जब बिहार चुनाव चल रहा था, तो एक राजमिस्त्री का वीडियो काफी वायरल हुआ था, जिसमें वह कह रहा था कि मुझे रोटी, कपड़ा नहीं चाहिए बल्कि शिक्षा चाहिए. पढ़ाई-लिखाई की अहमियत क्या है, यह आज एक गरीब से गरीब शख्स भी जानता है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

महामहिम सीरीज की दूसरी किस्त में आज हम बात उस हस्ती की करेंगे, जो पहले 9 साल 364 दिन तक भारत का उपराष्ट्रपति रहा, उसके बाद अगले पांच साल राष्ट्रपति का कार्यभार संभाला. वो पैदा तो मद्रास में हुआ लेकिन नाम पूरी दुनिया में फैला. भारत रत्न से भी नवाजा गया और उन्हीं के जन्मदिन पर हर साल पूरा देश शिक्षक दिवस मनाता है. जी हां ये कहानी है महान भारतीय दार्शनिक, राजनेता और देश के दूसरे महामहिम डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की.


परिवार की कम थी आमदनी


1882 में मद्रास प्रेसिडेंसी के तिरुत्तानी में पैदा हुए थे सर्वपल्ली राधाकृष्णन. उनके पिता का नाम था सर्वपल्ली वीरास्वामी और माता का नाम सीतम्मा. उनका परिवार आंध्र प्रदेश के नल्लोर जिले के सर्वपल्ली गांव से था. राधाकृष्णन अपने 4 भाई और एक बहन में दूसरे थे. पिता एक स्थानीय जमींदार के यहां राजस्व अधिकारी थे. उनकी आमदनी काफी कम थी और काफी कठिनाई के साथ वे परिवार चला रहे थे. इस वजह से बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई खास सुख नहीं मिला.


शुरुआती दिन तो तिरुत्तानी और तिरुपति में गुजरे. बीसवीं सदी के तुलनात्मक धर्म और दर्शन के सबसे प्रतिष्ठित विद्वानों में से एक माने जाने वाले राधाकृष्णन की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई तिरुत्तानी केवी हाई स्कूल से हुई. 1896 में वे तिरुपति के हरमन्सबर्ग इवेंजेलिकल लूथरन मिशन स्कूल और वालाजापेट के गवर्नमेंट हाई सेकंडरी स्कूल में चले गए.


पढ़ाई-लिखाई में थे बेहद तेज


सर्वपल्ली राधाकृष्णन शुरुआत से ही पढ़ाई-लिखाई में बेहद तेज थे. पूरे अकादमिक जीवन में उन्हें स्कॉलरशिप्स मिलती रहीं. 10वीं की पढ़ाई के लिए वे वेल्लोर के वूरहिस कॉलेज में आए. फर्स्ट ऑफ आर्ट्स क्लास के बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया. तब उनकी उम्र 16 साल थी. 1907 में वहां से ग्रेजुएशन करने के बाद इसी कॉलेज से मास्टर्स की.



संजोगवश की थी फिलॉस्फी की पढ़ाई


बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉ. राधाकृष्णन का फिलॉस्फी पढ़ने का कोई इरादा नहीं था. लेकिन शायद कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. राधाकृष्णन आर्थिक रूप से उतने मजबूत नहीं थे. उनका चचेरा भाई उसी कॉलेज में पढ़ता था. जब उसने राधाकृष्णन को फिलॉस्फी की किताबें दीं तो इसी से उनके भविष्य की राह बन गई. राधाकृष्णन स्वामी विवेकानंद से खासे प्रभावित थे.


20 साल की उम्र में पब्लिश हुई थी थीसिस


डॉ राधाकृष्णन ने अपनी बैचलर्स डिग्री की थीसिस वेदांता की नैतिकता और उसके आध्यात्मिक पूर्वधारणाओं पर लिखी थी. डॉ राधाकृष्णन ने खुद इस बारे में बताया है. वह लिखते हैं, 'यह उस आरोप का जवाब देने के लिए था कि वेदांता प्रणाली में नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं है.' डॉ राधाकृष्णन के दो प्रोफेसर्स रेव विलियम मेस्टन और डॉ अल्फ्रेड जॉर्ज हॉग ने उनके शोध प्रबंध की तारीफ की थी. जब राधाकृष्णन 20 साल के थे, तब उनकी थीसिस पब्लिश हुई थी. 


खुद राधाकृष्णन ने लिखा है, ''हॉग और भारतीय संस्कृति के अन्य ईसाई शिक्षकों की आलोचना से मेरी आस्था डगमगा गई और उन परंपराओं को ठेस पहुंची, जिनके आगे मैं सिर झुकाता था.'' थीसिस में ब्रिटिश आलोचकों पर डॉ. राधाकृष्णन ने करारा हमला भी किया. उन्होंने लिखा, 'वेदांत सिस्टम को गैर-नैतिक मानना वर्तमान समय का दार्शनिक फैशन बन गया है.'


सर्वपल्ली राधाकृष्णन आगे लिखते हैं, 'ईसाई आलोचकों की चुनौती ने मुझे हिंदू धर्म को पढ़ने और यह पता लगाने के लिए प्रेरित किया कि इसमें क्या जीवित है और क्या मृत है. एक हिंदू के रूप में मेरा गौरव मिशनरी संस्थानों में हिंदू धर्म के साथ किए गए व्यवहार से बहुत आहत हुआ.' यही कारण था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भारतीय फिलॉस्फी और धर्म का गहनता के साथ अध्ययन किया और आजीवन हिंदू धर्म को लेकर पश्चिमी देशों की आलोचना के खिलाफ ढाल बने रहे.



16 साल की उम्र में हो गई थी शादी


डॉ. राधाकृष्णन की शादी उनकी दूर की रिश्तेदार शिवाकामू से 16 साल की उम्र में हुई थी. परंपराओं के मुताबिक शादी घरवालों की मर्जी से हुई थी. उनकी पांच बेटियां हुईं-पद्मावती, रुक्मिणी, सुशीला, सुंदरी और शकुंलता. उनका एक बेटा भी था, जिसका नाम सर्वपल्ली गोपाल था. वह एक नामी इतिहासकार रहे. राधाकृष्णन परिवार के अधिकतर सदस्यों ने दुनियाभर में पब्लिक पॉलिसी, अकैडमिक, लॉ, बैंकिंग, बिजनेस, पब्लिशिंग, मेडिसिन में अपना करियर बनाया. शिवाकामू की मृत्यु 26 नवंबर, 1956 को हुई थी. उस वक्त उनकी शादी को 53 साल हो चुके थे.


बड़े-बड़े पदों पर किया काम


अप्रैल 1909 में डॉ राधाकृष्णन को मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में डिपार्टमेंट ऑफ फिलॉस्फी में नियुक्ति मिली. इसके बाद 1918 में मैसूर यूनिवर्सिटी में वे फिलॉस्फी के प्रोफेसर बने, जहां उन्होंने मैसूर के महाराजा कॉलेज में पढ़ाया. तब तक वे द क्वेस्ट, जर्नल ऑफ फिलॉस्फी और इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एथिक्स के लिए कई आर्टिकल्स लिख चुके थे. 


उन्होंने अपनी पहली किताब द फिलॉस्फी ऑफ रबींद्रनाथ टैगोर पर लिखी थी.  वह मानते थे कि टैगोर की फिलॉस्फी 'भारतीय भावना की वास्तविक अभिव्यक्ति' है. उनकी दूसरी किताब द रीगन ऑफ रिलिजन इन कंटेम्पररी फिलॉसफी 1920 में पब्लिश हुई थी.


1921 में उन्हें कलकत्ता यूनिवर्सिटी में फिलॉस्फी में प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति मिली. उन्होंने जून 1926 में ब्रिटिश हुकूमत की यूनिवर्सिटी की कांग्रेस में कलकत्ता यूनिवर्सिटी और सितंबर 1926 में हार्वर्ड यूनिवर्सिट में फिलॉस्फी की इंटरनेशल कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया. साल 1929 में उन्होंने ऑक्सफोर्ड के मैनचेस्टर कॉलेज में लेक्चर दिया था, जो एक किताब में भी पब्लिश हुआ था.


ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में दिया लेक्चर


1929 में वह मैनचेस्टर कॉलेज के प्रिंसिपल बने. इसके बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड में तुलनात्मक धर्म पर छात्रों को लेक्चर दिया. साल 1931 से लेकर 1936 तक वह आंध्र यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर भी रहे. शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें जॉर्ज पंचम ने जून 1931 में बर्थडे ऑनर्स में नाइट की उपाधि दी और अप्रैल 1932 में भारत के गवर्नर-जनरल, अर्ल ऑफ विलिंगडन ने औपचारिक रूप से उनका सम्मान किया. हालांकि जब भारत आजाद हुआ तो उन्होंने इस उपाधि का इस्तेमाल बंद कर दिया और अपने अकैडमिक टाइटल 'डॉक्टर' को तवज्जो दी.


साल 1936 में उन्हें यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड में पूर्वी धर्मों और नैतिकता के स्पैल्डिंग प्रोफेसर के तौर पर चुना गया. साथ ही ऑल सोल कॉलेज में फेलो भी मिली. इसी साल 1937 में उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया. साल 1939 में पंडित मदन मोहन मालवीय ने उन्हें बीएचयू का वाइस चांसलर बनने के लिए आमंत्रित किया था. वह जनवरी 1948 तक बीएचयू के वाइस चांसलर भी रहे.


राजनीति में कैसे हुई एंट्री


अकादमिक करियर में झंडे गाड़ने के बाद उन्होंने अपना राजनीतिक करियर काफी देर से शुरू किया.  उनके अंतरराष्ट्रीय अधिकार उनके राजनीतिक जीवन से पहले थे. वह 1928 में आंध्र महासभा में भाग लेने वाले उन दिग्गजों में से एक थे, जहां उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी के सीडेड डिस्ट्रिक्ट्स डिवीजन का नाम बदलकर रायलसीमा रखने के विचार का समर्थन किया.


 राधाकृष्णन का कांग्रेस पार्टी में कोई बैकग्राउंड नहीं था और न ही वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन में एक्टिव थे. 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, राधाकृष्णन ने यूनेस्को (1946-52) में भारत का प्रतिनिधित्व किया और बाद में 1949 से 1952 तक सोवियत संघ में भारत के राजदूत रहे. वे भारत की संविधान सभा के लिए भी चुने गए. राधाकृष्णन 1952 में भारत के पहले उपराष्ट्रपति चुने गए और फिर1962-1967 तक भारत के दूसरे राष्ट्रपति बने.


उनके राष्ट्रपति बनने के बाद जब कुछ छात्रों और उनके दोस्तों ने उनसे अपना जन्मदिन मनाने की दरख्वास्त की. तब उन्होंने कहा था कि यह मेरा सौभाग्य होगा कि अगर हर साल 5 सितंबर टीचर्स डे के तौर पर मनाया जाए. 


स्टालिन को दी सीख, माओ के थपथपाए गाल


 नामी कवि रामधारी सिंगर ने अपनी किताब स्मरणांजलि में लिखा है, 'मॉस्को में राधाकृष्णन भारत के राजदूत थे. काफी दिन तक स्टालिन उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं हुए. बाद में जब दोनों की मुलाकात हुई तो डॉ राधाकृष्णन ने स्टालिन से कहा, 'हमारे देश में एक राजा था जो बड़ा क्रूर और अत्याचारी था. उसने खून से सने रास्ते से प्रगति की लेकिन एक जंग के बाद उसके अंदर ज्ञान जाग गया और वह धर्म, अहिंसा और शांति के रास्ते पर आ गया. आप भी वही रास्ता क्यों नहीं पकड़ लेते.' डॉक्टर राधाकृष्णन की इस बात पर स्टालिन कुछ नहीं बोल पाए. उन्होंने डॉ राधाकृष्णन के जाने के बाद अपने दुभाषिए से कहा था, 'ये शख्स केवल मानवता का भक्त है, ये राजनीति नहीं जानता'.


उनका एक और किस्सा काफी मशहूर है. जब वह उपराष्ट्रपति थे तो चीन की यात्रा पर गए थे. पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के मुताबिक, चीन के राष्ट्रपति माओ ने अपने निवास पर उनकी आगवानी की. जैसे ही माओ ने हाथ मिलाया डॉ राधाकृष्णन ने माओ के गाल थपथपा दिए. इससे पहले कि माओ कोई रिएक्शन दे पाते, तत्कालीन उपराष्ट्रपति ने कहा, आप परेशान मत होइए, मैंने यही पोप और स्टालिन के साथ भी किया है.'