DNA ANALYSIS: अगर किसान संगठन SC की कमेटी का फैसला नहीं मानते, तो क्या होगा अदालत का रुख?
Farmers Protest: आज हम देश में न्यायपालिका, कार्यपालिका और संसद के अधिकारों पर उठ रहे सवालों का DNA टेस्ट करेंगे. देश के नए कृषि कानूनों (Farm Laws) को लागू करने पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने रोक लगा दी है. पर ये रोक अनिश्चितकालीन नहीं है और किसानों से उम्मीद की गई है कि वो अब आंदोलन (Farmers Protest) खत्म करके दिल्ली की सीमाओं से अपने घरों के लिए लौट जाएंगे. हालांकि इस फैसले के बाद बड़ा सवाल ये है कि कानून बनाने की सुप्रीम पावर किसके पास है ? और क्या संसद से पास हुए कानूनों का फैसला सड़क पर किया जा सकता है? इन्हीं सवालों का जवाब आज हम ढूंढने की कोशिश करेंगे. सबसे पहले आपको सुप्रीम कोर्ट के फैसले की 5 बड़ी बातें बताते हैं. लेकिन सबसे पहले आपको सुप्रीम कोर्ट के फैसले की 5 बड़ी बातें बताते हैं-
कृषि कानून को लागू करने पर रोक
तीनों कृषि कानून को लागू करने पर रोक लगा दी गई है.
चार सदस्यों की एक कमेटी
चार सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई है, जो सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट देगी.
कमेटी के पास जाकर अपनी बात रख सकते हैं किसान संगठन
कोई भी किसान संगठन, चाहे वो कानून के विरोध में हो या समर्थन में , इस कमेटी के पास जाकर अपनी बात रख सकता हैं.
केंद्र सरकार का पक्ष भी सुनेगी कमेटी
ये कमेटी कृषि कानूनों पर केंद्र सरकार का भी पक्ष सुनेगी.
दो महीने बाद देगी रिपोर्ट
इसकी पहली बैठक 10 दिन में होगी और उसके दो महीने बाद ये कमेटी अपनी रिपोर्ट देगी.
किसानों का विरोध
सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई है, उसके 4 सदस्य हैं. इनका छोटा सा परिचय आपको देना जरूरी है क्योंकि इनके नाम पर विवाद भी शुरू हो गया है. पहला नाम है भूपिंदर सिंह मान का, जो भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. किसानों के एक गुट का मानना है कि ये पहले नए कृषि कानूनों के पक्ष में थे.
कमेटी के सदस्य
दूसरे सदस्य हैं, डॉक्टर प्रमोद कुमार जोशी. ये International Food Policy Research Institute के साउथ एशिया डायरेक्टर हैं. इनके बारे में किसान संगठन कह रहे हैं कि इन्होंने नए कानून के समर्थन में सरकार को पत्र लिखा था. तीसरे सदस्य का नाम अशोक गुलाटी है, जो कृषि अर्थशास्त्री हैं. किसान संगठनों का कहना है कि अशोक गुलाटी की अध्यक्षता वाली कमेटी ने नए कृषि कानून लागू करने की सिफारिश की थी और इसके चौथे सदस्य अनिल घनवट हैं जो कि महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन से जुड़े हैं. यानी किसान नेता हैं. इन्होंने भी नए कृषि कानूनों का समर्थन किया है.
सदस्यों को लेकर विवाद
मतलब ये है कि जो समिति किसानों से बात करेगी उसके 2 सदस्य किसान नेता हैं और 2 सदस्य कृषि अर्थशास्त्री हैं और इनमें से तीन नामों पर कुछ किसान संगठनों को आपत्ति है. आंदोलन में शामिल किसान संगठनों ने इस कमेटी के सामने अपनी बात रखने से मना कर दिया है क्योंकि, उन्हें लगता है कि कमेटी में सरकार के लोग ही शामिल हैं और किसान नेताओं ने घोषणा कर दी है कि उनका आंदोलन खत्म नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट की तरफ से बनाई गई कमेटी में जिस सदस्य को लेकर सबसे ज्यादा विवाद है, उनका नाम है भूपिंदर सिंह मान किसान मानते हैं कि ये कृषि कानूनों के पक्ष में है. लेकिन इन्होंने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस दोनों राजनीतिक दलों के मैनिफेस्टो की तुलना की थी और तब उन्होंने कांग्रेस के मैनिफेस्टो को किसानों के लिए ज्यादा बेहतर बताया था. संविधान की प्रस्तावना कहती है कि भारत के लोगों ने संविधान बनाया और उसमें संप्रभुता संसद को दी गई. यानी संसद नागारिकों के हक में फैसला ले. संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक दूसरे पर नजर रखने का अधिकार दिया गया है ताकि किसी की तानाशाही न चले. पर लोकतंत्र के नाम पर भारत में आजादी के बाद भी ऐसे आंदोलन चल रहे हैं जो अराजकता फैलाते हैं. इसकी चेतावनी हमारे संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने दी थी.
असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं
उनका प्रसिद्ध भाषण "Grammar Of Anarchy", आज की स्थितियों पर नई रौशनी डालता है और हम जो Too Much Democracy की बात कहते आए हैं, उसे सच साबित करता है. ये भाषण 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में दिया गया था और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने तब प्रजातंत्र में अराजकता वाली भाषा से देश को सावधान किया था. हमें सामाजिक आर्थिक उद्देश्य हासिल करने के संवैधानिक तरीकों को मजबूती से थामना होगा. इसका मतलब ये है कि हमें क्रांति के ख़ूनी तरीकों को छोड़ देना चाहिए. इसका मतलब ये है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की पद्धति छोड़ देनी चाहिए. अंबेडकर आगे कहते हैं, जब सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य को हासिल करने के संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था, तब ये असंवैधानिक तरीकों को जायज ठहराने के लिए बड़ा मौका था. लेकिन जब संवैधानिक तरीके खुले हैं तो असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता है. डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि असंवैधानिक तरीका कुछ और नहीं, बल्कि ये ग्रामर और अनार्की है और इसे जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, उतना ही ये हम सभी के लिए बेहतर होगा.
संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा?
अब यहां बड़ा सवाल ये है कि अगर किसान आंदोलन में परिस्थितियां नहीं बदलीं तो कहीं भारतीय प्रजातंत्र भी ज्यादा डेमोक्रेसी के चक्कर में अमेरिका के रास्ते पर तो नहीं चल पड़ेगा क्योंकि, कुछ दिन पहले आपने देखा कि अमेरिका की संसद में वहां के नागरिकों ने हिंसा की. राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों को मानने से इंकार कर दिया और जब स्थिति तनावपूर्ण हो गई तो देश की संसद को अपने ही नागरिकों से बचाने के लिए बड़ी बड़ी लोहे की दीवारें खड़ी करनी पड़ी. सरल भाषा में अगर हम इन परिस्थितियों का आपके लिए आकलन करें तो हमें लगता है कि लोकतंत्र की ज्यादा मात्रा किसी भी देश की सेहत के लिए हानिकारक हो सकती है और ऐसा होने पर लोकतंत्र की वकालत करने वाले हिंसा को भी सही ठहराने लगते हैं. अब जब किसान न तो संसद की सुन रहे हैं और न ही अदालत की, तो फिर इस आंदोलन का भविष्य क्या है ?क्या देश में किसानों को अन्नदाता का सम्मान देने के चक्कर में संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा है? क्या संविधान में तय किया गया शक्तियों का संतुलन बिगड़ रहा है? संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका एक दूसरे के काम में दखल दे रहे हैं और क्या अब सड़क पर संसद का फैसला होगा? अगर ऐसा होता है तो ये लोकतंत्र के लिए सही नहीं माना जा सकता.