नई द‍िल्‍ली: देश इस 15 अगस्‍त को अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. इसको यादगार बनाने के ल‍िए पूरे देश में आजादी का अमृत महोत्‍सव मनाया जा रहा है ज‍िसमें भारत के उन वीरों को याद क‍िया जा रहा है ज‍िन्‍होंने समाज व देश के ल‍िए अपनी आवाज को बुलंद क‍िया. इसी कड़ी में हम आपका बता रहे हैं मध्‍य प्रदेश से जुड़ी हुईं उन 5 मह‍िलाओं के बारे में ज‍िनके साहस और वीरता को इत‍िहास आज भी नमन करता है. 


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रानी लक्ष्मीबाई
रानी लक्ष्‍मीबाई का संबंध वैसे तो यूपी के झांसी से है लेक‍िन ग्‍वाल‍ियर कभी उनके अध‍िकार में रहा था और वहीं उनको वीरगत‍ि म‍िली थी. रानी लक्ष्मी बाई को 1857-58 के भारतीय विद्रोह के दौरान उनकी वीरता के लिए याद किया जाता है. झांसी के किले की घेराबंदी के दौरान, लक्ष्मी बाई ने हमलावर ताकतों का कड़ा प्रतिरोध किया और अपनी सेना के भारी पड़ने के बाद भी आत्मसमर्पण नहीं किया. बाद में ग्वालियर पर सफलतापूर्वक हमला करने के बाद युद्ध में वे शहीद हो गई थीं.


अवंत‍ीबाई लोधी  
अवंतीबाई लोधी को रानी अवंती बाई लोधी के नाम से जाना जाता है. वे एक भारतीय रानी-शासक और स्वतंत्रता सेनानी थीं. अंवतीबाई मध्य प्रदेश में रामगढ़ (वर्तमान डिंडोरी) की रानी थींं. उनका विवाह रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह के पुत्र राजकुमार विक्रमादित्य सिंह लोधी से हुआ था. 1851 में राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई जिसके बाद राजा विक्रमादित्य रामगढ़ के राजा बने और एक रानी के रूप में अवंतीबाई ने राज्य के मामलों का कुशलतापूर्वक प्रशासन किया. रानी ने राज्य के किसानों को अंग्रेजों के निर्देशों का पालन न करने का आदेश दिया, जिसके बाद रानी की राज्य में लोकप्रियता बढ़ गई थी. जब 1857 का विद्रोह छिड़ा तो रानी ने कड़ा व‍िरोध क‍िया. अवंतीबाई ने ब्रिटिश सेना को रोकने के लिए छापामार युद्ध का सहारा लिया. उसने गार्ड तलवार से तलवार ली और उसे अपने आप में घोप लिया और इस तरह 20 मार्च 1858 को युद्ध में लगभग निश्चित हार का सामना करते हुए आत्महत्या कर ली थी. 


झलकारी बाई
झलकारीबाई एक महिला सैनिक थी जिन्होंने 1857 के भारतीय विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना में सेवा की. वह अंततः झांसी की रानी, रानी की एक प्रमुख सलाहकार के पद तक पहुंची. झांसी की घेराबंदी की ऊंचाई पर, उसने खुद को रानी के रूप में खुद को सबके सामने किया और अपनी ओर से, मोर्चे पर लड़ी, जिससे रानी को किले से सुरक्षित रूप से बाहर निकलने की अनुमति मिली.  1857 के विद्रोह के दौरान, जनरल ह्यूग रोज ने एक बड़ी सेना के साथ झांसी पर हमला किया था. रानी ने अपने 14,000 सैनिकों के साथ सेना का सामना किया. वह कालपी में डेरा डाले पेशवा नाना साहिब की सेना से राहत की प्रतीक्षा कर रही थी, जो नहीं आई क्योंकि तात्‍या टोपे पहले ही जनरल रोज से हार चुके थे. इस बीच, किले के एक द्वार के प्रभारी दुल्हा जू ने हमलावरों के साथ एक समझौता किया और ब्रिटिश सेना के लिए झांसी के दरवाजे खोल दिए. जब अंग्रेजों ने किले पर चढ़ाई की, तो लक्ष्मीबाई, अपने दरबारी की सलाह पर, अपने बेटे और दास‍ियों के साथ कालपी के लिए भंडारी गेट से न‍िकल गईं. लक्ष्मीबाई के क‍िले से न‍िकलने की खबर सुनकर झलकारीबाई वेश में जनरल रोज़ के शिविर के लिए निकलीं और खुद को रानी घोषित कर दिया. इससे एक भ्रम पैदा हुआ जो पूरे दिन जारी रहा और रानी की सेना को नए सिरे से फायदा हुआ. इसके अलावा, वह लक्ष्मीबाई के साथ युद्ध के विश्लेषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी की एक करीबी विश्वासपात्र और सलाहकार थीं. 


अह‍िल्‍या बाई होल्‍कर 


एक साहसी नेतृत्व के साथ ही रानी अहिल्याबाई में बहुत ही कुशल राजनीति क्षमता भी थी. उन्होंने मराठा साम्राज्य पर अंग्रेजों के खतरे को बहुत पहले ही भांप लिया था और 1772 को पेशवा को लिखे एक पत्र में उन्होंने पेशवा को अंग्रेजों से सावधान रहना को कहा. उन्होंने लिखा कि शेर को साहस और आक्रमकता से मारा जाता है लेकिन चतुर रीछ को मारना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि एक बार उसके कब्जे में आने पर उसे मारना बहुत मुश्किल होता है. ऐसा ही कुछ हाल अंग्रेजों का भी है. अह‍िल्याबाई की जीवन बहुत समय तक सुखी नहीं रहा. कम उम्र में ही उनके पति खांडेराव होल्कर युद्ध में मारे गए. उसके कुछ सालों में  ही उनके ससुर का भी देहांत हो गया और फिर उसके अगले ही साल उनके बेटे मालेराव भी चल बसे. इन हालात में अहिल्याबाई ने पेशवा से निवेदन किया कि वे खुद मालवा की बागडोर अपने हाथ में लेना चाहती हैं जिसे स्वीकार कर लिया गया. अपने 30 साल का शासन में इंदौर में गांव से लेकर शहर सभी ने समृद्धि देखी. रानी ने बहुत सारे किले और सड़कें बनवाईं. वे कई त्योहारों का आयोजन करवाती थीं और उन्हें बहुत से मंदिरों को दान भी दिए थे. यहां तक कि उनके राज्य के बाहर भी उन्होंने मंदिर, घाट, कुएं, सराय आदि बनवाए थे. इसमें  काशी, गयात ,सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, कांची आदि कई मंदिरों का सौंदर्यीकरण भी किया.


रानी दुर्गावती 
दुर्गावती बचपन से ही वीरांगना थीं. बचपन में ही उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी जैसे युद्धकलाओं में निपुणता हासिल कर ली थी. अकबरनामा के अनुसार, वह तीर और बंदूक दोनों से निशाना लगाने में माहिर थीं. वर्ष 1542 में जब वह 18 साल की थीं, तब उनका​ विवाह गोंड राजवंश के राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े बेटे दलपत शाह के साथ कराया गया. तब गोंड वंशज 4 राज्यों पर राज करते थे- गढ़-मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला. दलपत शाह का आधिपत्य गढ़-मंडला पर था. 1545 में रानी दुर्गावती ने बेटे वीर नारायण को जन्म दिया और 1550 में पति दलपत शाह का निधन हो गया. इसके बाद अपवने बेटे को सिंहासन पर बिठा कर दुर्गावती ने गोंडवाना की बागडोर अपने हाथ में ले ली. अपने राज दरबार में उन्होंने मुस्लिम लोगों को भी जगह दी थी. 1556 में मालवा के सुल्तान बाज बहादुर ने हमला बोला तो दुर्गावती ने उसे धूल चटा दी. 1562 में अकबर ने मालवा को मुगल साम्राज्य में मिला लिया. 1564 में आसफ खान ने गोंडवाना पर हमला बोल दिया. छोटी सेना रहते हुए भी दुर्गावती ने मोर्चा संभाला. रणनीति के तहत दुश्मनों पर हमला किया और पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.अपने बेटे के साथ उन्होंने 3 बार मुगल सेना का सामना किया. युद्ध में उन्हें भी तीर लगे थे. जब उन्हें आभास हो गया कि उनका जीतना संभव नहीं तब उन्होंने अपने मंत्री से उनकी जान लेने को कहा. मंत्री ऐसा नहीं कर पाए तो उन्होंने खुद ही अपने सीने में अपनी कटार उतार ली. 24 जून 1564 को उन्होंने अंतिम सांस ली. उनके बेटे ने युद्ध लड़ना जारी रखा और वे भी वीरगति को प्राप्त हो गए.


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