नई दिल्ली: किसान आंदोलन में शामिल राजनीति के उन 'राजा बाबू' की असलियत आपको जाननी चाहिए, जिन्हें किसानों की समस्या की फिक्र कम और अपनी सियासत की चिंता ज्यादा होती है. हम इन्हें राजा बाबू इसलिए कह रहे हैं क्योंकि इनका चरित्र वर्ष 1994 में आई एक फिल्म के किरदार से काफी मिलता-जुलता है. इस फिल्म का नाम था 'राजा बाबू'.


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इस फिल्म में अभिनेता गोविंदा ने राजा बाबू का किरदार निभाया था. राजा बाबू अनपढ़ था, लेकिन उसकी हसरत एक पढ़े लिखे इंसान की तरह दिखने की थी. उसने अपने घर में पुलिस ऑफिसर, वकील और नेता की वेशभूषा में अपनी तस्वीरें लगा रखी थीं.


राजनीति के राजाबाबू योगेंद्र यादव


किसान आंदोलन में भी कुछ ऐसे ही नेता शामिल हैं. इनमें से एक नेता का नाम है- योगेंद्र यादव. ये स्वराज अभियान पार्टी के अध्यक्ष हैं. लाल किले पर जब देश के सम्मान को ट्रैक्टर से कुचला जा रहा था. तब योगेंद्र यादव (Yogendra Yadav) भी दूसरी जगह पर ट्रैक्टर रैली में शामिल थे.


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योगेंद्र यादव हाल के वर्षों में हर उस प्रदर्शन में शामिल रहे हैं, जिनका मकसद सिर्फ सरकार को चुनौती देना था. वो टीवी पत्रकार और चुनाव विश्लेषक भी रह चुके हैं. लोकपाल के लिए आंदोलन में भी शामिल रहे हैं और शाहीन बाग में CAA कानून के खिलाफ भी प्रदर्शन कर चुके हैं. यही नहीं योगेंद्र यादव 2014 में आम आदमी पार्टी से लोक सभा चुनाव भी लड़ चुके हैं. हालांकि तब उनकी जमानत जब्त हो गयी थी.


साल 2020 के दिल्ली दंगों पर पुलिस की चार्जशीट में उनका भी नाम है और सबसे अहम उन्हें आजादी मांगने वाले टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग अपना हमदर्द मानते हैं.


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राजनीति के राजाबाबू राकेश टिकैत


एक और किसान नेता हैं राकेश टिकैत. जो महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे हैं और भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं. राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) दिल्ली पुलिस में नौकरी भी कर चुके हैं और वर्ष 2007 में उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव भी लड़ा था. लेकिन तब उन्हें इतने वोट भी नहीं मिले थे, जिससे वो अपनी जमानत बचा पाते.


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साल 2014 में राकेश टिकैत की इच्छा सांसद बनने की हुई और उन्होंने अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी के टिकट पर अमरोहा सीट से चुनाव लड़ा. वो सिर्फ 9 हजार 539 वोट ही हासिल कर पाए. और उनकी जमानत जब्त हो गई. यानी जनता ने इन्हें पूरी तरह से नकार दिया. इसके बाद राकेश टिकैत को ये महसूस हुआ कि उनके लिए किसानों के नाम पर नेतागिरी करना ही ठीक है.


इन नेताओं की ये कुंडलियां बताती हैं कि ये राजनीति के राजाबाबू हैं, जिनका किसानों से कोई सरोकार नहीं है. ये सिर्फ और सिर्फ अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं.


अब उस महत्वपूर्ण बात के बारे में जानिए, जो इस वर्ष 26 जनवरी को चुपचाप बदल गई. 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर पत्थरबाजी हुई और श्रीनगर में कई जगहों पर तिरंगा लहरा रहा था. मशहूर डल झील के करीब सड़कों पर और वहां के शिकारों पर भी तिरंगा मौजूद था. कुछ साल पहले तक इसकी कल्पना करना भी मुश्किल था. पहले इसका ठीक उल्टा होता था. तब श्रीनगर की सड़कों पर पत्थरबाजी होती थी और दिल्ली की सड़कों पर तिरंगा होता था.


डॉक्टर भीम राव अंबेडकर ने किया था सावधान


लोकतंत्र के नाम पर भारत में ऐसे आंदोलन चल रहे हैं, जो अराजकता फैलाते हैं. इसकी चेतावनी संविधान के निर्माता डॉक्टर भीम राव अंबेडकर ने 71 साल पहले ही दे दी थी. उन्होंने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में एक प्रसिद्ध भाषण 'Grammar Of Anarchy' दिया था. डॉक्टर भीम राव अंबेडकर ने तब प्रजातंत्र में अराजकता वाली भाषा से देश को सावधान किया था.


उन्होंने कहा था कि हमें सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य हासिल करने के संवैधानिक तरीकों को मजबूती से थामना होगा. इसका मतलब ये है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को छोड़ देना चाहिए. हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की पद्धति छोड़ देनी चाहिए. जब सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य को हासिल करने के संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था, तब ये असंवैधानिक तरीकों को जायज ठहराने के लिए बड़ा मौका था. 


लेकिन जब संवैधानिक तरीके खुले हैं तो असंवैधानिक तरीकों को जायज नहीं ठहराया जा सकता. असंवैधानिक तरीका कुछ और नहीं बल्कि ये 'Grammar Of Anarchy' है और इसे जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, उतना ही ये हम सभी के लिए बेहतर होगा.


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