'एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं' इन चंद शब्दों में फिराक साहब में दुनिया के उन तमाम आशिकों का दुख पिरोकर रख दिया जिनका प्यार किसी वजह से मुक्कमल नहीं हो सका. फिराक गोरखपुरी साहब हर दौर के आशिकों की जुबान हैं! आज यानी 28 अगस्त को फिराक गोरखपुरी साहब का जन्मदिन है. साल 1896 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मे फिराक साहब उर्दू के मशहूर कवि हैं. इनकी पढ़ाई-लिखाई अरबी, फारसी और अंग्रेजी भाषा में हुई थी. फिराक साहब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाया करते थे. आज उनके जन्मदिन के खास मौके पर हम उनसे जुड़ा एक दिलस्पच किस्सा लेकर आए हैं.


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फक्कड़, बेबाक और बेखौफ अंदाज वाले फिराक साहब एक बार पंडित जवाहर लाल नेहरू पर भड़क गए थे. दरसल, यह साल था दिसंबर 1947 का, जब नेहरू जी आनंद भवन पहुंचे हुए थे. इस दौरान नेहरू जी से मिलने फिराक गोरखपुरी आनंद भवन पहुंचे थे. गेट पर बैठे रिसेप्शनिस्ट ने आर. सहाय के नाम की पर्ची अंदर भेज दी और फिराक साहब बाहर इंतजार करने लगे.


करीब 15 मिनट होने के बाद भी अंदर से कोई जवाब नहीं आया. इसके बाद फिराक साहब का पारा गरम हुआ और भड़के हुए वो बाहर ही शोर मचाने लगते हैं. आवाज सुनकर नेहरू जी बाहर आए लेकिन फिराक साहब अभी भी शांत नहीं थे. नेहरू जी ने बताया कि मैं करीब 30 वर्षों से आपको 'रघुपति सहाय' के नाम से पहचानता हूं. इसके बाद नेहरू जी उन्हें खुद अंदर ले जाते हैं.


रात भी नींद भी कहानी भी 


हाए क्या चीज है जवानी भी 


एक पैगाम-ए-जिंदगानी भी 


आशिकी मर्ग-ए-ना-गहानी भी 



इन चंद लाइनों में जिंदगी का मर्म समझाने वाले फिराक साहब ने भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में भी अहम योगदान दिया और यहीं से रघुपित सहाय को 'फिराक' उपनाम मिला. बात तब की है... जब देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को जेल भेज दिया गया था. इस गिरफ्तारी के विरोध में स्वदेश के संपादकीय में एक गजल छपती है... 'जो जबानें बंद थीं आजाद हो जाने को हैं'


यह रघुपित सहाय की गजल थी जिसकी वजह से 27 फरवरी 1921 को उन्हें जेल जाना पड़ा था. रामनाथ लाल सुमन जब स्वदेश के संपादक बने तब स्वदेश के होली अंक में रघुपति सहाय ने फिर गजल लिखी और यहीं पहली बार उनके साथ 'फिराक' उपनाम जुड़ गया.


फिराक साहब की यह गजल कुछ इस तरह थी...


न समझने की है बात न समझाने की
जिंदगी उचटी हुई नींद है दीवाने की