श्यामदत्त चतुर्वेदी/नई दिल्ली: भारत ही नहीं संपूर्ण संसार में पुरातन काल से जब से मानव का सामाजिक उदय का इतिहास मिलता है. जब से मनुष्य को सीखने सिखाने की आवश्यकता पड़ी है तब से ही गुरू-शिष्य  के सम्बन्ध का समाज में उच्चतम स्थान है.


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अगर भारत के सम्बन्ध में बात की जाए तो हमारी सनातनी परम्परा में गुरू को सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है जैसा कि कबीर जी ने लिखा है -
गुरु गोविंद दोउ खड़े , काके लागूं पाएं
बलिहारी गुरु आपनें , गोविंद दियो बताए
अर्थात गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर है.


कहा जाता है गुरु के बिना किसी लक्ष्य पर पहुंच पाना सम्भव नहीं है. गुरु ही आपको जीवन जीने का सलीका और जीवन में आने वाली कठिनाइयों से लड़ने के लिए तैयार करता है. भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो हमारे यहां गुरु शिष्य परम्परा के अनेकों उदाहरण सुनने मिलते हैं :- 


1. द्रोणाचार्य-एकलव्य- जिसमे गुरु की मूर्ति रख एकलव्य धनुर्धर बना और गुरु ने अपने मानक शिष्यों के लिए लिए उससे गुरुदक्षिणा के रूप में अंगूठा मांग लिया. 
2. परशुराम-कर्ण- जिसमे  कर्ण ने अपने गुरु को कीड़े से बचाने के लिए खुद ही उसका शिकार बनना स्वीकार किया.
3. शुक्रचार्य दैत्य गुरु- जिन्होंने अपने शिष्यो को कामयाब करने के लिए हर नाकाम कोशिश की.
4. चाणक्य और चंद्रगुप्त- इसी जोड़ी ने अखंड भारत को जन्म दिया.
ऐसे तमाम उदाहरण हमारे इतिहास में सुनने मिलते हैं.


गुरु-शिष्य का रिश्ता अर्पण और समर्पण का
उस समय गुरु-शिष्य का रिश्ता अर्पण और समर्पण का होता था , जो गुरु शिष्य के रिश्तों को मजबूत करता था, और इस मजबूती से सामाजिक मौलिकता और नैतिकता को बल मिलता था. शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण होता था वहीं गुरु का स्नेह शिष्य के प्रति निश्वार्थ होता था. शायद इन्हीं वजहों से कुछ कहानियां ऐतिहासिक हो गयी.


वर्तमान परिदृश्य में बदलते गुरु के मायने
परन्तु आज ऐसा नहीं है. आज शिक्षा के लिए अनेकों साधन सामने हैं. शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से बदलाव आए हैं. आज गुरु , गुरु नहीं अपितु एजेंसी बन गया है. जो आपको किताबों और तकनीक की शिक्षा देता है और शिष्य ग्राहक बन गया है, जो अपने दिए मूल्य के अनुसार सब कुछ पा लेना चाहता है. अपने सवालों पर सन्तुष्टि न मिलने पर वह शिक्षक का अपमान करने से पीछे नहीं हटता.


पारम्परिक शिक्षा की मांग पर जोर
हमारे भारत वर्ष में आधुनिकता के इस दौर में भी पारम्परिक शिक्षा की मांग को जोर दिया जाता है पर आए दिन गुरु- शिष्य के रिश्तों को शर्मसार करने की घटनाएं सामने आती रहती है. आरुणि की कहानी शायद ही किसी ने ना सुनी हो, जिसने अपने गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए खुद की चिंता किये बगैर खेत का पानी रोकने के लिए रात भर खेत की मेढ़ पर पड़ा रहा. आज लोग गुरु शिष्य परम्परा तो चाहते हैं पर आज्ञा और अर्पण का सम्बन्ध नहीं चाहते.


शिक्षा के बाजारीकरण ने बदले मायने
आज आधुनिक समय में शिक्षा का बाजारीकरण हो गया है जबकि पुरातन काल में शिक्षा व्यापार नहीं था. किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके शिक्षा पर निर्भर करता है , आज शिक्षा आदर्शों की नही बल्कि उपकरण और जीविका की हो गयी है. इस लिए आज हमें आवश्यकता है कि गुरु और शिक्षक में अंतर करें क्योंकि गुरु एक आध्यात्मिक विषय है. जबकि शिक्षक आधुनिक विषय है. जहां हम गुरु दक्षिणा नहीं फीस देते हैं. कई बार तमाम मुश्किलों से उस फीस का इंतजाम करना पड़ता है.


क्या होता है शिक्षक?
शिक्षक वो होता है, जो शिक्षा प्रदान करें. किताबों से रूबरू कराए जीवन को चलाने के लिए आय के स्त्रोत के अनुरूप हमें शिक्षा दें. वहीं गुरु का स्थान जीवन में सर्वोपरि है, वो किसी रूप भी जाति, धर्म, उम्र , लिंग के रूप में हमारे जीवन में हो सकता है. कई बार गुरु हमारे निजी सम्बन्धी एवं मित्र अथवा कोई प्राकृतिक जीव या ग्रन्थ हो सकता है जिससे हमारे जीवन को दिशा मिलती हो.


गुरु और अच्छे शिक्षक दोनों का स्थान सर्वोच्च
गुरु और अच्छे शिक्षक दोनों का स्थान हमारे जीवन में सर्वोच्च होता है , समय के साथ-साथ थोड़ा गुण धर्मों में तो थोड़ा परिभाषाओं में परिवर्तन होता आया है.कामन्दकीय नीतिसार पर शिक्षा को आधार मान कर आदर्श शिक्षक तथा शिष्यों के गुण धर्मों तथा आचरण को बताया गया है. जिससे शिक्षा के मूल उद्देश्य को जान उसके प्राप्ति के लिए बढ़ा जा सकता है.


खोई प्रतिष्ठा को पाने का प्रयास करें
मानव के भविष्य में जब का सीखने सिखाने की आवश्यकता रहेगी तब तक समाज में शिक्षक की आवश्यकता रहेगी. अतः हमें आवश्यकता है कि आत्मीय सम्मान को शीर्ष के रख शिक्षा के मूल उद्देश्यों को जान शिक्षक के साथ अपनी खोई प्रतिष्ठा को पाने का प्रयास करें.


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