Shahi Idgah Masjid Row: श्रीकृष्ण-जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद का विवाद वर्षों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहा है, लेकिन विवाद कब खत्म होगा यह पता नही. श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद पर जहां हिन्दू पक्ष वर्षों से दावा करता आ रहा है कि जिस जगह पर मस्जिद बनी है वहां कभी भगवान श्रीकृष्ण का भव्य 'केशव रॉय' मन्दिर था, तो मुस्लिम पक्ष इस तथ्य को नकार कर दावा कर रहा कि शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण किसी हिन्दू मन्दिर को तोड़ कर नही किया गया और बेवजह विवाद पैदा किया जा रहा है. अब श्रीकृष्ण-जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद विवाद में ऐतिहासिक साक्ष्य क्या कहते हैं यह हम आपको बताते हैं, जिसके बाद अब खुद ही फैसला कीजिये कि सच क्या है.


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सबसे पहले आते हैं विध्वंस पर, मुस्लिम पक्ष का दावा है कि शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण हिन्दू मन्दिर को तोड़ कर नहीं किया गया और विध्वंस की बात झूठी है. लेकिन 27 जनवरी 1670 का औरंगजेब का फरमान कुछ और ही कहानी बयां कर रहा है. फारसी में मौजूद इस फरमान का अनुवाद इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी किताब मासिर ए आलमगीरी में किया है और अनुवाद के मुताबिक औरंगजेब फरमान देता है रमजान के पाक महीने में मथुरा स्थित केशव देव मन्दिर को तोड़ दिया जाए. साथ ही मन्दिर को तोड़ कर उसकी मूर्तियों और कीमती जवाहरात को आगरा स्थित बेगम साहिब मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे दफना दिया जाना है. इसके अलावा इसी फरमान में औरंगजेब मथुरा का नाम बदल कर इस्लामाबाद करने का आदेश देता है.



औरंगजेब के फरमान से यह तो साबित होता है कि केशव राय मन्दिर को तोड़ने का आदेश वर्ष 1670 में दिया गया था. अब सवाल यह उठता है कि सही कौन है हिन्दू पक्ष जो दावा कर रहा कि ईदगाह मस्जिद का निर्माण, केशव राय मन्दिर को तोड़ कर किया गया था या मुस्लिम पक्ष जो इस दावे को निराधार बता रहा. चलिए सच और झूठ का फैसला आप कीजिए, हम आपको  Archeological Survey of India की 160 साल पुरानी सर्वेक्षण रिपोर्ट शाही ईदगाह के बारे में क्या कहती है बताते हैं. Archeological Survey of India के तत्कालीन निदेशक और संस्थापक एलेक्जेंडर कन्नीघम ने 1862 से 1865 तक 3 साल तक देश के कई हिस्सों में सर्वेक्षण किया था. इन्ही सर्वेक्षण के आधार पर उन्होंने एक रिपोर्ट जारी की थी Four Reports Made During the Years 1862 63 64 65.



इस रिपोर्ट में मथुरा के सर्वेक्षण के बारे में बताते हुए के पेज 235 पर एलेक्जेंडर कनिंघम (Alexender Cunnigham) शाही ईदगाह के सर्वे के बारे में लिखते हैं कि मथुरा के कटरा बाजार के बीचों बीच एक मस्जिद है जिसे लोग कहते हैं कि इसे औरंगजेब ने केशव रॉय या केशव देव मन्दिर को तोड़ कर बनवाया था. लोगों का यह आरोप 'मेरे सर्वेक्षण में सत्य पाया गया'. मस्जिद की दीवारों पर लिखे कई देवनागरी लिपि के अक्षरों को मुस्लिमो ने काट काट हटा दिया था.



पेज 235 और 236 पर एलेक्जेंडर कनिंघम ने लिखा कि उन्होंने पाया कि मस्जिद की दीवार पर एक जगह 'वत् 1713 फाल्गुन' लिखा हुआ है यहां मुसलमानों ने संवत् के सम को काट दिया था. पेज 236 पर ही आगे एलेक्जेंडर कनिंघम ने लिखा कि 'मस्जिद में एक पत्थर पर लिखा हुआ है केशव राय.' हिन्दू पक्ष का भी यही दावा है कि मस्जिद का निर्माण केशव राय मन्दिर को तोड़ कर किया गया.



 


हिन्दू मन्दिर को तोड़ मस्जिद बनाए जाने के कुछ और प्रमाण कनिंघम लिखते हैं कि मस्जिद की अन्य दीवार पर सं 1720 लिखा हुआ और इन दोनों हिंदी वर्षो को अगर अंग्रेजी वर्ष में बदला जाए तो ये तिथियां वर्ष 1656 से 1663 के बीच की हैं यानी औरंगजेब के काबिज होने से पहले की.


ASI के संस्थापक और तत्कालीन निदेशक एलेक्जेंडर कनिंघम अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में आगे लिखते हैं की मस्जिद की पिछली दीवार पर आज भी केशव राय मन्दिर के प्रमाण मिलते हैं जहां मन्दिर की दीवार पर ही Cyma reversa तकनीक से ध्वसत मन्दिर के अवशेषों से मस्जिद का निर्माण हुआ है. साथ ही अगर औरंगजेब ने मन्दिर को नही तोड़ा होता तो आज श्रीकृष्ण का केशव राय मन्दिर भारत का सबसे बड़ा मन्दिर होता.



औरंगजेब के फरमान और Archeological Survey of India की रिपोर्ट से यह तो तय हो जाता है कि शाही-ईदगाह मस्जिद का निर्माण हिन्दू मन्दिर को तोड़ कर दिया गया था. लेकिन अब आते हैं जमीन पर, क्योंकि अदालत में हिन्दू पक्ष ने मुकदमा दायर करते हुए दावा किया है कि जिस जमीन पर आज शाही ईदगाह मस्जिद बनी हुई है उसका मालिकाना हक राजस्व अभिलेखों में भगवान श्रीकृष्ण विराजमान के पास है. हिन्दू पक्ष के वकील महेंद्र प्रताप सिंह ने अदालत में मथुरा बांगर गांव जहां श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद है उसका चकबन्दी नक्शा और खसरा-खतैनी के दस्तावेज सबूत के रूप में दाखिल किए हैं. वकील महेंद्र प्रताप सिंह के मुताबिक उत्तरप्रदेश सरकार के राजस्व विभाग के चकबन्दी नक्शे में खेवत संख्या 255 पर जो जमीन है वहीं शाही ईदगाह मस्जिद बनी हुई है. साल 2015 के राजस्व विभाग के अभिलेखों में खेवत संख्या 255 का मालिक श्री ठाकुर कृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट के नाम पर दर्ज है.



शाही ईदगाह मस्जिद इंतजामिया कमेटी के सचिव तनवीर अहमद हिन्दू पक्ष का दावा खारिज करते हुए कहते हैं कि जिस खेवत संख्या पर शाही ईदगाह मस्जिद के बने होने का हिन्दू पक्ष के वकील दावा कर रहे हैं वो वह जमीन नही है जहां शाही-ईदगाह मस्जिद खड़ी हुई है कहां की है पता नहीं लेकिन शाही ईदगाह मस्जिद वाली जमीन नहीं है. शाही ईदगाह मस्जिद इंतजामिया कमेटी के सचिव तनवीर अहमद जोर देकर कहते हैं कि साल 1968 में हिन्दू पक्ष और मुस्लिम पक्ष के बीच समझौता हो गया था, लेकिन अब बाहरी तत्व मथुरा में हिन्दू मुस्लिम भाईचारा खराब करने के लिए कोर्ट में दावे कर रहे हैं.


साल 1968 का विवादित समझौता और समझौते पर हिन्दू-मुस्लिम पक्षों की राय जानने से पहले अतीत के कुछ पन्ने पलटना जरूरी है, जिससे आप इस पूरे विवाद की जड़ समझ पाएंगे. भारत सरकार की इतिहास पर शोध करने वाली संस्था भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के निदेशक डॉ ओम जी उपाध्य्याय के मुताबिक साल 1770 मे मराठाओं ने गोवर्धन की लड़ाई में मुगलों की गठबंधन वाली सेना को हरा कर मथुरा और आगरा को मुगलों से आजाद करवा दिया था. जिसके बाद मराठाओं ने मथुरा की कटरा स्थित 15.70 एकड़ भूमि जहां ध्वसत मन्दिर और शाही ईदगाह थी उसे नजूल भूमि यानी सरकारी जमीन घोषित कर दिया. लेकिन साल 1803 में अंग्रेजो की ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं को हरा कर पूरे मथुरा पर कब्जा कर लिया और नजूल घोषित इस 15.70 एकड़ जमीन की नीलमी करवाई जिसे बनारस के व्यापारी राय पटनीमल ने साल 1815 में 45 लाख रुपये में खरीदा था. ऐतिहासिक अभिलेखों के माध्यम से डॉ उपाध्याय कहते हैं इस नीलामी के खिलाफ मुस्लिम पक्ष ने वर्ष 1832 में पहला मुकदमा दायर कर मस्जिद की मरमत और नीलामी रद्द करने की अर्जी दी. लेकिन तब तत्कालीन कलेक्टर डब्ल्यूएच टेलर ने नीलामी को उचित बता कर याचिका खारिज कर दिया और कहा की क्योंकि जमीन के मालिक राजा पटनीमल के वंशज हैं ऐसे में कोई भी मरम्मत या निर्माण उनकी मर्जी के बिना नही होगा. कोर्ट में यह मुद्दा अगले कुछ सालों तक लगातार उठता रहा और साल 1897, 1921, 1923, 1929 में मुस्लिम पक्ष कुल मिलाकर 4 बार जिला अदालत गया लेकिन हर बार फैसला हिंदुओं के पक्ष में ही आया.



अब आते हैं कटरा की 15.70 एकड़ जमीन पर जिसे राय पटनीमल से खरीदा था. वर्ष 1888 में राय पटनीमल ने 2.33 एकड़ जमीन वृंदावन में रेलवे लाइन के लिए ब्रिटिश सरकार को दे दी थी, जिसके बाद उनके पास मालिकाना हक के रूप में सिर्फ 13.37 एकड़ जमीन ही बची थी.  राय पटनीमल के वंशज राय किशन दास 1932 में इलाहाबाद हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाते हैं और पूरी 13.37 एकड़ जमीन पर कब्जा मांगते हैं. हिन्दू पक्ष के वकील हरिशंकर जैन के मुताबिक वर्ष 1935 में इलाहाबाद हाइकोर्ट फैसले दिया था कि पूरी 13.37 एकड़ जमीन जहां आज श्रीकृष्ण का मन्दिर और शाही ईदगाह है उसके असल मालिक राजा पटनीमल के वंशज हैं, लेकिन क्योंकि राजा पटनीमल के वंशजो ने दावा सिर्फ जमीन पर किया था मस्जिद पर नही इसीलिए कोर्ट ने मुस्लिमो को सिर्फ 'कच्ची कुर्सी' पर नमाज अदा करने की छूट दी थी.



इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के 9 साल बाद साल 1944 को सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट माना जाता है, जब श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण के लिए राजा पटनीमल के वंशजो ने 7 फरवरी 1944 को पूरी 13.37 एकड़ जमीन पंडित मदन मोहन मालवीय, गोस्वामी गणेश दत्त और भिखेन लाल जी आत्रे के नाम कर दी थी और इसके एवज में कारोबारी जुगल किशोर बिड़ला राजा पटनीमल के वंशजो को 13,400 रुपये का भुगतान किया था.



13.40 एकड़ जमीन की खरीद-बिक्री के खिलाफ मुस्लिम पक्ष 1946 में फिरसे कोर्ट चला जाता है, लेकिन हिन्दू पक्ष के मुताबिक इस बार भी मामले को खारिज कर दिया जाता है. जिसके बाद 21 फरवरी 1951 जुगल किशोर बिरला जमीन श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बना कर पूरी 13.37 एकड़ 'भगवान श्रीकृष्ण विराजमान' को समर्पित कर देते हैं और 1953 में मन्दिर का पुनर्निर्माण बची हुई जमीन पर शुरू हो जाता है और 2.5 एकड़ पर शाही ईदगाह मस्जिद काबिज़ रहती है. हालांकि जुगल किशोर बिरला खराब स्वास्थ्य की वजह से मन्दिर की देखरेख का काम श्रीकृष्ण जन्मभूमि संघ को दे दिया जाता है.


अब आते हैं विवादित समझौते पर जिसकी दुहाही मुस्लिम पक्ष दे रहा है और हिन्दू पक्ष उसे मानने को तैयार नही है. 1967 जब हिन्दू पक्ष कथित रूप से दस्तावेजों में दर्ज भगवान श्रीकृष्ण विराजमान की 2.5 एकड़ जमीन पर बनी मस्जिद को हटाने के लिए मुकदमा दायर करता है, लेकिन मुकदमे के बीच मे साल 1968 में श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के उपमंत्री देवधर शर्मा शास्त्री कथित रूप से बिना श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के अन्य सदस्यों और पदाधिकारीयों की मंजूरी के शाही ईदगाह की इंतजामिया कमेटी के साथ लिखित समझौता कर लेते हैं कि मन्दिर के आसपास की जमीन जिसका मालिकाना हक श्रीकृष्ण विराजमान के पास है लेकिन उस जमीन पर कच्चे मकान बना कर मुस्लिम आबादी रह रही है उसे हटा कर मन्दिर प्रबंधन का कब्ज़ा करवा दिया जाएगा, साथ ही ईदगाह मस्जिद के आसपास की जमीन जो श्रीकृष्ण जन्मभूमि संघ की है लेकिन उसका प्रयोग मस्जिद की कमेटी कर रही है उस जमीन पर समझौते के तहत मुस्लिम पक्ष की "मिलकियत" मानी जायेगी. इसी समझौते के आधार पर आज शाही ईदगाह मस्जिद 2.5 एकड़ में फैली हुई है और मन्दिर परिसर 10.90 एकड़ में.



इस समझौते में गौर करने वाली एक और बात लिखी है कि अगर भविष्य में दोनों में से कोई भी पक्ष समझौते से संतुष्ट नही होता है तो वह कोर्ट जा सकता है. साथ ही दोनो पक्ष आपसी सहमति से मुकदमा वापस लेते हैं. इसी कथित समझौते के आधार पर कोर्ट में हिन्दू पक्ष का 1967 में दायर मुकदमा साल 1974 में खारिज हो जाता है और हिन्दू पक्ष का मुकदमा खारिज होने के कारणों का पता लगने पर तुरन्त जमीन की मालिक श्रीकृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट तुरन्त श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ को खत्म कर उप मंत्री को पद से हटा देती है और श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान का निर्माण करती है जिसकी देखरेख में 1982 तक मन्दिर का निर्माण कार्य किया जाता है.


हिन्दू पक्ष के वकील हरिशंकर जैन इस पूरे समझौते को ही फ्रॉड बताते हैं तो मुस्लिम पक्ष के तनवीर अहमद दावा करते हैं कि 1968 का समझौता मालिकाना हक को लेकर था ही नही. वकील हरिशंकर जैन सवाल उठाते हुए कहते हैं कि जब जमीन श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की थी तो समझौते के माध्यम से शाही ईदगाह मस्जिद इंतजामिया कमेटी कैसे 2.5 एकड़ जमीन की मालिक हो सकती है. जैन के मुताबिक साल 1976 में मस्जिद की इंतजामिया कमेटी ने 1968 के समझौते को आधार बना कर मथुरा की नगरपालिका में अभिलेखों में उस 2.5 एकड़ जमीन को शाही ईदगाह मस्जिद की इंतजामिया कमेटी के नाम करने के लिए आवेदन किया था लेकिन नगरपालिका ने समझौते को नही माना था जिसके कारण आज भी नगरपालिका के अभिलेखों में मस्जिद की जमीन श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट के नाम दर्ज है.



मौजूदा स्थिति की बात करें तो मथुरा की अदालत में पांच अलग अलग हिन्दू पक्षों की तरफ से दायर याचिकाएं अभी लंबित हैं. इन पाँच याचिकाओं में से 2 को कोर्ट सुनने योग्य मान चुकी है, वहीं बाकी 3 याचिकाएं सुनने योग्य हैं या नही इसपर आने वाले दिनों में कोर्ट को फैसला करना है. ऐसे में देखना होगा कि दशकों तक खिंचे अयोध्या विवाद के बाद अब मथुरा और काशी का विवाद कब तक चलता है और फैसला किसके पक्ष में आता है.


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