DNA Analysis: अस्पताल के बाहर मासूम ने क्यों तोड़ा दम? सिस्टम की लापरवाही मरीजों की जान पर भारी
Child died outside hospital: असली इलाज की जरूरत तो हमारे देश के हेल्थ सिस्टम को है, जो लापरवाही की गंभीर बीमारी से पीड़ित है. ये बीमारी कितनी दुर्लभ है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइये कि लापरवाही सिस्टम करता है और जान मरीजों की जाती है.
Child death in Jabalpur: आज DNA में हम आपसे एक सवाल पूछकर करना चाहते हैं. सवाल ये है कि हमारे देश में सबसे सस्ती चीज क्या है? आप अलग-अलग अंदाजा लगा रहे होंगे. लेकिन इस सवाल का सही जवाब है आम आदमी की जान. यानी एक ऐसी चीज, जिसे अनमोल होना चाहिए, उसी का मोल हमारे देश में जीरो है. अगर आपको इस बात पर कोई शक है, तो हम जो खबर आपको बताने वाले हैं, वो आपके सारे शक दूर कर देगी. जबलपुर में एक मां अपने 5 साल के बीमार बेटे को गोद में लेकर अस्पताल के बाहर बैठी रही. लेकिन किसी ने भी उस बच्चे का इलाज नहीं किया क्योंकि OPD के समय में भी अस्पताल में कोई डॉक्टर मौजूद ही नहीं था. रोती बिलखती मां अपने 5 साल के बेटे को सीने से लगाए रोती रही और फिर मां की गोद में ही मासूम बेटे ने दम तोड़ दिया.
बच्चे की मौत के बाद भी नहीं पहुंचे डॉक्टर
दिल तोड़ देने वाली ये घटना जबलपुर के बरगी स्वास्थ्य आरोग्यम केंद्र की है जिसके डॉक्टरों की लापरवाही ने एक मां की गोद उजाड़ दी. जहां कई घंटों तक बेबस मां और परिवारवाले अपने 5 साल के बीमार बच्चे को गोद में उठाए डॉक्टर के आने का इंतजार करते रहे, लेकिन डॉक्टर नहीं आया. लापरवाही की इंतेहा तो तब हो गई जब मासूम बच्चे की मौत के कई घंटों बाद भी अस्पताल में कोई डॉक्टर नहीं पहुंचा. बच्चे के परिवार का कहना है कि बच्चे को उल्टी-दस्त लगे थे. वो बच्चे को सुबह करीब दस बजे स्वास्थ्य केंद्र लेकर पहुंचे. आरोप है कि अस्पताल में बच्चे की मेडिकल जांच के लिए एक भी डॉक्टर नहीं था, एक नर्स ड्यूटी पर थी.
नर्स ने परिवार को बताया कि डॉक्टर की ड्यूटी सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक रहती है. परिवार का आरोप है कि वो 12 बजे तक अस्पताल में डॉक्टर का इंतजार करते रहे. लेकिन डॉक्टर नहीं आये. इस दौरान बच्चे की तबीयत बिगड़ती चली गई और उसकी अस्पताल में ही मौत हो गई. क्या आपको अब भी इस बात पर शक है कि हमारे देश में आम आदमी की जान सबसे सस्ती है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या अस्पताल के बाहर एक मासूम इलाज के अभाव में दम तोड़ता?
मासूम की मौत का जिम्मेदार कौन?
बच्चे की मौत के लिए जो डॉक्टर जिम्मेदार हैं, उनका नाम डॉक्टर लोकेश श्रीवास्तव है जो 12 बजे के बाद अस्पताल पहुंचे थे, जबकि अस्पताल की OPD सुबह 9 बजे शुरू होकर शाम 4 बजे खत्म होती है. डॉक्टर साहब इसलिए अपनी ड्यूटी पर देर से पहुंचे क्योंकि एक दिन पहले उनकी पत्नी का व्रत था. ये दलील देकर डॉक्टर साहब तो सभी आरोपों से बरी हो गये तो क्या मान जाए, गलती व्रत रखने वाली उनकी पत्नी की है, या उस मां की, जिसकी गोद में उसके बच्चे ने आखिरी सांस ली क्योंकि डॉक्टर साहब को अपनी पत्नी को टाइम देना था.
जबलपुर के कलेक्टर मुद्दे को भटकाने की कोशिश कर रहे हैं. सवाल ये है ही नहीं कि बच्चे को क्या बीमारी थी, सवाल ये भी नहीं है कि बच्चे ने अस्पताल में दम तोड़ा या अस्पताल आने से पहले उसकी मौत हो गई, सवाल ये है कि अस्पताल में कोई डॉक्टर मौजूद क्यों नहीं था ? अब जरा कलेक्टर साब के दावों का छोटा सा रियलिटी चेक भी कर लेते हैं. जबलपुर कलेक्टर इलैयाराजा टी. का दावा है कि अस्पताल में डॉक्टर मौजूद थे. यानी कलेक्टर साब उस डॉक्टर को बचाने की कोशिश कर रहे हैं जो खुद कबूल कर रहा है कि वो लेट हो गया था. जबलपुर के कलेक्टर का दावा है कि बच्चे का एक पैर जल गया था, इसके अलावा बच्चे को कोई गंभीर बीमारी नहीं थी. लेकिन कलेक्टर साब ने ये नहीं बताया कि बच्चे को ऐसी कौन सी सामान्य बीमारी थी जिससे उसकी मौत हो गई. जबलपुर कलेक्टर का दावा है कि बच्चे की मौत अस्पताल आने से पहले हो चुकी थी. अगर वाकई ऐसा था, तो भी बच्चे को देखने के लिए डॉक्टर को दो घंटे से ज्यादा क्यों लग गये?
सिस्टम को है इलाज की जरूरत
दरअसल असली इलाज की जरूरत तो हमारे देश के हेल्थ सिस्टम को है, जो लापरवाही की गंभीर बीमारी से पीड़ित है. ये बीमारी कितनी दुर्लभ है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइये कि लापरवाही सिस्टम करता है और जान मरीजों की जाती है. लापरवाही की ये बीमारी इतनी पुरानी है कि अब हमारे देश का पूरा सिस्टम इसके असर से इम्युन हो चुका है. लोगों की जान चली जाती है लेकिन फिर भी जिम्मेदार अधिकारियों की नौकरी पर आंच तक नहीं आती. किसी अस्पताल में इलाज के अभाव में मौत की ये कोई इकलौती और अनोखी घटना नहीं है. ये लापरवाही नहीं बल्कि सिस्टम और सरकारों का नैतिक भ्रष्टाचार है, जिसमें पैसों की नहीं, बल्कि इंसानों की जान लेने की लूट मची है. हमारे देश में सरकारी बाबू और मंत्री..लाखों-करोड़ों की गाड़ियों में चलते हैं. लेकिन जब उनसे अस्पतालों में एंबुलेंस जैसी बेसिक सुविधा देने पर सवाल पूछा जाता है तो वो बजट नहीं होने की दुहाई देने लगते हैं. सिस्टम का ये खिलवाड़ मरीज की मौत के बाद भी जारी रहता है.
अभी हफ्ते भर पहले उत्तर प्रदेश के बागपत में दो साल के बच्चे के शव को एंबुलेंस तक नसीब नहीं हुई तो 10 साल का भाई और पिता, मासूम के शव को गोद में उठाकर श्मशान घाट ले जाने के लिए पैदल ही निकल पड़े. कौशांबी में तो एक सरकारी अस्पताल में ऑपरेशन के दौरान एक बच्चे की जान चली गई. पिता ने आरोप लगाया कि डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिए उससे तीन हजार रुपये लिए. लेकिन इलाज के दौरान लापरवाही से उसके बेटे की मौत हो गई. इसके बाद वो पिता, बच्चे का शव ले जाने के लिए एंबुलेंस की तलाश में तीन घंटे तक अस्पताल में भटकता रहा. ऐसी घटनाएं आए दिन सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं, अखबारों में छपती हैं. लेकिन सिस्टम और सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. इंक्वायरी बैठती हैं और जिम्मेदार अधिकारियों को क्लीन चिट बांट दी जाती हैं, ज्यादा से ज्यादा सस्पेंशन या ट्रांसफर होता है. लेकिन ऐसी जानलेवा लापरवाही की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता.
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