1857 की क्रांति के नायक थे राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह, घुटने टेकने को मजबूर हो गए थे अंग्रेज
independence day 15 august: देश को आजाद कराने में 1857 की क्रांति का भी बड़ा योगदान था. राजा शंकर शाह और राजकुमार रघुनाथ सिंह दो ऐसे योद्धा थे. जिन्होंने पूरे महाकौशल में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगुल फूंक दिया था. जानिए राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह की कहानी.
जबलपुर। 15 अगस्त 15 august को देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. भले ही आजादी 1947 में मिली लेकिन 1857 की क्रांति में देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने का बिगुल बजा दिया गया था. इस आंदोलन में देश के कई राजा-राजकुमारों ने भी अपना योगदान दिया था. जिनके सामने अंग्रेज घुटने टेकने लिए मजबूर हो गए थे. जिन्होंने न केवल अपना बलिदान दिया बल्कि अपने बलिदान से स्वतंत्रता की ऐसी चिंगारी को जन्म दिया जो बाद में अंग्रेजों के लिए आग बन गई. आजादी की बात हो और महाकौशल Mahakoshal के वीर राजा शंकर Shankar Shah शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह Raghunath Shah ने की बात न हो तो यह कहानी अधूरी ही रहती है. क्योंकि ये ऐसे योद्धा थे जिन्होंने हंसते-हंसते देश की आजादी के लिए मौत को गले लगा लिया था. आज हम आपको इन्ही वीरों के बारे में बताएंगे.
गोंड राज्य के राजा थे शंकर शाह
वर्तमान मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में फैला गोंड राज्य उस वक्त एक समृद्धशाली राज्य था. राजा शंकर शाह के पिता का नाम राजा सुमेर शाह था, 1789 में शंकर शाह का जन्म हुआ था. उस समय राजा सुमेर सिंह मराठों के बंदी होकर सागर के किले में कैद थे, रानी बेटे शंकर शाह के साथ राजधानी गढ़ा पुरवा में आकर रहने लगी थीं. शंकर शाह जंगल में बांस छीलकर नुकीले बाण तैयार करने लगेय उन्हें देख आसपास के गोंड बालक भी जुड़ गए. धनुषबाण से वे निशानेबाजी का अभ्यास करने लगे. थोड़े ही दिनों में उनकी एक मित्र मंडली तैयार हो गई, जिसे गोंटिया दल का नाम मिला. इस दौरान सन 1800 में मराठों ने सुमेर सिंह को कैद से मुक्त कर दिया और वह अपने परिवार के साथ पुरवा में आकर रहने लगे. जहां मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने शंकर शाह को युवराज बना दिया. शंकर शाह गुरिल्ला युद्ध के जरिए मराठा सैनिकों पर हमले करने लगे.
पिता के वीरगति को प्राप्त होने के बाद शंकर शाह राजा बने, हालांकि राज्य के नाम पर कुछ नहीं था. वह अपने गोंटिया दल के माध्यम से छापामार युद्ध जारी रखे हुए थे. 20 की उम्र में उनकी शादी युद्धकला में निपुण फूलकुंवरि से हुई. जहां दो साल बाद कुंवर रघुनाथ शाह का जन्म हुआ.
ऐसे भड़की थी महाकौशल में आजादी की चिंगारी
1857 में जबलपुर में तैनात अंग्रेजों की 52वीं रेजीमेंट का कमांडर क्लार्क बहुत ही क्रूर था. वह इलाके के छोटे राजाओं, जमीदारों को परेशान किया करता था और मनमाना कर वसूलता था. इस पर तत्कालीन गोंडवाना राज्य, जो कि मौजूदा जबलपुर और मंडला का इलाका था, वहां के राजा शंकर शाह और उनके बेटे कुंवर रघुनाथ शाह ने अंग्रेज कमांडर क्लार्क के सामने झुकने से इंकार कर दिया. दोनों ने आसपास के राजाओं को अंग्रेजों के खिलाफ इकट्ठा करना शुरू किया. बताया जाता है कि दोनों बाप बेटे अच्छे कवि थे और वह अपनी कविताओं के जरिए राज्य में लोगों को क्रांति के लिए प्रेरित करते थे.
शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह अपनी सेना के साथ अंग्रेजों का विरोध करना शुरु कर दिया, लेकिन दोनों के पास इतनी सेना नहीं थी की वे अंग्रेजों से लड़ सकते. इसलिए शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए सामाजिक आंदोलन चलाया और लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा करने के लिए मुहिम शुरू की. इस बात की भनक जब अंग्रेजों को लगी, तो अंग्रेज डर गए, उन दिनों गोंड राजाओं का साम्राज्य जबलपुर से शुरू होकर पूरे महाकौशल तक फैला था. यदि ये सभी लोग विरोध करते तो अंग्रेजों के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती थी.
अंग्रेजों ने रचा षड्यंत्र
पिता पुत्र से डरे अंग्रेजों ने उनकी आवाज दबाने के लिए शंकर शाह और रघुनाथ शाह को मारने का षड्यंत्र रचा और इनके पाले हुए एक स्थानीय राजा ने अंग्रेजों को शंकर शाह और रघुनाथ शाह के बारे में जानकारी दे दी. अंग्रेजों ने चालाकी से इन गोंड राजाओं को गिरफ्तार कर लिया और भरे बाजार जबलपुर कमिश्नरी के सामने 18 सितंबर 1857 को पिता और पुत्र को तोप के आगे बांधकर उड़ा दिया. शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने अपनी शहादत दे दी, लेकिन अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके. शंकर शाह और रघुनाथ शाह की याद में दोनों की प्रतिमा की स्थापान की गई, लेकिन इन अमर बलिदानियों को इतिहास में वो जगह नहीं मिल पाई, जो स्वतंत्रता संग्राम के दूसरे सेनानियों को मिली.
18 सितंबर को मनाया जाता है बलिदान दिवस
राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने अंग्रेजों की दर्दनाक मौत को हंसते-हंसते स्वीकार कर लिया था, लेकिन अंग्रेजों के सामने झुकना पसंद नहीं किया. 1857 में हुई इस घटना के बाद पूरे गोंडवाना साम्राज्य में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू हो गई. शंकर और रघुनाथ शाह के बलिदान ने लोगों के मन में अंग्रेजों के खिलाफ एक ऐसी चिंगारी को जन्म दे दिया, जो बाद में शोला बन गई. उसके बाद से हर साल 18 सितंबर को इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है.