Digvijay Singh Birthday 2024: मध्य प्रदेश के ग्वालियर चंबल क्षेत्र में एक जिला है गुना. गुना में ही एक राघौगढ़ शाही रियासत थी. इस रियासत की खास बात यह है कि इसका सियासत से कई सालों से खास रिश्ता रहा है. इसी रियासत से एक ऐसा नेता निकला जो न सिर्फ मध्य प्रदेश बल्कि देश के ताकतवर नेताओं में गिना जाता है. वो, विधायक, सांसद,  मुख्यमंत्री और कई पदों पर रहे. यहां तक कि उन्हें कांग्रेस नेता राहुल गांधी का राजनीतिक गुरू भी कहा जाता है. आप समझ ही गए होंगे कि हम किसके बारे में बात कर रहे हैं. जी हां, हम बात कर रहे हैं दिग्विजय सिंह यानी दिग्गी राजा की. 28 फरवरी यानी आज दिग्विजय सिंह का जन्मदिन है तो आइए इस खास दिन पर जानते हैं उनके सियासी करियर के बारे में...


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दिग्विजय सिंह का राजनीतिक सफर
दिग्विजय सिंह का जन्म 28 फरवरी 1947 को बलभद्र सिंह के यहां पर हुआ था. उनके पिता, बलभद्र सिंह, राघौगढ़ के राजा थे. बलभद्र सिंह राघौगढ़ से विधायक भी रहे थे. वह हिंदू महासभा द्वारा समर्थित एक निर्दलीय विधायक बने थे. वहीं, दिग्विजय सिंह का राजनीतिक सफर पांच दशक से चल रहा है. दिग्विजय सिंह की राजनीतिक पारी 1969-70 में शुरू हुई. जब 22 साल की उम्र में दिग्विजय ने राघौगढ़ नगर परिषद के अध्यक्ष का पद संभाला. बता दें कि उन्हें जनसंघ में शामिल होने का निमंत्रण भी मिला था . खास बात यह थी कि राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने उन्हें जनसंघ में शामिल होने के लिए कहा था. जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया. बल्कि, दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस की विचारधारा को चुना. इसका कारण यह था कि उनके पिता की मित्रता कांग्रेस के दिग्गज नेता गोविंद नारायण से थी. दूसरा कारण यह भी बताया जाता है कि राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने दिग्विजय को जनसंघ में शामिल होने का न्योता दिया था. इसलिए वह जनसंघ में शामिल नहीं हुए.


यहां ऐसे में आपके लिए कुछ ऐतिहासिक जानकारी जानना जरूरी है. दरअसल, राघौगढ़ रियासत ग्वालियर राज्य के अधीन थी. राघौगढ़, ग्वालियर राज्य की जागीर थी. राघौगढ़ के शासकों अर्थात दिग्विजय सिंह के पूर्वजों को ग्वालियर के लिए टैक्स एकत्र करने का कार्य सौंपा गया था. उस परम्परा के अनुसार जागीरदार अपने महाराज को अन्नदाता कह कर सम्बोधित करते थे. मतलब, इतिहास के पन्नों में सिंधिया, दिग्विजय के अन्नदाता थे. इसलिए दिग्विजय सिंह अपनी अलग पहचान बनाना चाहते थे. वह सिर्फ अपने अन्नदाता के दरबार में जाकर उनके वफादार नहीं बनना चाहते थे. वे अपनी अलग पहचान बनाए रखना चाहते थे. इसी के चलते वह कांग्रेस में शामिल हुए. जिसके बाद, 1977 में, उन्होंने राघौगढ़ से कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर अपना पहला विधायक का चुनाव लड़ा और जीता. 


राघौगढ़ बन गया दिग्गी के परिवार का अभेद किला
1977 यानी 47 साल, राघौगढ़ मध्य प्रदेश की एक ऐसी विधानसभा सीट है. जहां करीब 50 साल से एक ही खानदान जीतता आ रहा है. दरअसल, राघौगढ़ विधानसभा सीट पर दिग्विजय सिंह का परिवार 1977 से जीतता आ रहा है. जैसा कि हमने आपको बताया कि दिग्विजय पहली बार 1977 में राघौगढ़ से विधायक बने थे. उसके बाद उन्होंने चार बार यहां से जीत हासिल की. उनके भाई लक्ष्मण सिंह और चचेरे भाई मूल सिंह भी इस सीट से दो बार विधायक बन चुके हैं. फिर 2013 में जब दिग्विजय के बेटे जयवर्धन राजनीति में आए तो चाचा मूल सिंह ने भतीजे के लिए सीट छोड़ दी. अब जयवर्धन 2013 से इस विधानसभा सीट से विधायक हैं. वह कमल नाथ सरकार में मंत्री भी थे. साथ ही जयवर्धन की गिनती प्रदेश के भविष्य के नेताओं में होती है. हाल ही में संपन्न एमपी चुनाव में जब कई दिग्गज चुनाव हार गए तो जयवर्धन ने अपनी सीट बचाई और तीसरी बार यहां जीत हासिल की.


दिग्विजय सिंह का राजनीतिक करियर
दिग्विजय सिंह का राजनीतिक करियर बहुआयामी रहा है. वह दिसंबर 1993 से दिसंबर 2003 तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रहे. वो देश के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा में भी पहुंचे. वह 1984 से 1989 तक और फिर 1991 से 1994 तक राजगढ़ सीट से सांसद रहे. इसके अलावा, दिग्विजय सिंह 1977 से 1984 और 1994 से 2008 तक विधायक भी रहे. उन्होंने राघौगढ़ और चचौरा विधानसभा सीटों से चुनाव जीता. अप्रैल 2014 से वह एमपी से राज्यसभा सांसद हैं. वर्तमान में वह राज्यसभा में कांग्रेस की एक मजबूत आवाज़ बने हुए हैं.


सांसद, राज्य सभा 2014-वर्तमान मध्यप्रदेश
14वें मुख्यमंत्री 1993 - 2003 मध्यप्रदेश
सांसद, लोकसभा 1984-1989 राजगढ़ लोकसभा सीट
सांसद, लोकसभा 1991-1994 राजगढ़;लोकसभा सीट
विधायक 1998-2008 राघौगढ़ विधानसभा सीट
विधायक 1994-1998 चाचौड़ा विधानसभा सीट
विधायक 1977-1984 राघौगढ़ विधानसभा सीट

कैसे मिला 'दिग्गी राजा' नाम 
1984 में दिल्ली में एक डिनर पार्टी चल रही थी, जिसमें कांग्रेस के बड़े नेता और पत्रकार शामिल थे. इसी पार्टी में तत्कालीन लोकसभा सांसद दिग्विजय सिंह भी पहुंचे थे. एक अखबार के संपादक आरके करंजिया से बातचीत के दौरान वह दिग्विजय के नाम का गलत उच्चारण कर रहे थे. बता दें कि गलत उच्चारण के कारण आरके करंजिया ने उन्हें "दिग्गी राजा" कहकर संबोधित किया क्योंकि यह नाम छोटा और आसान था. तभी से दिग्विजय सिंह का नाम दिग्गी राजा पड़ गया.


कैसे दिग्विजय सिंह बने एमपी के सीएम?
दिसंबर 1993 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 320 में से 174 सीटें जीतीं. खास बात ये थी कि बाबरी विध्वंस के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस जीती और बीजेपी हारी. अब ज़ाहिर सी बात है कि कांग्रेस की हुकूमत बननी थी तो किसी न किसी को सीएम बनाना था. आपको बता दें कि वो एक ऐसा दौर था जब मध्य प्रदेश कांग्रेस में दिग्गजों की भरमार थी. उस समय प्रदेश कांग्रेस में अर्जुन सिंह, श्यामाचरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया, सुभाष यादव, कमल नाथ, विद्याचरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा जैसे कद्दावर नेता थे. शुरुआत में मुख्यमंत्री पद के लिए माधवराव सिंधिया और सुभाष यादव का नाम सबसे आगे था. ये कहा जाता है कि सिंधिया को अपने नाम को लेकर इतना यकीन था कि उन्होंने दिल्ली एयरपोर्ट पर प्लेन भी रिजर्व करा लिया था. मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के लिए उन्होंने भोपाल के लिए प्लेन रिजर्व करवाया था. 


हालांकि, पूर्व सीएम अर्जुन सिंह ने असली खेला किया. दरअसल, अर्जुन सिंह चाहते थे कि दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बनें. दिग्विजय सिंह की ताजपोशी इसलिए की जा रही थी क्योंकि उनके राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह चाहते थे कि MP में उनका आदमी बैठे. इसी के चलते दूर-दूर तक सीएम पद की रेस में न रहने वाले दिग्गी एक दम से पिक्चर में आ गए. कमलनाथ चुनाव परिणामों के बाद भोपाल में मौजूद थे. विधायक दल की बैठक में अगले नेता का चयन होने वाला था. दिल्ली ने नेता चयन के लिए जनार्दन रेड्डी, विलासराव मुत्तेमवार और आरके धवन को पर्यवेक्षक के रूप में भेजा था. सीएम चुनाव के लिए विधायक दल की बैठक में वोटिंग हुई. जहां पूर्व सीएम श्यामा चरण शुक्ल को 56 वोट और दिग्विजय सिंह को 103 वोट मिले. 


फिर कमलनाथ ने दिल्ली में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को फोन किया. आपको बता दें कि उस समय नरसिम्हा राव कांग्रेस अध्यक्ष भी थे. जिसके बाद राव ने सिर्फ 'दिग्विजय सिंह' कहा. इसके बाद अगले 10 साल तक दिग्विजय सिंह एमपी के मुख्यमंत्री रहे.


ये घटना बनी दिग्विजय सरकार के लिए कलंक
2 जनवरी 1998 को कुछ ऐसा हुआ जो इतिहास के पन्नों में दिग्विजय सरकार के लिए कलंक बन गया. मध्य प्रदेश के मुलताई में एक तहसील कार्यालय के बाहर किसान एकत्र हुए थे. किसानों की फसलें बर्बाद हो गईं. भीड़ नियंत्रण के लिए जिम्मेदार प्रशासन ने जल्द ही खुद को उसी भीड़ से घिरा हुआ पाया. जिसे उसे संभालना था और फिर कुछ ऐसा हुआ कि जिससे सभी की रूह कांप गई और पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चला दीं. जिसके चलते 20 से ज्यादा लोगों की जान चली गई. आपको बता दें कि इस घटना को बैतूल या मुलताई गोलीकांड के नाम से जाना जाता है.


दिग्विजय सिंह का दूसरा कार्यकाल
1998 तक सोनिया गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुकी थीं. नवंबर 1998 में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए. सोनिया गांधी द्वारा फ्री हैंड देने के बाद दिग्विजय सिंह ने निवर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए. वहीं, चुनाव में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया. कांग्रेस ने 320 में से 172 सीटें जीतीं, जो 1993 की तुलना में केवल 2 कम थीं. इस जीत के चलते लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस ने किसी उत्तर भारतीय राज्य में सत्ता बरकरार रखी थी.


 


मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में दिग्विजय सिंह ने कई गलतियां कीं. उनके कार्यकाल में ही संविदा पर कर्मचारी नियुक्त किये जाने लगे. जिसके कारण सरकारी कर्मचारियों में उनकी सरकार के प्रति असंतोष के बीज बुए. साथ ही पूरे राज्य में सड़कों की हालत बेहद खराब थी. बिजली की कमी के चलते प्रदेश अंधेरे में डूबा रहता था. हालांकि, दिग्विजय सिंह को लगता था चुनाव विकास कार्यों से नहीं बल्कि समीकरणों से जीते जाते हैं. इसलिए उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया. जिसे बीजेपी ने मुद्दा बनाया. जिसके चलते 2003 के चुनाव में कांग्रेस की हार हुई.