कैलाश जायसवाल/बलौदाबाजारः जिले से लगा हुआ विश्वप्रसिद्व लक्ष्मणेश्वर मन्दिर जांजगीर चापा जिले के खरौद में स्थित है. यहां हर साल सावन माह में मेला लगता है. यह मंदिर अपनी अद्भुत विशेषताओं के लिए जाना जाता है. इस मंदिर में श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए एक लाख चावल सफेद रंग के कपड़े के थैले में भरकर चढ़ाते है. इसे लक्ष्य या लाख चावल भी कहते हैं.


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पाताल में समा जाता है जल
लक्ष्मणेश्वर मंदिर अपने आप में बेहद अद्भुत और आश्चर्यों से भरा है. कहते हैं कि इस शिवलिंग में एक लाख छिद्र है. इसलिए इसे लक्षलिंग या लखेश्वर कहा जाता है. धार्मिक मान्यता अनुसार इन एक लाख छेदों में से एक छेद ऐसा है जो पाताल से जुड़ा है. इसमें जितना भी जल डाला जाता है. वह सब पाताल में समा जाता है. जबकि एक छेद ऐसा भी है जो हमेशा जल से भरा रहता है, जिसे अक्षय कुण्ड कहा जाता है.


छत्तीसगढ़ की काशी के नाम से विख्यात है यह मंदिर
लक्षलिंग जमीन से करीब 30 फीट ऊपर है और इसे स्वयंभू शिवलिंग भी कहा जाता है. खरौद छत्तीसगढ़ के काशी के नाम से विख्यात है. इसे राम वन गमन परिपथ में स्थान दिया गया है. ऐसी मान्यता है कि रामायण कालीन शबरी उद्घार और लंका विजय के पहले लक्ष्मण ने यहां खर और दूषण के वध के बाद ब्रह्म हत्या के पाप से छुटकारा पाने महादेव की स्थापना की थी. जिसे लक्ष्मणेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है.


ब्रह्महत्या दोष का होता है निवारण
मान्यता अनुसार श्रीराम ने खर और दूषण का यहीं पर वध किया था. इसीलिए इस जगह का नाम खरौद है. कहा जाता हैं कि यहां पूजा करने से ब्रह्महत्या के दोष का भी निवारण हो जाता है. कहते हैं कि रावण का वध करने के बाद लक्ष्मणजी ने भगवान राम से ही इस मंदिर की स्थापना करवाई थी. यह भी कहते हैं कि लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के गर्भगृह में मौजूद शिवलिंग की स्थापना स्वयं लक्ष्मण ने की थी.


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आठवीं शताब्दी में हुआ मंदिर का निर्माण


पौराणिक कथा के अनुसार शिवजी को जल अर्पित करने के लिए लक्ष्मण जी पवित्र स्थानों से जल लेने गए थे. एक बार जब वे आ रहे थे तब उनका स्वास्थ्य खराब हो गया. कहते हैं कि शिवजी ने बीमार होने पर लक्ष्मण जी को सपने में दर्शन दिए और इस शिवलिंग की पूजा करने को कहा. पूजा करने से लक्ष्मणजी स्वस्थ हो गए. तभी से इसका नाम लक्ष्मणेश्वर है. मंदिर के प्राचीन शिलालेख अनुसार आठवीं शताब्दी के राजा खड्गदेव ने इस मंदिर के निर्माण में योगदान दिया था. यह भी उल्लेख है कि मंदिर का निर्माण पाण्डु वंश के संस्थापक इंद्रबल के पुत्र ईसानदेव ने करवाया था.


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