नई दिल्ली: अब हम एक ऐसे मुद्दे पर आपसे बात करना चाहते हैं, जो संवेदनशील होने के साथ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वास्थ्य से भी जुड़ा है. इलाहाबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) ने उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की योगी सरकार से मदरसों (Madrasas Funding) में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर कुछ सवालों के जवाब मांगे हैं. जैसे- क्या एक धर्मनिरपेक्ष राज्य धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसों को फंडिंग दे सकता है? क्या मदरसे धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुरूप हैं? क्या ये मदरसे सभी धर्मों में विश्वास के मौलिक अधिकार का पालन करते हैं? क्या मदरसों में लड़कियों को प्रवेश दिया जाता है?


धर्मनिरपेक्षता को बचाना सांप्रदायिक कैसे?


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कोर्ट ने मदरसों में पढ़ाए जाने वाले Syllabus, शर्तें और खेलने के लिए मैदान की अनिवार्यता जैसे नियमों के पालन की भी जानकारी मांगी है. हाई कोर्ट ने ये सवाल यूपी सरकार से 19 अगस्त को पूछे थे लेकिन इस फैसले की कॉपी बुधवार को ही वेबसाइट पर अपलोड की गई है. और तब से ही इन सवालों पर जानकारी मांगने के लिए हमारे देश का एक खास वर्ग अदालत पर सांप्रदायिक होने के आरोप लगा रहा है. लेकिन आज आपको ये सोचना है कि धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक शिक्षा देना सांप्रदायिक है या धर्मनिरपेक्षता को बचाना सांप्रदायिक है.


मदरसों की सरकारी फंडिंग पर सवाल


केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय के अनुसार, 2018-2019 में देश में कुल मदरसों की संख्या लगभग 24 हजार थी. इनमें तब लगभग 5 हजार मदरसे ऐसे थे, जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं थे. हालांकि ये संख्या सिर्फ उन मदरसों की है, जिन्होंने सरकारी मान्यता हासिल करने के लिए आवेदन किया. अनौपचारिक रूप से तो वैसे देश में लगभग एक लाख मदरसे हो सकते हैं और इनमें भी 30 से 40 हजार मदरसे केवल उत्तर प्रदेश में हैं. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इन मदरसों को मिलने वाली जिस सरकारी फंडिंग पर सवाल पूछा है, वो सबसे अहम है.


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भारत में हैं तीन तरह के मदरसे


बता दें कि भारत में तीन तरह के मदरसे हैं. पहले वो जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और जिन्हें केन्द्र और राज्य सरकारों से फंडिंग मिलती हैं. दूसरे वो जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं लेकिन उन्हें फंडिंग इस्लामिक संस्थाओं और मुस्लिम समुदाय के लोगों से मिलती है और तीसरे मदरसे वो जो ना तो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और ना ही इन्हें सरकार से फंडिंग मिलती हैं.


उत्तर प्रदेश में पहली और दूसरी श्रेणी के मदरसों की संख्या 16 हजार है, जिनमें 20 लाख बच्चे पढ़ते हैं. इनमें 558 मदरसे ऐसे हैं, जिन्हें सरकार से फंडिंग मिलती है. इस वित्त वर्ष में योगी सरकार ने इन मदरसों को 479 करोड़ रुपये दिए हैं. यानी औसतन एक मदरसे को 86 लाख रुपये की फंडिंग सालाना होती है.


अब मुद्दा ये है कि सरकार जिन मदरसों पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, उनका मुख्य उद्देश्य मुस्लिम बच्चों को इस्लामिक शिक्षा देना है. इन मदरसों में 12वीं कक्षा तक पढ़ाई होती है और सरकार से फंडिंग लेने के लिए इन मदरसों को गणित, विज्ञान, भूगोल और अंग्रेजी के विषय की पढ़ाई भी बच्चों को करानी पढ़ती है लेकिन इसके साथ ही बच्चों की धार्मिक शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाता है. मदरसों में बच्चों को छोटी उम्र से ही कुरान में कही गई बातों, इस्लामिक कानूनों और इस्लाम से जुड़े दूसरे विषयों के बारे में पढ़ाया जाने लगता है और इससे कहीं ना कहीं बहुत से बच्चे एक धर्म की शिक्षा तक ही सीमित रहते हैं.


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सवाल है कि जब देश का संविधान धर्मनिरपेक्षता की बातें करता है तो फिर सरकार के पैसों पर धार्मिक शिक्षा Secular कैसे हुई? असल मायनों में धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था स्कूलों में है, जहां बच्चों का धर्म और जाति देकर उन्हें सिलेबस नहीं पढ़ाया जाता. लेकिन मदरसों में ऐसी व्यवस्था नहीं है. बड़ी बात ये है कि भारत में ऐसे मदरसों की सही संख्या का अनुमान लगाना भी मुश्किल है, जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हैं. इन मदरसों को आजाद मदरसा कहा जाता है और यहां बच्चों को सिर्फ इस्लामिक शिक्षा ही दी जाती है.


एक अध्ययन के मुताबिक, मदरसों में पढ़ने वाले सिर्फ 2 प्रतिशत छात्र ही भविष्य में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं, जबकि 42 प्रतिशत छात्रों का उद्देश्य भविष्य में धर्म का प्रचार करना होता है. 16 प्रतिशत छात्र शिक्षक के रूप में धर्म की शिक्षा देना चाहते हैं. 8 प्रतिशत छात्र इस्लाम की सेवा करना चाहते हैं, जबकि 30 प्रतिशत का मकसद मदरसों से शिक्षा हासिल करने के बाद सामाजिक कार्य करना होता है, जबकि 2 प्रतिशत छात्र भविष्य में धर्म गुरु बनना चाहते हैं. यानी मदरसों से पढ़ने के बाद विज्ञान या टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में सफल होने की इच्छा नाम मात्र के छात्रों की होती है.


हाई कोर्ट ने मदरसों में लड़कियों के प्रवेश पर जो सवाल पूछा है, उस पर भी बहस शुरू हो सकती है. यूपी और बाकी राज्यों के मदरसों में लड़कियों की शिक्षा के लिए अलग-अलग नियम हैं. कहीं लड़कियों के लिए अलग से मदरसे बनाए गए हैं तो कहीं लड़कियां लड़कों के साथ ही मदरसों में पढ़ सकती हैं. हालांकि ऐसे मदरसों की संख्या अब भी मुट्ठीभर है. जिन मदरसों को सरकार से मान्यता नहीं मिली हुई है, उनमें अधिकतर ऐसे हैं, जहां लड़कियों के प्रवेश पर रोक है.


हाई कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 28 के संबंध में भी मदरसों को लेकर सवाल पूछा है. ये अनुच्छेद कहता है कि जिस शिक्षण संस्थान को सरकार से फंडिग मिलती है, वहां धार्मिक शिक्षा नहीं दी सकती है. इसलिए अब अदालत ने सरकार से जानकारी मांगी है कि क्या इस अनुच्छेद के तहत मदरसे धार्मिक शिक्षा दे सकते हैं? भारत में अभी ज्यादातर मदरसे संविधान के अनुच्छेद 30 के आधार पर चल रहे हैं.


इसमें भारत के अल्पसंख्यकों को ये अधिकार है कि वो अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और वो बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं.


भारत कहने के लिए तो एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यहां धार्मिक शिक्षा देने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ मदरसों को ही सरकार से फंडिंग मिलती है. देश में संस्कृत स्कूलों को भी सरकार से आर्थिक सहायता मिलती है और कई शिक्षण संस्थानों को भी अलग-अलग श्रेणी में मदद दी जाती है. लेकिन इन संस्थानों और मदरसों में फर्क ये है कि मदरसों की मूल भावना में इस्लाम को ही केन्द्र में रखा जाता है जबकि इन संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर ज्यादा जोर नहीं होता.


इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा मदरसे पाकिस्तान में हैं. वहां 60 हजार से ज्यादा मान्यता प्राप्त मदरसे हैं और इन्हीं मदरसों में तालिबान का कट्टर विचार भी जन्मा है. तालिबान का पश्तो में अर्थ छात्र ही होता है, जो मदरसों में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यतों की शिक्षा लेते हैं. यानी यहां भारत के लिए सीख ये है कि धार्मिक शिक्षा उस आरी की तरह है, जो धर्मनिरपेक्षता की मजबूत जड़ों को भी काट सकती है.


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