जन्मदिन विशेष: 19 साल का वह युवा, भगत सिंह भी जिन्हें अपना गुरु मानते थे...
भगत अपनी जेब में साढ़े 19 साल के इस युवक की तस्वीर रखा करते थे और उसकी तस्वीर के सामने माल्यार्पण कर अपनी किसी सभा या जलसे की शुरुआत करते थे.
देश के युवाओं के लिए भगत सिंह सबसे बड़े आदर्श हैं पर स्वयं भगत सिंह जिन्हें अपना आदर्श मानते थे, उनके बारे में बहुत कम लोग जानतें हैं. भगत का आदर्श कोई बुजुर्ग साधु-संन्यासी, कोई राजनेता या कोई आध्यात्मिक व्यक्तित्व नहीं था, बल्कि साढ़े 19 साल का एक युवक था. भगत अपनी जेब में साढ़े 19 साल के इस युवक की तस्वीर रखा करते थे और उसकी तस्वीर के सामने माल्यार्पण कर अपनी किसी सभा या जलसे की शुरुआत करते थे.
भगत का ये आदर्श पंजाब के लुधियाना के एक छोटे से गांव के धनाढ्य परिवार में जन्मा था. इस युवा के तीनों चाचा सरकारी सेवा में अच्छे पदों पर थे. जब वह अपनी उम्र के 11 वे साल में थे, तब बंगाल में बंग भंग आन्दोलन शुरू हो गया और वहीं से क्रांति और देशप्रेम का बीजारोपण उनके अंदर हुआ. हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उस बालक ने 1911 में अमेरिका का रुख किया. जहाज से जब अमेरिका की भूमि पर सैन फ्रांसिस्को तट पर कदम रखा तो वहां के अधिकारियों ने बेहद अपमानजनक तरीके से उनकी तलाशी ली और उनके साथ बुरा व्यवहार किया. ऐसा बर्ताव जहाज से आने वाले दूसरे लोगों के साथ नहीं किया जा रहा था तो वो वह उस अधिकारी से पूछ बैठे कि ऐसा व्यवहार केवल मेरे साथ ही क्यों? जबाब मिला, तुम गुलाम देश इंडिया से आए हो इसलिए.
इस घटना ने उनकी जिन्दगी और सोच की दिशा ही बदल दी. फिर उन लोगों की संगत खोजने लगे, जिनके अंदर भारत को आजाद कराने का जुनून था. मदाम भीकाजी कामा, तारकनाथ दास, सोहन सिंह भाखना, बाबा ज्वाला सिंह, बरकतुल्लाह, लाला हरदयाल और इन जैसे कुछ जुनूनियों ने मिलकर 1913 में गदर पार्टी की स्थापना की. उद्देश्य था अंग्रेजों से भारत को आजाद करवाना. संगठन ने कई भाषाओं में ग़दर नाम का एक अख़बार शुरू किया, जो क्रान्ति की लौ जलाती थी. भारत से गए इस बालक को उस अखबार के गुरुमुखी संस्करण को संपादित करने की अहम जिम्मेदारी दी गई. इतने बड़े उद्देश्य वाले अख़बार के इस गुरुमुखी संस्करण के सम्पादक की उम्र थी महज 17 साल. इस लड़के को जितनी अच्छी गुरुमुखी आती थी, उतनी ही महारत उसे आंग्ल भाषा पर भी थी. अमेरिका में संगठन ने तय किया कि साल 1857 की ही तर्ज़ पर भारत जाकर वहां की सैनिक छावनियों में विद्रोह कराया जाए.
इस अहम काम का जिम्मा उस युवक को भी सौंपा गया और वह कोलंबो के रास्ते भारत आ गया. यहां आकर उसने पूरे देश का दौरा किया. रासबिहारी बोस, शचींद्रनाथ सान्याल जैसे कई बड़े क्रांतिकारियों से मुलाकात की और योजना की परेखा तैयार की. सब कुछ तय था, पर ऐन मौके पर ही उनमें से एक क्रान्तिकारी के रिश्तेदार कृपाल सिंह ने गद्दारी कर दी और पूरी योजना निष्फल हो गई. ग़दर पार्टी के बड़े से बड़े नेताओं को देश छोड़ना पड़ा पर वो देश छोड़कर नहीं गए, बल्कि अपने दो साथियों हरनाम सिंह टुंडीलत और जगत सिंह के साथ जंग जारी रखने का निश्चय किया और लायलपुर में विद्रोह करवाने की नाकामयाब कोशिश करते हुए अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए. उनपर मुकदमा चला और 16 नवंबर, 1915 को उन्हें उनके 6 साथियों के साथ फांसी दे दी गई. जज ने उन्हें षड्यंत्र का सबसे खतरनाक अपराधी मानते हुए अपने फैसले में लिखा, “He is very proud of the crimes committed by him. He does not deserve mercy and should be sentenced to death”. जज ने अपनी टिप्पणी में ये भी लिखा था कि "इस युवक ने अमेरिका से लेकर हिन्दुस्तान तक अंग्रेज़ शासन को उलटने का प्रयास किया. इसे जब और जहां भी अवसर मिला, अंग्रेज़ों को हानि पहुंचाने का प्रयत्न किया. इसकी अवस्था बहुत कम है, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के लिए बड़ा भयानक है."
अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा देने वाले इस वीर का नाम था "करतार सिंह सराभा". जिस वक़्त उन्हें फांसी दी गई वो केवल साढ़े 19 साल के थे. उनसे जुड़े प्रसंगों को देखने के बाद हमारे लिए ये समझना मुश्किल नहीं रह जाता है कि आखिर क्यों भगत सिंह जैसे वीर हुतात्मा उन्हें अपना आदर्श मानते थे. जब उनकी फांसी की सजा का ऐलान हो गया तो एक दिन जेल में उनके दादाजी मिलने आए. दादाजी ने ही उनका लालन-पालन किया था. आकर बोले 'बेटा, हमारे सारे रिश्तेदार तुझे बेवकूफ बता रहे हैं. ऐसा करने की तुझे जरूरत क्या थी? आखिर क्या कमी थी तेरे पास?' करतार का जवाब था, ‘वो रिश्तेदार जो मुझे बेबकूफ बता रहे हैं, उनमें से कोई हैजा से मर जाएगा, कोई मलेरिया से तो कोई प्लेग से मर जाएगा, पर मुझे ये मौत देश की खातिर मिलेगी. इतने नसीब उन सबके कहां है दादाजी'. दादा अपने भाग्य पर गर्व करते हुए वापस लौट गए.
गांधी जी को गुलामी का एहसास तब हुआ था, जब दक्षिण अफ्रीका में "इंडियन" होने के चलते उन्हें जलील किया गया. यही एहसास सैन फ्रांसिस्को में करतार सिंह सराभा को भी हुआ था. गांधीजी ने खुद को कुर्बानी के रास्ते पर नहीं झोंका. राष्ट्र की सेवा करने के अवसर भी उन्हें कहीं ज्यादा मिले, जबकि करतार के पास देश की सेवा करने का वक़्त सीमित था, क्योंकि सुप्त भारत को जगाने के लिए उन्हें खुद को महाकाल के आगोश में सुलाना था. क्या नहीं था उस युवक में. साढ़े 19 साल की उम्र में प्रतिभा इतनी कि लाला हरदयाल, भाई परमानन्द, श्यामजी कृष्ण वर्मा० से लेकर रासबिहारी बोस तक उनसे मश्वरा करते थे. उसने 17 साल की उम्र में ग़दर जैसे बड़े अखबार के पंजाबी संस्करण का सम्पादन किया था. धनाढ्य परिवार से होने के बाबजूद क्रान्ति की कंटीली राह चुनी और भारत में अंग्रेजी राज को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया.
आज अगर भारत इस महान विप्लवी को उनके जन्मदिवस पर भी याद नहीं कर रहा है तो ये हमारी बदनसीबी है. करतार के बलिवेदी चढ़ने से पहले किसी ने उनसे उनका परिचय पूछा था, तुसी किस दे बन्दे ओ? उन्होंने अपना परिचय बताते हुए कहा था, असी हिन्द दा बंदा (मैं हिन्द का बंदा हूं). मगर अफ़सोस आज 'हिन्द' में कोई उस करतार का स्मरण करने वाला नहीं है. आज करतार सिंह सराभा का जन्म दिवस है, कम से कम आज तो उनका पुण्य-स्मरण कर हम अपने पापों का परिमार्जन कर लें.
लेख- अभिजीत
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)