नई दिल्ली: भारत की महिला हॉकी (Women Hockey) टीम ओलंपिक खेलों (Tokyo Olympic 2021) में मेडल जीतने से ज़रूर चूक गई. हालांकि 16 खिलाड़ियों की इस टीम ने 135 करोड़ के भारत को जीतना सिखाया है. 


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हमारे देश में लड़कियों को लेकर बहुत से लोग आज भी Fair and Lovely वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं. इस महिला हॉकी टीम ने इस सोच को ग़लत साबित कर दिया है. Fair And Lovely वाली मानसिकता में ना तो कुछ भी Fair है और ना ही Lovely है.


लोगों को लड़कियों के प्रति अब भी नहीं बदली सोच


एक रिसर्च के मुताबिक भारत में सिर्फ 29 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं. जिन्होंने अपने जीवन में कभी ना कभी किसी खेल में हिस्सा लिया है. हमारे ही देश के 42 प्रतिशत लोग ऐसा मानते हैं कि महिलाओं को Sports में नहीं जाना चाहिए. जबकि सच ये है कि पिछले ओलंपिक खेलों में भारत के नाम सिर्फ दो मेडल थे. ये दोनों ही मेडल महिलाओं ने जीते थे. इस बार भी अब तक जो 5 Medals मिले हैं. उनमें तीन ओलंपिक Medals महिलाओं ने ही जीते है.


अब आप सोचिए. ये महिलाएं किन हालात का सामना करते हुए इस उपलब्धि तक पहुंची होगी. हॉकी (Women Hockey) के मैच में Britain की सिर्फ 11 खिलाड़ी इन महिलाओं के सामने थी. लेकिन अपने जीवन में ये महिलाएं पूरे समाज से भिड़ी होंगी.


कभी इन्हें खेलों वाले कपड़े पहनने के लिए टोका गया होगा. कभी बाल कटाने के लिए इनकी आलोचना की गई होगी. भारत की 50 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि वो शाम होने के बादघर से बाहर निकलने से डरती हैं. इस डर के बावजूद ये लड़कियां देर शाम तक Practice करती होंगी. जब ये अंधेरा होने के बाद घर लौटती होंगी तो इनकी माएं इनका इंतजार करती होंगी. इन्हें अपने भाइयों और पिता के लिए खाना भी बनाना होता है. भारत के 90 प्रतिशत पुरुष घर के काम काज में हाथ नहीं बंटाते. इसलिए भविष्य की इन Champions ने अपने भाइयों और पिता के हिस्से के काम भी किए होंगे.


कदम-कदम पर समाज से लिया लोहा


ब्रिटेन की टीम से हारने से पहले इन लड़कियों ने गोरे रंग की चाहत को हराया होगा. जब कोई धूप में बहुत देर तक खेलता है तो उसका रंग स्वाभाविक रूप से कुछ काला हो जाता है. इनके मां-बाप ने इन्हें कदम कदम पर ये कहके टोका होगा कि अगर ये धूप में ऐसे ही खेलती रहीं तो इनका रंग काला हो जाएगा और इनसे कोई शादी नही करेगा. भारत के 50 प्रतिशत पुरुष मानते हैं कि उन्हें पत्नी हर कीमत पर गोरी ही चाहिए.


इनमें से ना जाने कितनी लड़कियां जब अपने लिए बाज़ार में Hockey Sticks ढूंढ रही होंगी तो इनके घर वाले इनके लिए रिश्ता ढूंढ रहे होंगे. तब इन लड़कियों ने बड़ी हिम्मत करके अपने घर वालों से कहा होगा कि वो किसी अनजान लड़के से शादी नहीं कर सकती. इन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने खेल से प्यार है.


जब इनके खेल की वजह से इनका समाज इन्हें बिगड़ी हुई लड़कियां कहकर बुलाता होगा. तब भी इन्होंने अपनी मानसिक स्थिति को बिगड़ने नहीं दिया होगा. विरोधी के Goal Post पर जाकर सधे हुए निशाने के साथ Penalty Corner लेने वाली इन लड़कियों पर समाज ने Penalty लगाने की धमकी भी दी होगी. इन्हें Corner यानी कोने में धकेलने का डर भी दिखाया होगा. ये लड़कियां भी गोल कीपर सविता पुनिया की तरह इन तानों और धमकियों के सामने दीवार बनकर खड़ी हो गई होंगी.


इसीलिए जब इन्हें मौका मिला तो ये ना सिर्फ विरोधी खिलाड़ियों से जमकर टकराईं बल्कि हर एक गोल पर खुशी के मारे ज़ोर ज़ोर से चिल्लाईं ताकि इनकी जीत का शोर उस समाज के कानों से जाकर टकराए जो इन्हें घर में ऊंची आवाज में बात तक नहीं करने देता.


हारकर भी महिलाओं को जीतना सिखा दिया


झुलसती गर्मी में पसीना बहाती ये लड़कियां भले ही हार गईं. लेकिन इन्होंने देश की 65 करोड़ महिलाओं को बता दिया कि अब किसी को Fair And Lovely वाले फंदे में फंसने की ज़रूरत नहीं है. ये भी बता दिया कि लड़कियां देश की बेटियां बनकर सदा के लिए पुरुषों के संरक्षण में नहीं रह सकती.


धूप में काला पड़ता रंग, चेहरे पर आता पसीना और शरीर पर लगे चोट के निशान. ये बताते हैं कि गोरा बनाने वाली किसी भी क्रीम से बड़ा आपका Dream होता है. सपने देखकर आगे बढ़ने का यही संदेश हम इन विजेता लड़कियों के ज़रिए पूरे देश को देना चाहते हैं.


हम इन महिला खिलाड़ियों की कहानियों के बारे में भी आपको बताना चाहते हैं. जिनसे आपको ये पता चलेगा कि सफलता के लिए बड़ा मकान नहीं, बड़ा मुकाम हासिल करने का इरादा होना चाहिए.


इनमें पहली कहानी 24 वर्षीय नेहा गोयल की है. हॉकी और ज़िंदगी के मैदान में नेहा गोयल ने काफ़ी संघर्ष किया. उनका जन्म हरियाणा के सोनीपत के एक बहुत ग़रीब परिवार में हुआ था. उनके पिता को शराब की लत थी. परिवार की आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने की वजह से नेहा ने बचपन में अपनी मां के साथ एक साइकिल फैक्ट्री में मज़दूरी का भी काम किया. नेहा की ज़िन्दगी में हॉकी का प्रवेश तब हुआ, जब उनसे किसी ने ये कहा कि उन्हें हॉकी खेलने के लिए जूते और कपड़े दिए जाएंगे.


वंदना कटारिया ने दिखाई जीत की नई राह


इसी तरह की कहानी वंदना कटारिया की है. वंदना कटारिया हरिद्वार के पास स्थित एक छोटे से गांव रोशनाबाद से आती हैं. जब उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया था तो गांव के लोगों को इस पर कड़ी आपत्ति थी. इन लोगों को लगता था कि वंदना कटारिया के हॉकी खेलना से गांव की दूसरी लड़कियों पर ग़लत असर पड़ेगा. इस विरोध के बावजूद वंदना कटारिया और उनके पिता ने हॉकी का मैदान नहीं छोड़ा. वो अपने गांव के लोगों से छिप कर प्रैक्टिस करने लगीं. वो अपनी मेहनत और लगन से अपनी ज़िन्दगी का मैच भी जीत चुकी हैं.


हालांकि उनके गांव के कुछ लोगों की मानसिकता अब भी नहीं बदली है. महिला हॉकी (Women Hockey) टीम जब अपना सेमीफाइनल मैच हारी थी तो उनके गांव के कुछ लड़कों ने पटाखे फोड़ कर जश्न मनाया था, जिसके ख़िलाफ़ उनके परिवार ने पुलिस से कड़ी कार्रवाई की मांग की है और कहा है कि अगर ये कार्रवाई नहीं हुई तो वो आत्मदाह कर लेंगे. वंदना कटारिया दलित हैं और कहा जा रहा है कि उनकी जाति की वजह से उनकी हार पर कुछ लड़कों ने ये जश्न मनाया.


महिला हॉकी टीम की स्टार खिलाड़ी गुरजीत कौर का सफ़र भी मुश्किलों से भरा था. उनका जन्म पंजाब में पाकिस्तान की सीमा से लगे एक गांव में हुआ था, जहां लड़कियों के खेलने को सही नहीं माना जाता था. लोग ऐसी लड़कियों को अच्छी नज़र से नहीं देखते थे और परिवार को भी समाज में सम्मान नहीं मिलता था. लेकिन गुरजीत ने कोशिश नहीं छोड़ी और आज उन्हें हॉकी में दुनिया की सबसे बेहतर Drag Flicker में गिना जाता है.


नीशा वारसी की कहानी भी संघर्षों से भरी है. नीशा का हॉकी (Women Hockey) से परिचय उनके पिता ने कराया था, जो दर्जी का काम करते थे. संसाधानों की कमी के बावजूद उनके पिता ने कभी भी नीशा का उत्साह कम नहीं होने दिया. वर्ष 2015 में जब उनके पिता को Paralytic Attack आया तो उनकी मां को Foam की एक फैक्ट्री में काम करना पड़ा. शायद इसी वजह से वो दो वर्षों तक हॉकी के खेल से भी दूर रहीं. हालांकि वर्ष 2018 में उन्होंने शानदार वापसी की और महिला हॉकी टीम की एक अहम खिलाड़ी बन गईं.


नक्सलियों के आतंक के बीच बनाई हॉकी की राह


एक और खिलाड़ी निक्की प्रधान के लिए भी हॉकी खेलना आसान नहीं था. वो झारखंड में नक्सलवादियों के गढ़ माने जाने वाले हेसल इलाक़े से आती हैं. जहां हॉकी स्टिक की जगह लोगों के हाथों में जबरन बन्दूकें थमा दी जाती हैं. हालांकि निक्की प्रधान के लिए नक्सलवाद ही एक चुनौती नहीं थी. उनका परिवार काफ़ी ग़रीब था और इसी वजह से उन्होंने अपनी पहली हॉकी स्टिक ख़रीदने के लिए खेतों में मज़दूरी का काम किया था. हॉकी के खिलाड़ी जो जूते पहनते हैं, उन जूतों के लिए भी उन्हें काफ़ी लम्बा इन्तज़ार करना पड़ा. 13 साल की उम्र में जब वो रांची की एक हॉकी Academy में पहुंची तो पहली बार उन्हें ये जूते मिले.


एक और खिलाड़ी सलीमा टेटे भी झारखंड के हेसल से आती हैं. उन्होंने बचपन में खेतों में मज़दूरी की और आज भी वो एक कच्चे घर में रहती हैं. 


हमारे देश में जो लड़के लड़कियां समृद्ध परिवार से आते हैं, वो अक्सर प्रयास ही नहीं करते. अगर उन्हें ऐसे कच्चे और टूटे फुटे मकानों में रहना पड़े तो वो बहाने बनाएंगे. वे कहेंगे कि हम इसलिए खेल नहीं पाए क्योंकि हमारे सिर पर पक्की छत ही नहीं थी या हमारे पास मकान नहीं था. हमें लगता है कि ये मकान तो एक बहाना है. जो लोग सफलता के मुकाम तक पहुंचना चाहते हैं, वो मकानों की परवाह नहीं करते.


इसे आप एक और कहानी से समझ सकते हैं. उत्तर पूर्वी भारत के मिज़ोरम राज्य से आने वाली लालरे सामी मिज़ोरम के एक दुर्गम गांव से आती हैं, जहां हॉकी (Women Hockey) खेलने के लिए उनके पास बहुत कम संसाधन थे. 16 साल की उम्र में जब वो महिला हॉकी टीम का हिस्सा बनीं तो उन्हें हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा दोनों नहीं आती थी. उन्हें इशारों में अपनी बात कहनी पड़ती थी. हॉकी के खेल में संवाद सबसे ज़रूरी होता है. ये उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी थी. लेकिन लालरे सामी ने ग़रीबी की तरह भाषा की इस दीवार को भी गिरा दिया.


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30 किमी दूर जाती थी हॉकी सीखने


सविता पुनिया भी हॉकी सीखने के लिए अपने घर से 30 किलोमीटर दूर एक स्कूल जाती थीं. ये सफ़र उन्हें बस से तय करना होता था. इस दौरान बस में बैठे लोग उनसे कहते थे कि वो अपना हॉकी का किट बैग बाहर रख आएं. इन तानों से सविता पुनिया ने हार नहीं मानी और धैर्यवान होकर इस मुकाम तक पहुंचीं.


शुक्रवार को महिला हॉकी टीम की खिलाड़ी नवनीत कौर चोट के बावजूद Bronze Medal मैच खेल रही थीं. उनकी आंखों के पास चार टांके लग हुए थे. ये चोट उन्हें सेमीफाइनल मैच के दौरान आई थी.


ओलंपिक (Tokyo Olympic 2021)में कोई मेडल न मिलने से महिला हॉकी (Women Hockey) टीम निराश है. वो मेडल के इतना क़रीब पहुंच कर भी पोडियम तक नहीं पहुंच पाई. हम इस पूरी टीम से यही कहना चाहते हैं कि पूरा देश उन्हें Salute कर रहा है और अपने देश के लोगों के Salute से बड़ा कोई मेडल नहीं होता.


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