'तू किसी रेल सी गुजरती है', पढ़िए दुष्यंत कुमार के चुनिंदा शेर

Harsh Katare
Oct 30, 2024

कैसे आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

तुम्हारे पावँ के नीचे कोई ज़मीन नहीं कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

ज़िंदगी जब अज़ाब होती है आशिक़ी कामयाब होती है

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

तू किसी रेल सी गुज़रती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ

लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए

यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ये लोग होमो-हवन में यक़ीन रखते हैं चलो यहाँ से चलें हाथ जल न जाए कहीं

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