इनकी वकालत की थी और कहा था कि वर्क फ्रॉम होम इकोसिस्टम, फ्लेक्सिबल वर्क प्लेसेज और फ्लेक्सिबल वर्किंग ऑवर्स भविष्य की जरूरतें हैं. लेकिन कई राज्यों ने इसे लेकर सहमति नहीं दी है और इसलिए ये नियम अभी तक लागू नहीं किया जा सका है.


सवाल ये भी है कि क्या भारत इस कॉन्सेप्ट अपनाने के लिए तैयार हो चुका है, क्योंकि हमारे यहां रोज़गार की स्थिति यूरोपियन देशों या अमेरिका जैसी नहीं है और यहां एक बड़ा तबका ऐसा है जो असगंठित क्षेत्र से जुड़ा है. जैसे आज छोटे और लघु उद्योगों में काम करने वाले लोगों को कई बार सप्ताह में एक छुट्टी भी नहीं मिल पाती है और उनके काम के घंटे भी तय नहीं होते हैं. प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड्स का भी यही हाल है और दिहाड़ी मज़दूरों के लिए तो ये नियम सोचा भी नहीं जा सकता.


हमारे देश में ऐसे कई सेक्टर हैं, जहां न तो काम के घंटे तय हैं, न ही छुट्टियां. पुलिस और हेल्थ सेक्टर भी ऐसे ही सेक्टर हैं. ऐसे में अगर भारत में इस नियम को लागू भी किया जाता है, तो इसका सभी सेक्टर्स पर लागू होना बेहद मुश्किल है और संभव है कि आईटी जैसे कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में काम करने वाले कर्मचारियों को ही ये सुविधा मिल सके.


आज जिन देशों में इस कॉन्सेप्ट को लागू किया गया है, या उनका ट्रॉयल चल रहा है, उनमें से ज्यादातर अमेरिका,और ब्रिटेन जैसे विकसित देश हैं और वहां श्रम कानूनों को कड़ाई से लागू करवाया जाता है और आज इसीलिए इन देशों की ज्यादातर कंपनियों की फैक्ट्रियां भारत, ताइवान और चीन जैसे विकासशील देशों में स्थित हैं और इसकी सबसे बड़ी वजह भी लेबर ला ही हैं क्योंकि चीन जैसे देशों में श्रम कानून बेहद लचर हैं और यहां इन कंपनियों को सस्ती वर्क फोर्स मिल जाती है. यही नहीं इन देशों में काम के घंटे भी तय नहीं होते और कई बार ज्यादा काम करवाने पर ओवरटाइम भत्ता भी नहीं दिया जाता. ऐसे में अगर भारत जैसे देश सख्त श्रम कानून लागू करते हैं, तो हो सकता है कि सस्ता लेबर ढंढने वाली ये कंपनियां भारत की जगह किसी ऐसे देश को तरजीह देने लगे, जहां काम के घंटे ज्यादा हों.


ये ख़बर आपने पढ़ी देश की नंबर 1 हिंदी वेबसाइट Zeenews.com/Hindi पर