मोहित सिन्हा/नई दिल्लीः बीते बुधवार को देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में राजद्रोह कानून पर रोक लगा दी है. चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह आदेश दिया है. कोर्ट ने इस कानून की समीक्षा होने तक आईपीसी की धारा 124-ए (राजद्रोह कानून) के तहत कोई भी नया केस दर्ज करने पर पाबंदी लगा दी है. बता दें कि एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, मेजर जनरल (रिटायर्ड) एस.जी.वोमबटकेरे और टीएमसी सांसद महुआ मित्रा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर राजद्रोह कानून पर रोक लगाने की मांग की थी. याचिका में कहा गया था कि राजद्रोह कानून, नागरिकों के मौलिक अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी पर बुरा असर डालता है. 


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क्या है राजद्रोह कानून (Sedition Law) 
राजद्रोह कानून की शुरुआत अंग्रेजी शासनकाल के दौरान हुई थी. द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनेता थॉमस मैकाले ने इसे ड्राफ्ट किया था. इस कानून के तहत "बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा, संकेतों द्वारा, या फिर दृश्य द्वारा सरकार के खिलाफ नफरत, असंतोष या फिर अवमानना को भड़काना राजद्रोह माना जाएगा."


साल 1870 में इन प्रावधानों को भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के तहत शामिल किया गया. ब्रिटिश सरकार द्वारा शुरुआत में यह भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों जैसे महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, जोगेंद्र चंद्र बोस आदि के खिलाफ इस्तेमाल किया गया. देश की आजादी की लड़ाई में राजनीतिक विरोध को दबाने के लिए इस कानून का खूब इस्तेमाल किया गया.


राजद्रोह कानून में हो सकती है उम्रकैद
124-ए की धारा के तहत यह एक गैर जमानती अपराध है, जिसमें दोष सिद्ध होने पर दोषी को 3 साल से लेकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई जा सकती है. इसके साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है. इतना ही नहीं इसका आरोपी सरकारी नौकरी भी नहीं कर सकता और साथ ही उसका पासपोर्ट भी सरकार द्वारा सीज किया सकता है. 


क्या है सरकार का तर्क
सरकार ने शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून का बचाव किया था और कहा था कि कानून के दुरुपयोग के कुछ मामलों की वजह से कानून को खत्म नहीं किया जा सकता. हालांकि अब सरकार ने कोर्ट में कहा है कि वह इस कानून की समीक्षा करेगी. 


संविधान असेंबली में भी हुआ था इस कानून का विरोध
लॉ कमीशन की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, जब संविधान बनाया जा रहा था, तब संविधान असेंबली में भी राजद्रोह कानून का विरोध हुआ था और इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध माना गया था. हालांकि उस वक्त सरकार ने इस कानून को आईपीसी की धारा 124-ए के तहत लागू रखने का फैसला किया था. 


इसके बाद साल 2011 में सीपीआई सांसद डी. राजा ने राज्यसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश कर राजद्रोह कानून को हटाने की मांग की थी. हालांकि उनका यह बिल पास नहीं हो सका था. 


साल 2011 में चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने भी कहा था कि "राजद्रोह कानून ब्रिटिश काल का कानून है और यह आजादी को दबाता है. यह महात्मा गांधी, तिलक के खिलाफ इस्तेमाल हुआ और आजादी के 75 साल बाद इस कानून की जरूरत नहीं है." चीफ जस्टिस ने ये भी कहा था कि "इस कानून का दुरुपयोग होता है और इस कानून में बहुत कम लोग दोषी पाए गए हैं."  


इस कानून को कब-कब मिली कानूनी चुनौती
राजद्रोह कानून को देश की आजादी के तुरंत बाद ही साल 1950 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. इस मामले को रोमेश थापर वर्सेस स्टेट ऑफ मद्रास केस के तौर पर जाना जाता है. 


इसके बाद पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने तारा सिंह गोपी चंद वर्सेस द स्टेट मामले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राम नंदन वर्सेस स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश मामले में धारा 124ए को असंवैधानिक करार दिया था. 


हालांकि साल 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह वर्सेस स्टेट ऑफ बिहार मामले में धारा 124 ए को लेकर दिए गए हाईकोर्ट के फैसलों पर रोक लगा दी थी. कोर्ट ने साथ ही अपने आदेश में कहा था कि सरकार की सिर्फ आलोचना करना राजद्रोह नहीं माना जा सकता. कोर्ट ने कहा था कि जिस आलोचना से पब्लिक डिसऑर्डर पैदा करे, उसे ही राजद्रोह माना जा सकता है. 


इन देशों में भी लगा बैन
खास बात ये है कि जिस ब्रिटिश शासन ने भारत में राजद्रोह कानून की शुरुआत की थी, उसी ब्रिटेन में यह कानून समाप्त किया जा चुका है. साल 2009 में ब्रिटेन की तत्कालीन सरकार ने अपने कोरोनर्स और जस्टिस एक्ट की धारा 73 को हटा दिया था. ब्रिटेन में साल 1275 में राजद्रोह कानून की शुरुआत हुई थी. 


ऑस्ट्रेलिया में भी साल 2010 में राजद्रोह कानून को समाप्त किया जा चुका है. वहीं बीते साल सिंगापुर में भी यह कानून खत्म कर दिया गया है. 


अमेरिका में राजद्रोह कानून मौजूद है लेकिन वहां सिर्फ बोलना राजद्रोह नहीं माना जाता है.