नीलम पड़वार/कोरबा: छत्तीसगढ़ के पारंपरिक पर्वों में से एक पर्व कमरछठ व्रत, जो भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष के षष्ठी तिथि के दिन मनाया जाता है. आज भाद्रपद माह की षष्ठी तिथि है और यह त्यौहार देश भर में मनाया जा रहा है. आज के दिन माताएं अपनी संतान की लंबी उम्र एवं सुख-समृद्धि के लिए हलषष्ठी माता की पूजा-अर्चना करती है. मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने से संतान को सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है. इसे कमरछठ के नाम से भी जानते हैं. 


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माता देवकी ने बलराम के लिए रखी थी ये व्रत
मान्यता है कि माता देवकी के छह पुत्रों को जब कंस ने मार दिया तब पुत्र की रक्षा की कामना के लिए माता देवकी ने भादो कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को षष्ठी देवी की आराधना करते हुए व्रत रखा था. जिसके फलस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था. इसी मान्यता के चलते महिलाएं अपने पुत्र की खुशहाली के लिए छठ का व्रत रखती हैं.


हल षष्ठी पूजा की विधि
हल षष्ठी व्रत में महुआ की दातुन और महुआ खाने का विधान है. हल षष्ठी के दिन माताएं सुबह स्नान करके व्रत का संकल्प लेती हैं. महिलाएं घर में या सामूहिक स्थान पर एक जगह एकत्रित होती हैं. वहां पर आंगन में दो गड्ढा खोदा जाता है, जिसे सगरी कहा जाता है. महिलाएं अपने-अपने घरों से मिटटी के खिलौने, बैल, शिवलिंग, गौरी- गणेश इत्यादि बनाकर लाते हैं, जिन्हें उस सगरी के किनारे पूजा के लिए रखा जाता है. उस सगरी में बेल पत्र, भैंस का दूध, दही, घी, फूल, कांसी के फूल, श्रृंगार का सामान, लाई और महुए का फूल चढ़ाया जाता है. महिलाएं एक साथ बैठकर हलषष्ठी माई के व्रत की कथाएं सुनती हैं. उसके बाद शिव जी की आरती व हलषष्ठी देवी की आरती के साथ पूजन समाप्त होता है. इस क्रम में बिना जुते हुए अनाज या खाद्य पदार्थ अर्पित करती हैं.


भैंस का दूध और बिना जूते पैदा हुवे अन्न को किया जाता है ग्रहण
हल षष्ठी गाय के दूध व दही का सेवन नहीं किया जाता. हल षष्ठी व्रत में विशेष रूप से भैंस के दूध और उससे बनी चीजों का ही इस्तेमाल किया जाता है. माता की पूजा-अर्चना में पसहर चावल और छह प्रकार की भाजियों का जो बिना जुते हुवे हो का भोग लगाया जाता है. पसहर चावल को खेतों में उगाया नहीं जाता. यह चावल बिना हल जोते अपने आप खेतों की मेड़, तालाब, पोखर या अन्य जगहों पर उगता है. भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ के जन्मोत्सव वाले दिन हलषष्ठी मनाए जाने के कारण बलदाऊ के शस्त्र हल को महत्व देने के लिए बिना हल चलाए उगने वाले पसहर चावल का पूजा में इस्तेमाल किया जाता है. पूजा के दौरान महिलाएं पसहर चावल को पकाकर भोग लगाती हैं, साथ ही इसी चावल का सेवन कर व्रत तोड़ती हैं.


पूजा के बाद महिलाएं मारती है पोती
हलषष्ठी पूजा के बाद माताएं नए कपड़े का टुकड़ा सगरी के जल में डुबाकर घर ले जाती हैं और अपने बच्चों के कमर पर/पीठ पर छ: बार स्‍पर्श कराती हैं, इसे पोती मारना कहते हैं. मान्यता है कि पोती मारने से बच्चों को दीर्घायु प्राप्त होती है और उनका वर्चस्व बढ़ता है. पूजा के बाद बचे हुए लाई, महुए और नारियल को महिलाएं प्रसाद के रूप में एक दूसरे को बांटती हैं और अपने-अपने घर लेकर जाती हैं.


सूर्यास्त से पहले कर लेना चाहिए फलाहार
हलषष्ठी के दिन घर पहुंचकर, महिलाएं फलाहार की तैयारी करती हैं. फलाहार के लिए पसहर का चावल भगोने में बनाया जाता है, इस दिन कलछी का उपयोग खाना बनाने के लिए नहीं किया जाता, खम्हार की लकड़ी को चम्मच के रूप में प्रयोग में लाया जाता है. छह प्रकार की भाजियों को काला मिर्च और पानी में पकाया जाता है, भैंस के घी का प्रयोग छौंकने के लिए किया जा सकता है पर आम तौर पर नहीं किया जाता. इस भोजन को पहले छह प्रकार के जानवरों के लिए जैसे कुत्ते, पक्षी, बिल्ली, गाय, भैंस और चींटियों के लिए दही के साथ पत्तों में परोसा जाता है. फिर व्रत करने वाली महिला फलाहार करती हैं. नियम के अनुसार सूर्यास्त से पहले फलाहार कर लेना चाहिए.


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