PM Narendra Modi On Karpoori Thakur: लोकसभा चुनाव से ठीक पहले देश के सबसे बड़े ओबीसी वोटबैंक और इसी समुदाय से आने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की काफी चर्चा हो रही है. गरीब नाई परिवार में जन्मे जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न के ऐलान के बाद बिहार में सरकार का रूपरंग बदल गया. अब लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्पूरी का जिक्र करते हुए कांग्रेस पर हमला बोला है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार ने ओबीसी समुदाय के साथ कभी न्याय नहीं किया. इन लोगों ने ओबीसी नेताओं का अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसके बाद उन्होंने 1970 में बिहार के मुख्यमंत्री बने कर्पूरी सरकार को हटाए जाने के लिए खेले गए 'सियासी खेल' की बात कही. अगर आपने भी स्पीच देखी है तो मन में जरूर सवाल उठा होगा कि आज से करीब 53-54 साल पहले बिहार में क्या चल रहा था? 



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पीएम ने क्या कहा


संसद में पीएम मोदी ने कहा कि कुछ दिन पहले हमने कर्पूरी ठाकुर जी को भारत रत्न देकर सम्मान दिया, लेकिन याद कीजिए अति पिछड़े ओबीसी समाज के उस महापुरुष के साथ क्या व्यवहार हुआ था. 1970 में वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. उनको पद से हटाने के लिए कैसे-कैसे खेल खेले गए थे. उनकी सरकार अस्थिर करने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया. मोदी ने कहा कि कांग्रेस को अति पिछड़ा व्यक्ति बर्दाश्त नहीं हुआ था. 1987 में जब कांग्रेस का पूरे देश में झंडा फहरता था तब उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को प्रतिपक्ष के नेता के रूप में भी स्वीकार नहीं किया. 


कहानी 1970 की


  • यह वो दौर था जब बिहार में सीएम-सीएम का खेल चल रहा था. 1968 में लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी के नेता भोला पासवान शास्त्री पहले अनुसूचित जाति के सीएम बने लेकिन तीन महीने ही सरकार चला पाए.

  • पहली बार बिहार में 1968 में राष्ट्रपति शासन लगा और 8 महीने चला.

  • 1969 में मध्यावधि चुनाव हुए. बिखरा विपक्ष कांग्रेस का विकल्प नहीं बन पा रहा था.

  • फरवरी 1969 में कांग्रेस ने सरकार बना ली. चार महीने बाद शास्त्री फिर सीएम बने लेकिन सिर्फ 12 दिन रहे. 


बिहार में तिवारी vs कर्पूरी


उस समय 'लोहिया-कर्पूरी की ललकार, बदलो-बदलो ये सरकार' और 'न सौ से कम, न हजार से ज्यादा, यही है समाजवादी विचारधारा' जैसे नारे लगाए जाते थे. इसने समाज के पिछड़े और दलित वर्ग का ध्यान खींचा. 'समाजवाद के जननायक' किताब में उस दौर के बिहार के राजनीतिक हालात को विस्तार से बयां किया गया है. 1965 और 1972 के बीच कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी और भोला प्रसाद सिंह बिहार में एसएसपी (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) की अग्रणी ताकत थे लेकिन गठबंधन के सवालों और मुद्दों पर उनमें मतभेद थे. यही आगे चलकर कर्पूरी सरकार के पतन का भी कारण बने.  


भोला प्रसाद सिंह जिस विंग के प्रवक्ता थे, उसने कांग्रेस (आर) के खिलाफ कांग्रेस (ओ), जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के साथ गठबंधन का तर्क दिया. रामानंद तिवारी के नेतृत्व वाले विंग ने कांग्रेस (आर) और पी.एस.पी. (प्रज्ञा सोशलिस्ट पार्टी) के साथ गठबंधन का समर्थन किया. इस समय कर्पूरी ठाकुर की किसी भी पक्ष में मजबूत पहचान नहीं थी. गठबंधन की संरचना के जटिल मुद्दे को लेकर समाजवादी दिग्गजों- रामानंद तिवारी और कर्पूरी ठाकुर के बीच सामान्य सौहार्द और आंतरिक प्रतिद्वंद्विता 1969-1971 के दौरान राजनीतिक परिदृश्य पर हावी रही.


जहां S.S.P. कांग्रेस (ओ), जनसंघ का एक समूह सीएम उम्मीदवार के रूप में रामानंद तिवारी का समर्थन करने के लिए साथ आया, वहीं दूसरे समूह ने ठाकुर की उम्मीदवारी को बढ़ावा दिया. किसी उच्च जाति के नेता को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करने को लेकर आशंका और दक्षिणपंथी जनसंघ के साथ गठबंधन के जोखिम को पिछड़े वर्ग के हितों और समाजवादी विचारधारा के साथ विश्वासघात माना गया... एक नेता के रूप में कर्पूरी ठाकुर की स्वीकार्यता की कमी के तथ्य से परिचित होने के बाद रामानंद तिवारी एस. एस.पी. के आंतरिक विवाद पर खुलकर सामने आए और जनसंघ के खिलाफ मुखर रूप से लिखा. 


इधर कांग्रेस ने सरकार बना ली


28 फरवरी 1970 को एसएसपी संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष को लिखे पत्र में तिवारी ने जनसंघ के खिलाफ बोला. कांग्रेस पार्टी ने एसएसपी में आंतरिक प्रतिद्वंद्विता का फायदा उठाया और वह मुख्यमंत्री के रूप में दरोगा प्रसाद रॉय के नेतृत्व में सरकार बनाने में कामयाब रही. हालांकि यह सरकार बमुश्किल 9 महीने ही टिक सकी. 


फिर कर्पूरी को मिला जनसंघ का साथ


गौर करने वाली बात यह है कि दिसंबर 1970 में कर्पूरी ठाकुर ने जनसंघ के समर्थन से ही सरकार बनाई और रामानंद तिवारी उनकी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने. वास्तव में गठबंधन को लेकर आशंका, मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों की जाति, उच्च जाति के नेता को सीएम के रूप में स्वीकार करने का विरोध और एसएसपी में फूट के डर के कारण एक समझौता हुआ था, जिसने कर्पूरी ठाकुर को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया. यह सरकार एसएसपी, कांग्रेस (ओ), जनसंघ, स्वतंत्र और अन्य छोटी पार्टियों का गठबंधन थी. यह गठबंधन ज्यादा नहीं चल सका.


कर्पूरी के दोस्त और दुश्मन


'सप्तक्रांति के संवाहक जननायक कर्पूरी ठाकुर स्मृति ग्रंथ' पुस्तक में लिखा गया है कि डिप्टी सीएम पद पर पहुंचने जैसी महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल करने के बाद कर्पूरी ठाकुर का जो राजनीतिक रुतबा बढ़ा, उससे उनके दोस्त पैदा हुए और दुश्मन भी. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के भीतर भी आंतरिक धुव्रीकरण होने लगा था. रामानंद तिवारी और कर्पूरी ठाकुर दो ध्रुव बनने लगे. ये ध्रुव 1970 आते-आते दो परस्पर विरोधी खेमों में तब्दील हो गए. इस दौरान बिहार की प्रतिपक्षी राजनीति के दो चतुर खिलाड़ी भोला प्रसाद सिंह और इंद्र कुमार कर्पूरी ठाकुर के मुख्य सलाहकार थे.


इन सलाहकारों की राय थी कि कर्पूरी ठाकुर जैसे ईमानदार, कर्मठ और योग्य नेता को बिहार और देश की राजनीति के शीर्ष पर होना चाहिए लेकिन उन्हें उच्च जातियों के वर्चस्व वाली राजनीति एक हद से आगे बढ़ने नहीं दे रही है. इन सलाहकारों ने कर्पूरी ठाकुर से उनकी अपनी शक्ति पहचानने की सलाह दी. रामानंद तिवारी 1969 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) विधायक दल के नेता चुने गए थे. जुलाई 1969 में जब भोला पासवान शास्त्री की सरकार गिर गई तो अवसर आया कि SSP कुछ अन्य प्रतिपक्षी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाए. 


दूसरे प्रतिपक्षी दलों में जनसंघ भी था. रामानंद तिवारी के मुख्यमंत्री बन जाने की पूरी संभावना थी. हालांकि कर्पूरी ठाकुर के समर्थकों ने ठाकुर को सलाह दी कि रामानंद तिवारी को मुख्यमंत्री बनने देना ठीक नहीं होगा. कर्पूरी ठाकुर के समर्थकों ने तर्क दिया कि हमें जनसंघ जैसी सांप्रदायिक पार्टी के साथ मिलकर सरकार नहीं बनानी चाहिए. एक ने कहा कि SSP की सरकार के मुख्यमंत्री के पद पर तो किसी पिछड़ी जाति के नेता को ही बैठना चाहिए. रामानंद तिवारी भी जनसंघ वाले तर्क को मान गए. इस तरह रामानंद तिवारी को एक योजना के तहत मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया गया.


यह बात जनवरी 1970 की है. एक साल के भीतर यानी 22 दिसंबर 1970 को उसी जनसंघ की मदद से कर्पूरी ठाकुर खुद मुख्यमंत्री बन गए. वह बिहार में पहले समाजवादी मुख्यमंत्री थे. कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक सफलता में उनके एक समर्थक इंद्र कुमार (तब के एम.एल.सी.) की महत्वपूर्ण भूमिका थी. कुछ लोग इसे कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विजय के साथ नैतिक हार भी कहते हैं तो कुछ इसे राजनीतिक कौशल. फिर शुरू हुई कर्पूरी-तिवारी उठापटक. जनता शासनकाल में वह शीर्ष पर था. जनता पार्टी के सांसद रामानंद तिवारी ने खुद अपनी पार्टी की सरकार के खिलाफ पटना में अनशन किया. रामानंद तिवारी ने कर्पूरी ठाकुर की सरकार को गिराने और फिर राम सुंदर दास की सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.


कांग्रेस की अपर कास्ट पॉलिटिक्स!


आखिरकार कर्पूरी ठाकुर जून 1971 तक ही सीएम रह पाए. एक बार फिर भोला पासवान शास्त्री ने 1972 तक के चुनावों तक कुर्सी संभाली. 167 सीट के साथ कांग्रेस को बहुमत मिला और ब्राह्मण नेता केदार नाथ पांडे आगे सीएम बने. वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर कुछ समय कर्पूरी ठाकुर के निजी सहायक रहे थे. 'कितना राज कितना काज' किताब में उनका बयान छपा है. सुरेंद्र ने कहा था, 'उस समय बिहार ने 9 सीएम, तीन राष्ट्रपति शासन और एक मध्यावधि चुनाव देखा था जिससे साफ है कि विपक्ष सत्ता के लिए तैयार नहीं था. कांग्रेस ऊंची जाति की राजनीति से समझौता नहीं करती, वो तभी ओबीसी और दलित सीएम बनाती जब उसके पास आंकड़े नहीं होते. 


उन्होंने आगे कहा कि कांग्रेस में ऊंची जाति का वर्चस्व ऐसा था कि अगर कोई ओबीसी या दलित नेता सीएम बनना चाहे तो यह तब तक संभव नहीं जब तक कि पार्टी के ऊंची जाति के सदस्यों से उन्हें भारी समर्थन नहीं मिल जाता. लेकिन जब भी कांग्रेस को संपूर्ण बहुमत मिला, उसने ऊंची जाति के सीएम को ही चुना. कांग्रेस के भीतर आए तूफान ने ही समाजवादी राजनीति को हवा दी जिससे कर्पूरी जैसे नेता उभरे जो गैर-कांग्रेस कैंप के बाहर के पहले भरोसेमंद नेता के रूप में देखे गए.