नई दिल्ली: आज हम आपको बताएंगे कि रविवार 20 दिसंबर को सुबह देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) अचानक दिल्ली के रकाबगंज साहिब गुरुद्वारे (Rakab Ganj Sahib Gurudwara) क्यों पहुंच गए और गुरुद्वारे में उनके मत्था टेकने का मतलब क्या है? गुरुद्वारे में जाकर उन्होंने पंजाब के किसानों को संदेश देने की कोशिश की है और आज 22 दिसंबर को उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के छात्रों को संबोधित किया. यानी सिर्फ 36 घंटों में प्रधानमंत्री मोदी देश के दो समुदायों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं. प्रधानमंत्री की इस कोशिश को समझने से पहले आज हम आपको मशहूर शायर बिस्मिल सईदी का एक शेर पढ़कर सुनाना चाहते हैं. ये शेर है-


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सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते


और हर दर पे जो झुक जाए उसे सर नहीं कहते...



अब आप इसे सरल भाषा में समझिए. इसका एक अर्थ है कि गुरु के हर दर पर सिर हमेशा विनम्रता के साथ झुक जाता है. लेकिन जब वही सिर अहंकार से टकराता है तो वो कटना पसंद करता है, लेकिन झुकना नहीं.


20 दिसंबर को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने इसी विनम्रता के साथ दिल्ली के रकाबगंज साहिब (Rakab Ganj Sahib Gurudwara) गुरुद्वारे में सिर झुकाया. इस साल पूरी दुनिया में सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर का प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है. वर्ष 1675 में गुरु तेग बहादुर ने धर्म की रक्षा करते हुए अपनी शहादत दी थी और इसी अवसर पर देश के प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली के रकाब गंज साहिब गुरुद्वारे में पहुंचे. उन्होंने इस गुरुद्वारे के दर्शन दिल्ली और आस पास चल रहे उस किसान आंदोलन के दौरान किए हैं, जिसमें बड़ी संख्या में पंजाब के किसान हिस्सा ले रहे हैं और इनमें खासकर सिख किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है.


आज हम ये समझने की कोशिश करेंगे कि आंदोलन की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री मोदी का गुरुद्वारे में मत्था टेकना, क्या संदेश देता है और इसका मतलब क्या है?


प्रधानमंत्री मोदी 20 दिसंबर को सुबह करीब साढ़े 8 बजे रकाब गंज साहिब गुरुद्वारे पहुंचे और वहां लगभग बीस मिनट तक रुके. गुरुद्वारे पहुंचकर उन्होंने गुरु तेग बहादुर को और गुरु ग्रंथ साहिब को नमन किया. खास बात ये थी कि जब मोदी प्रधानमंत्री आवास से निकलकर इस गुरुद्वारे में पहुंचे. तब न तो ट्रैफिक को रोका गया और न ही गुरुद्वारे में प्रवेश करते समय, उनके साथ सुरक्षा में पुलिस कर्मी मौजूद थे. इस दौरान आम लोग भी गुरुद्वारे में दर्शन के लिए मौजूद थे, लेकिन प्रधानमंत्री की वजह से बाकियों को रोका नहीं गया और मोदी ने आम लोगों के बीच ही गुरुद्वारे में माथा टेका.


गुरु तेग बहादुर की कहानी


जैसा कि हमने आपको बताया आज से 345 वर्ष पहले सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर ने धर्म की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि गुरु तेग बहादुर की हत्या किसने की थी? आप में से ज्यादातर लोगों को महात्मा गांधी के हत्यारे का नाम तो पता होगा. लेकिन आप में से शायद बहुत कम लोग, गुरु तेग बहादुर के हत्यारे का नाम जानते होंगे. इस हत्यारे का नाम था, औरंगज़ेब जो एक क्रूर मुगल बादशाह था और उसी ने गुरु तेग बहादुर को इसलिए मौत की सज़ा सुनाई थी. क्योंकि, उन्होंने इस्लाम धर्म अपनाने से इनकार कर दिया था. हालांकि ये बात शायद ज्यादातर लोगों को पता नहीं होगी. ऐसा इसलिए है क्योंकि, हमारे देश के दरबारी इतिहासकारों ने खलनायकों को नायक बना दिया और देश के असली नायकों को भुला दिया.



ये एक तथ्य है कि औरंगजेब, भारत को एक इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाहता था और उसने कश्मीरी पंडितों को जबरदस्ती मुसलमान बनने के लिए मजबूर भी किया था. तब कश्मीरी पंडितों ने गुरु तेग बहादुर से मदद मांगी थी और गुरु तेग बहादुर ने उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिया था. इस पर औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाया और यातनाएं दीं. उनके शिष्यों को उनके सामने ही जिंदा जला दिया. गुरु तेग बहादुर को इस्लाम अपनाने के लिए कहा. गुरु तेग बहादुर ने जब इनकार कर दिया तो औरंगजेब ने उनका सिर कटवा दिया. इसी बलिदान की याद में हर वर्ष शहीदी दिवस मनाया जाता है. जिस स्थान पर गुरु तेग बहादुर का शीश यानी सिर काटा गया था. वो जगह दिल्ली में है और अब गुरुद्वारा सीस गंज साहिब के नाम से जानी जाती है.


लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पहले धर्म की रक्षा के लिए दिए गए इस बलिदान के बारे में शायद आपको भी पूरी जानकारी नहीं होगी. गुरु तेग बहादुर कोई राजा नहीं थे, वो चाहते तो कश्मीरी पंडितों की मदद करने से मना कर सकते थे और अपनी जान बचा सकते थे. पर उन्होंने धर्म का मार्ग चुना क्योंकि, उनका उपदेश था- "धर्म का मार्ग, सत्य और विजय का मार्ग है". शहीदों की इसी परंपरा पर देश को गर्व है. हमें अपने असली नायकों को पहचानना चाहिए और उन्हीं का सम्मान करना चाहिए.


University of California में इतिहास के प्रोफेसर डॉक्टर Noel King ने कहा था कि गुरु तेग बहादुर की शहादत, दुनिया में मानव-अधिकारों की रक्षा के लिए दिया गया पहला बलिदान था.


दरबारी इतिहासकारों ने गुरु तेग बहादुर की शहादत को भुला दिया


आप सोचिए कि भारत में ही सिख धर्म की शुरुआत हुई और यहीं से इस धर्म को मानने वाले पूरी दुनिया में गए. हालांकि यहां के दरबारी इतिहासकारों ने गुरु तेग बहादुर की शहादत को भुला दिया, लेकिन सिख धर्म पर रिसर्च करने वाले अमेरिका के एक प्रोफेसर को उनके बारे में पूरी जानकारी थी.


हालांकि गुरु तेग बहादुर सिखों के अकेले ऐसे गुरु नहीं थे, जिनकी हत्या किसी क्रूर मुगल बादशाह के इशारे पर की गई हो. वर्ष 1606 में सिख धर्म के पांचवे गुरु, गुरु अर्जन देव सिंह जी की हत्या मुगल बादशाह जहांगीर के इशारे पर की गई थी. जहांगीर वो क्रूर शासक था, जिसे हमारे देश के दरबारी इतिहासकारों ने बहुत धर्मनिरपेक्ष और दूसरे धर्मों का सम्मान करने वाला शासक बताया था. उसे बेहद न्यायप्रिय बताया गया. लेकिन सच ये है कि उस समय के मुगल शासक सिख धर्म के प्रसार से बहुत परेशान थे और वो जानते थे कि उनके लिए सिखों को हराना कितना मुश्किल है. इसलिए मुगलों ने सिख धर्म के गुरुओं की हत्या कराना शुरू कर दिया.



गुरु तेग बहादुर के पुत्र और सिखों के अंतिम और 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह ने भी मुगलों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी. लोगों की रक्षा के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी मुगलों और उनके सहयोगियों से लगभग 14 बार लड़े. उन्होंने इस लड़ाई में अपने पिता गुरु तेग बहादुर जी और अपने चार बेटों का बलिदान भी दिया और अंत में वर्ष 1708 में वे खुद शहीद हो गए.


इसी दौरान एक समय ऐसा भी आया जब मुगलों की सेना ने एक साथ 7 हज़ार सिखों का नरसंहार कर दिया था. उस समय लाहौर का एक गवर्नर हुआ करता था, जिसका नाम था ज़करिया ख़ान बहादुर. ज़करिया खान ने आदेश दिया था कि जो भी व्यक्ति किसी सिख का सिर कलम करेगा, उसे इनाम दिया जाएगा. लेकिन ये सब आपने इतिहास की पुस्तकों में शायद कभी नहीं पढ़ा होगा.


भारत की कुल आबादी में सिखों की हिस्सेदारी सिर्फ 2 प्रतिशत है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिन 121 देशभक्तों को ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में फांसी की सजा दी, उनमें से 93 सिख थे. वहीं जिन 2 हजार 626 लोगों को उम्र कैद की सज़ा दी गई, उनमें से 2147 सिख थे. यानी देश को विदेशियों के चंगुल से आजाद कराने में देश के सिख समुदाय की बहुत बड़ी भूमिका है और इनमें गुरु तेग बहादुर से लेकर भगत सिंह जैसे वीरों का बहुत बड़ा योगदान है.


सिर्फ मुगलों ने ही भारत में धर्म की रक्षा करने वाले महापुरुषों की हत्या नहीं की, बल्कि मुगलों के बाद आए अंग्रेज़ों ने भी ऐसा ही किया. लेकिन आप में से कितने लोगों को सिख, मराठा या हिंदू योद्धाओं के हत्यारों के नाम याद हैं? शायद आपको ऐसे बहुत कम नाम याद होंगे. छत्रपति शिवाजी महाराज उनके पुत्रों, महाराणा प्रताप और रानी लक्ष्मी बाई जैसे भारतीय जीवन भर मुगलों और अंग्रेज़ों से संघर्ष करते रहे, लेकिन इस संघर्ष को भारत के दरबारी इतिहासकारों ने कभी इतिहास की किताबों में ठीक से जगह ही नहीं दी.



ऐसा इसलिए है क्योंकि, आपको इतिहास की जो ज्यादातर पुस्तकें पढ़ाई गई हैं वो इतिहास बताने के नजरिए से नहीं, बल्कि सच्चा इतिहास छिपाने के नजरिए से लिखी गईं थी.


इन इतिहासकारों ने ही अंग्रेज़ों और मुगलों को ग्लैमराइज्ड किया और आज इस देश का दुर्भाग्य है कि भारत के शहीदों के साथ साथ लोगों का खून बहाने वाले अंग्रेज़ों और मुगलों की याद में बनाई गई सड़कें और स्मारक भी मौजूद हैं. सोचिए ये सब देखकर देश के लिए बलिदान देने वाले वीरों और वीरांगनाओं की आत्मा आज कितना दुखी होती होगी.


किसान आंदोलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी का गुरुद्वारे जाना और माथा टेकना भी यही संदेश देता है कि देश को ऐसे मुश्किल समय में एकजुट रहने की जरूरत है और देश को अखंड रखने का जो सपना देश के वीरों ने देखा था, उसे टूटने नहीं देना है.



AMU में पीएम मोदी का संबोधन
भारत की आबादी में सिखों की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत है जबकि मुसलमानों की 20 प्रतिशत है. गुरुद्वारे जाने के सिर्फ 36 घंटों के अंदर प्रधानमंत्री मोदी देश के मुस्लिम समुदाय को भी एक बड़ा संदेश दिया. आज प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी यानी AMU के एक कार्यक्रम को संबोधित किया. AMU इस साल अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर रहा है और इसी मौके पर इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया. 1964 के बाद ये पहली बार है, जब देश के प्रधानमंत्री ने एमीयू को संबोधित किया. अगर देश में कोरोना संक्रमण नहीं होता तो प्रधानमंत्री मोदी खुद AMU जाते. 


देश की राजधानी दिल्ली से AMU की दूरी सिर्फ 120 किलोमीटर है. लेकिन आप सोचिए, जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के बाद इतने वर्षों में देश का कोई प्रधानमंत्री AMU नहीं गया. प्रधानमंत्री मोदी 135 करोड़ भारतीयों के प्रधानमंत्री हैं और इनमें देश के 20 करोड़ मुसलमान भी शामिल हैं. इसलिए आप इसे सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की दिशा में एक बड़ा कदम कह सकते हैं.


AMU का इतिहास


इसे आप प्रधानमंत्री मोदी का सोशल आउट रीच वाला कदम भी कह सकते हैं, जिसके जरिए वो समाज के हर समुदाय तक पहुंचना चाहते हैं. लेकिन JNU की तरह AMU भी पिछले कुछ वर्षों से विवाद के केंद्र में रहा है. कभी यूनिवर्सिटी में मोहम्मद अली जिन्ना के पोस्टर्स को लेकर विवाद हुआ तो कभी नए नागरिकता कानून के विरोध में AMU के छात्रों ने प्रदर्शन किए और अब इस यूनिवर्सिटी के छात्रों का एक समूह, प्रधानमंत्री मोदी के इस संबोधन का भी विरोध कर रहा है. लेकिन जब एक प्रधानमंत्री देश को जोड़ने का काम कर रहा है, तो कुछ लोगों को इससे आपत्ति क्यों है?


ये समझने के लिए आपको AMU के इतिहास में चलना होगा.


अंग्रेज़ों के भारत आने के बाद भारत में मुगल सल्तनत का अंत हो गया था. औरंगज़ेब समेत कई मुगल शासक भारत को एक इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाहते थे. लेकिन उससे पहले ही उनकी हुकूमत समाप्त हो गई. हालांकि ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि देश को बांटने वाली इस विचारधारा को अंग्रेज़ों के भारत आने के बाद भारत के ही कई शक्तिशाली मुसलमान नेताओं ने आगे बढ़ाया. इनमें सबसे बड़ा नाम था अलीगढ़ मुस्लिम कॉलेज के संस्थापक सैयद अहमद खान का. वर्ष 1884 तक Syed Ahmed Khan भारत को हिंदू, मुस्लिम और ईसाइयों का देश मानते थे । ऐसा उनके लिए जरूरी भी था क्योंकि उनके अलीगढ़ कॉलेज में हिंदुओं का पैसा लगा था. लेकिन वर्ष 1885 में Indian National Congress बनने के बाद जब British सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों का उत्पीड़न शुरू किया तब Sir Syed Ahmed Khan ने अंग्रेजी सरकार का पक्ष लिया था. उन्हें उम्मीद थी कि इससे उनके कॉलेज को सरकारी समर्थन मिल जाएगा और मुसलमानों को ज्यादा से ज्यादा सरकारी नौकरियां मिल पाएंगी. यानी आज से 134 वर्ष पहले ही राजनीतिक फायदे के लिए समाज में तुष्टीकरण के बीज बो दिए गए थे.


14 मार्च 1888 को मेरठ में दिए एक भाषण में Sir Syed Ahmed Khan ने कहा था कि अगर आज अंग्रेज देश छोड़कर चले जाते हैं तो हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते. अगर मुसलमान चाहते हैं कि इस देश में वो सुरक्षित रह सकें तो इसके लिए जरूरी है कि अंग्रेजों की सरकार चलती रहे.


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बंगाल के विभाजन का फैसला


सैयद अहमद खान के विचार से प्रेरित होकर ही अंग्रेजों ने वर्ष 1905 में बंगाल का विभाजन किया था और वर्ष 1906 में ही मुस्लिम लीग का जन्म भी हो गया था. यानी अंग्रेज़ों ने बांटो और राज करो की जिस नीति को अपनाया, Two Nation Theory के समर्थकों ने उसी नीति के सहारे भारत को धार्मिक आधार पर बंटवारे की दिशा में मोड़ दिया. हालांकि वर्ष 1911 में बंगाल के विभाजन का फैसला रद्द कर दिया गया था, लेकिन इस बीच  कांग्रेस का बंटवारा भी नरम दल और गरम दल में हो चुका था. स्वराज की मांग कमज़ोर पड़ चुकी थी और समाज बंट चुका था. वर्ष 1928 में गुलाम हसन शाह काज़मी नाम के पत्रकार ने पाकिस्तान नाम से एक अखबार शुरू करने की अर्जी दी थी. वर्ष 1933 में चौधरी रहमत अली ने Now Or Never नाम से एक बुकलेट निकाली थी. इस बुकलेट में पहली बार पाकिस्तान नाम के एक मुस्लिम देश का जिक्र हुआ था. वर्ष 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने हिंदुस्तान से पाकिस्तान को अलग करने की बात कही थी । यानी हिंदुओं से नफरत के जो बीज सैयद अहमद खान ने बोए थे. उसे जिन्ना ने एक पेड़ में बदल दिया था.


लेकिन आजादी के बाद हमारे इतिहासकारों ने जिन्ना और सैयद अहमद खान जैसे लोगों को धर्मनिरपेक्ष बताना शुरू कर दिया और जो लोग अखंड भारत के पक्ष में थे वो सांप्रयादिक कहलाए गए. 


कुल मिलाकर जो यूनिवर्सिटी अक्सर विवादों का केंद्र बन जाती है और जहां अक्सर धर्म के नाम पर राजनीति होती है. उसकी स्थापना एक ऐसे व्यक्ति ने की थी जो भारत को दो टुकड़ों में बांटना चाहता था, लेकिन अब AMU के छात्रों तक पहुंचकर प्रधानमंत्री मोदी सबका साथ सबका विकास के पथ पर चलने के अपने प्रयास को आगे बढ़ाना चाहता हैं.


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पहले मुगलों ने, फिर अंग्रेज़ों ने और फिर देश के कुछ शक्तिशाली मुसलमान नेताओं ने हमेशा भारत को तोड़ने के सपने देखे और इनमें दरबारी इतिहासकारों ने इनका पूरा साथ दिया. लोगों को जबरदस्ती ईसाई बनाने वाले अंग्रेजों का विरोध नहीं किया गया, धर्म के नाम पर देश को बांटने वालों को सेक्युलर बना दिया गया. लेकिन जैसे ही कोई राजनेता हिंदुओं की बात करता है तो उसे विदेशी मीडिया Hindu Nationalist कहने लगता है, जबकि मुसलमानों के नाम पर राजनीति करने वाली AIMIM जैसी पार्टियों के बारे में इस तरह का एक शब्द भी नहीं लिखा जाता.


इस समय पश्चिमी देशों की तरह भारत के लोग भी क्रिसमस की तैयारियों में जुटे हैं. लेकिन हिंदुओं के त्योहारों को लोग पिछड़ेपन की निशानी मान लेते हैं.


ईसाई मिशनरियों के नाम पर बने स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कराने के लिए मां-बाप परेशान रहते हैं. इन स्कूलों में ईसाई तौर तरीकों से शिक्षा दी जाती है और इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन अगर कोई स्कूल सनातन संस्कृति के हिसाब से बच्चों को पढ़ाता है तो उसे शक की निगाह से देखा जाता है और उसका विरोध होने लगता है.



आपमें से शायद बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि जब 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने भारत के गोवा पर कब्जा किया था, तब वहां रहने वाले हिंदुओं का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न हुआ. सरकारी दफ्तरों में किसी भी पद पर हिंदुओं को बैठाने पर पाबंदी थी.


हिंदू-ईसाई धर्म से जुड़े किसी प्रतीक चिन्ह को अपने पास नहीं रख सकते थे और न ही उनका निर्माण कर सकते थे. गांवों में रहने वाले सभी हिंदू Clerks की जगह ईसाइयों की भर्ती कर दी गयी थी.


यहां तक कि किसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान हिंदुओं को गवाह बनाए जाने पर भी रोक थी. हिंदुओं के मंदिर तोड़ दिए गए थे और नए मंदिर बनाने पर भी रोक लगा दी गई थी.


इस दौरान हज़ारों हिंदुओं की हत्या भी की गई, लेकिन फिर भी ये सब न तो इसाई स्कूलों में पढ़ाया जाता है और न ही भारत में इतिहास की किताबों में इनका कोई खास जिक्र आता है. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दरबारी इतिहासकार भारत को कैसा देश बनाना चाहते थे.


असली गोदी मीडिया के इको​ सिस्टम ने आखिर कैसे  काम किया?


आजादी के बाद 70 वर्षों तक दरबारी और असली गोदी मीडिया के इस इको​ सिस्टम ने आखिर काम कैसे किया, इसे आप ऐसे समझ सकते हैं. गोदी मीडिया चार स्तंभों पर टिका है. 



पहला स्तंभ है दरबारी इतिहासकारों का, जिन्होंने इतिहास को ऐसे पेश किया, ताकि ये देश कभी एक हो ही न पाए.


दूसरा स्तंभ है, स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाई जाने वाली Text Books का. इनके जरिए भी देश की पीढ़ियों के मन में दरबारी राजनीति को पसंद आने वाले विचार डाले गए.


तीसरा स्तंभ दरबारी पत्रकारों का है, जिन्होंने देश को खतरा पहुंचाने वाली विचारधारा के लिए अपनी पत्रकारिता को नीलाम कर दिया और आखिर में आते हैं वो बुद्धिजीवी जो देश को बार बार ये कहकर डराते हैं कि देश का लोकतंत्र खतरे में है और देश के लोगों की आजादी छीन ली जाएगी.