BJP के `हनुमान`, जिनके लिए कहा गया-`पेप्‍सी और प्रमोद कभी अपना फॉर्मूला नहीं बताते`

प्रमोद महाजन जिंदा रहते तो शायद बीजेपी और देश की राजनीति शायद कुछ और ही होती. आज उनके जन्मदिन के मौके पर जानिए उनकी कुछ दिलचस्प अनसुनी कहानियां...

ज़ी न्यूज़ डेस्क Fri, 30 Oct 2020-4:37 pm,
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टीचर, पत्रकार से राजनीति का सफर

प्रमोद महाजन के पिता अध्यापक थे, लेकिन उनको पत्रकार बनने की धुन सवार थी. उन्होंने पुणे की एसपीपीयू के पत्रकारिता विभाग से जुड़े रानाडे इंस्टीट्यूट ऑफ जर्नलिज्म से पत्रकारिता की डिग्री ली. उन दिनों पत्रकारिता में इतने मौके उपलब्ध नहीं थे, सो पिता की तरह वो भी अगले तीन साल तक खोलेश्वर कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते रहे, ये 1971 से 1974 के बीच की बात है. दरअसल जब वो केवल 21 साल के ही थे, तभी उनके पिता की मौत हो गई.

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जब गोपीनाथ मुंडे से मिले महाजन

शुरू से ही प्रमोद महाजन काफी मेधावी थे. राजनीतिक विषयों में उनसे बहस में किसी के लिए भी जीतना नामुमकिन था. उन्होंने कई डिबेट प्रतियोगिताएं स्कूली दिनों में जीतीं. वहीं एक स्कूल में उनकी दोस्ती गोपीनाथ मुंडे से हुई. इस जोड़ी ने महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए मजबूत नींव रख दी और ये दोस्ती भी बाद में रिश्तेदारी में बदल गई. सबसे दिलचस्प है कि उस वक्त उन्हें करियर का कुछ भी नहीं पता था, सो महाराष्ट्र सरकार के एक टाइपराइटिंग सर्टिफाइड प्रोग्राम का भी टेस्ट दिया और उसे पास कर लिया.

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प्रमोद महाजन पर भी क्रांति का गहरा असर था

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से यूं तो वो बचपन से जुड़े हुए थे, लेकिन 1970-71 में प्रमोद उसके मराठी अखबार ‘तरुण भारत’ से भी जुड़ गए. 1974 तक आते-आते देश में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ आक्रोश की लहर तेज हो चुकी थी. जेपी सम्पूर्ण क्रांति का नारा दे चुके थे, संघ भी एक बड़ी लड़ाई के लिए कमर कस चुका था. प्रमोद महाजन पर भी क्रांति का गहरा असर था, वो भी मैदान में उतरे और संघ ने उन्हें 1974 में प्रचारक बना दिया. इमरजेंसी के दौरान उन्होंने काफी काम किया, जब भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई तो वो बीजेपी में चले गए. इस तरह से उनका रास्ता राजनीति में खुलता चला गया.

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आसान नहीं थी लोक सभा तक पहुंचने की राह

प्रमोद महाजन के गुरु अटल बिहारी बाजपेयी के बारे में कम ही लोगों को पता है कि वो पूरे पांच बार लोकसभा चुनाव हारे थे, लेकिन ‘हार में या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं’, अटलजी की इन्हीं लाइनों को मन में लेकर चलते थे प्रमोद महाजन भी. एबीवीपी के साथ महाराष्ट्र के छात्र संघ चुनावों में कुशल रणनीति के जरिए छात्र संघ चुनावों में अपना परचम लहराने के बाद प्रमोद महाजन युवा मोर्चा से जुड़े और एक दिन उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद तक जा पहुंचे. फिर एक बार नहीं बल्कि तीन-तीन बार युवा मोर्चा के प्रेसीडेंट पद पर लगातार चुने गए. इसी बीच बीजेपी की टिकट पर उन्होंने पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा तो इंदिरा लहर में हार गए. अगला चुनाव उन्होंने नॉर्थ ईस्ट मुंबई से 1996 में लड़ा और जीतकर लोकसभा में आ गए और बाजपेयी की सरकार में मंत्री चुन लिए गए लेकिन सरकार 13 दिन में ही गिर गई. 1998 में ही दोबारा चुनाव हो गए लेकिन इस बार वो फिर उसी सीट से 1998 में चुनाव लड़े तो हार गए. लेकिन बाजपेयी सत्ता में आ गए और उन्हें अपना एडवाइजर बना लिया और बाद में उन्हें उसी साल राज्य सभा भेज दिया. वहां से जीतकर आए तो इनफॉरमेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग और फूड प्रोसेसिंग मिनिस्टर बना दिया गया. बाद में टेलीकॉम मंत्री बनके सेल्युलर क्रांति ही ला दी. फिर लगातार वो राज्यसभा से ही चुनकर आते रहे.

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कैसे बने अटल जी, प्रमोद महाजन के मुरीद

अटलजी उसूलों के सख्त थे, लेकिन अक्सर मध्यमार्ग अपनाते थे. वहीं आडवाणी बेहद सख्त मिजाज थे. कई मामलों में आडवाणी कतई समझौता नहीं करते थे, लेकिन अटलजी कोई ना कोई मजेदार तर्क देकर थोड़ा झुक भी जाया करते थे. तभी तो सोमनाथ से अयोध्या यात्रा के सफल आयोजन के बाद आडवाणी प्रमोद महाजन और मोदी के मुरीद हो गए थे, लेकिन जिस तरह से बाल ठाकरे से नजदीकियां बढ़ाकर बीजेपी से उनका गठबंधन करवाया था, अटलजी उनको मानने लगे थे. पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करना हो या कोई और बड़ा आयोजन, प्रमोद महाजन के पास हर मामले का इलाज होता था, हर मुश्किल के ट्रबल शूटर, अमित शाह की तरह. धीरे धीरे वो आडवाणी के बजाय अटलजी के निकट आने लगे. सदन में वो हमेशा अटलजी के पीछे बैठते थे. हार गए तो पीएम रहते अटलजी ने उन्हें अपना एडवाइजर बना लिया. जिस तरह से लोकसभा चुनाव हारने के बाद मोदी ने अरुण जेटली को तवज्जो दी थी, वही तवज्जो अटलजी की सरकार में प्रमोद महाजन को मिली थी.

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पेप्सी और प्रमोद महाजन कभी अपना फॉर्मूला नहीं बताते

प्रमोद महाजन का एक दौर वो भी आया कि विपक्षी पार्टियां उन पर अलग से नजर रखती थीं, ऐसा लगने लगा था कि अटल आडवाणी की जोड़ी को एक कम उम्र का व्यक्ति रणनीति बता रहा है और जो कामयाब भी साबित होने लगी हैं. ऐसे में एक मुहावरा काफी चलने लगा था, ‘पेप्सी और प्रमोद महाजन कभी अपना फॉर्मूला नहीं बताते’, जब वो संसदीय कार्यमंत्री बने तो विपक्षी पार्टियों की मुश्किलें और भी बढ़ गई थीं. फ्लोर पर महाजन की रणनीति मुश्किलों बिलों को पास करने के लिए क्या होगी, इस पर मीडिया एंकर तमाम दिग्गज विश्लेषकों के साथ स्टूडियो में बैठकर महाजन के चक्रव्यूह को भेदने के लिए मंथन करते थे.

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