भारत का बुरा करने वालों को इतिहास ने दी ऐसी `दर्दनाक` मौत, क्लाइव हो या माउंटबेटन

इतिहास ने इन​को अपने-अपने तरीके से सजा दी.

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अंग्रेजों ने क्लाइव को इंग्लैंड से तीन बार भारत भेजा

लॉर्ड क्लाइव यानी वो अंग्रेज जो अगर भारत नहीं आता, तो अंग्रेज अपनी जड़ें भारत में जमा ही नहीं पाते. उसकी काबिलियत देखकर अंग्रेजों ने उसे इंग्लैंड से तीन तीन बार भारत भेजा. औरगंजेब की मौत के बाद कई अलग अलग सूबेदारों ने विद्रोह करके भारत के अलग अलग हिस्सों में खुद को मुगल साम्राज्य से अलग करके आजाद कर लिया था. इधर फ्रांसीसी, डच और पुर्तगालियों के साथ साथ अंग्रेजों की नजर भी भारत पर थी. किस तरह से क्लाइव ने पहले साउथ के इलाकों पर कब्जा जमाते हुए फ्रांसीसी और मुगलों के पूर्व सूबेदारों को धूल चटाकर अंग्रेजी परचम लहराया, इतिहास में दर्ज है. 

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अफीम के नशे में अपना गला खुद ही काट लिया

उसके बाद उसे बंगाल पर कब्जा करने भेजा गया, कोलकाता पर कब्जा हो, या मीर जाफर को मिलाकर प्लासी की जंग जीतना ये क्लाइव के बस की ही बात थी. क्लाइव को ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल का पहला गर्वनर जनरल बनाया और वहीं से अंग्रेजी सत्ता की नींव रखी गई, जो 1912 में देश की राजधानी दिल्ली आने तक चलती रही. लेकिन उसी क्लाइव के आखिरी दिन मानो सजा के तौर पर गुजरे. इंग्लैंड की संसद में उसके खिलाफ जांच बैठाई गई, कि कैसे उसने कंपनी के पैसे का गबन किया. उसको अफीम की लत लग गई, 1774 में एक दिन उसने खुद नशे में अपना गला काट लिया. इतना बड़ा सिपाहसालार, जिसने भारत की सत्ता को अंग्रेजों के कदमों में डाल दिया, खुद पागलों की तरह मरा. एक अंग्रेजी इतिहासकार ने तो उसको ‘अनस्टेबल साइकोपैथ’ तक लिख डाला था.

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पाकिस्तान बनाने के लिए सबसे ज्यादा माउंटबेटन जिम्मेदार

तमाम लोग हैं जो भारत की आजादी के समय के गर्वनर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नी एडविना की तारीफों के पुल आज भी बांधते हैं. लेकिन समय के साथ ये भी खुलासा हुआ था कि कभी चर्चिल ने जो प्लान बनाया था कि कैसे सोवियत संघ और भारत के बीच एक बफर स्टेट होना चाहिए, इसलिए पाकिस्तान बनाने के लिए अंग्रेजों ने सीक्रेट योजना बनाई थी, को ही माउंटबेटन ने बढ़ावा दिया था. पाकिस्तान बनाने के लिए सबसे ज्यादा माउंटबेटन जिम्मेदार था.

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नफरत करने वालों की भी कमी नहीं

माउंटबेटन से नफरत करने वालों की भी कमी नहीं. कभी भारत की सीमाएं सोवियत संघ के तजाकिस्तान से लगती थीं, लेकिन अब बीच में पाकिस्तान है. माउंटबेटन से नेहरूजी की दोस्ती, खासतौर पर उनकी पत्नी एडविना से, के कई किस्से सोशल मीडिया पर मिल जाते हैं.

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अपनी पत्नी का भी इस्तेमाल किया

 देश के करोड़ों लोग आज भी मानते हैं कि अखंड भारत का सपना तोड़ने के लिए माउंटबेटन से ज्यादा जिम्मेदार कोई नहीं था और इसमें उसने अपनी पत्नी का भी इस्तेमाल किया.  लेकिन बाद में माउंटबेटन के साथ जो हुआ, वो वाकई में खौफनाक था. 27 अगस्त 1979 की बात है, तब माउंटबेटन की उम्र भी 79 साल की हो चुकी थी. 

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बम कांड में माउंटबेटन की मौत

माउंटबेटन अपने समर वैकेशन होम की यात्रा पर थे, जो आयरलैंड में है. आयरलैंड की आइरिश रिपब्लिक आर्मी (आईआरए) भी इंग्लैंड की साम्राज्यवाद की नीतियों की विरोधी थी, माउंटबेटन को मार कर आईआरए के क्रांतिकारी एक संदश ब्रिटिश सरकार को देना चाहते थे. माउंटबेटन की 30 फुट की बोट किनारे पहुंचने ही वाली थी कि एक भयानक विस्फोट हुआ, किनारे तक लाते लाते घायल माउंटबेटन की मौत हो गई. उस बम कांड में माउंटबेटन के 2 बेटे, एक बेटी और दामाद व अन्य कई लोगों की मौत हो गई थी.

 

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पाकिस्तान नाम देने वाले रहमत अली की अंतिम समय में हुई बेकदरी

पाकिस्तान नाम आज भारत के लिए नासूर बना रहता है, भारत में आतंकियों को भेजने के अलावा उनके पास और कोई काम नहीं है ऐसा लगता है, कभी जो हमारा ही हिस्सा था. यूं पाकिस्तान के लिए जिन्ना और उसकी पार्टी मुस्लिम लीग को जिम्मेदार माना जाता है. लेकिन पाकिस्तान नाम जिस चौधरी रहमत अली ने दिया था, उसके साथ पाकिस्तान में ही बहुत बुरा हाल हुआ था, ये कम लोग जानते हैं. वो कैम्ब्रिज का छात्र था, पंजाब के होशियारपुर में पैदा हुआ था. 1933 में जब आखिरी गोलमेज सम्मेलन लंदन में हुआ था, तो उसने ब्रिटिश सरकार और भारतीय प्रतिनिधियों के लिए एक पर्चा तैयार किया, नाम रखा- ‘नाउ और नेवर’. इस पर्चे में पहली बार ‘पाकिस्तान’ (PAKISTAN) शब्द का इस्तेमाल हुआ था. पी से पंजाब, ए से अफगान प्रांत (नॉर्थ वेस्ट फ्रंटीयर प्रोविंस), के से कश्मीर, एस से सिंधु और टीएएन बलूचिस्तान के लिए. बाद में 6 साल बाद मुस्लिम लीग और जिन्ना ने इसे अपना लिया. लेकिन जब पाकिस्तान बना तो रहमत अली खान पाकिस्तान को ऐसे टुकड़ों में देखकर खुश नहीं था, उसने जिन्ना की आलोचना लंदन से ही करनी शुरू कर दी.

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भारी बदनामी और बेइज्जती सहनी पड़ी

रहमत अली ने बाद में सोचा कि जिस देश का नाम उसने दिया है, अगर वो वहां जाकर रहेगा तो लोग उसकी काफी इज्जत करेंगे. रहमत अप्रैल 1948 में पाकिस्तान गया भी, लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली ने उसकी काफी बेइज्जती की, उसका सारा सामान छीन लिया, उसको पाकिस्तान में भारी बदनामी और बेइज्जती सहनी पड़ी. आखिरकार वो बेआबरू होकर अपने सपनों के देश पाकिस्तान से लौटकर लंदन वापस आ गया. लेकिन उसको गहरा सदमा लगा था, क्योंकि लंदन में भी लोग उसका काफी मजाक उड़ा रहे थे. उसने खुद को घर में ही बंद कर लिया, अब उसके पास पैसे भी नहीं बचे थे, सारा कुछ बेचकर लंदन से पाकिस्तान गया था, वहां सब उससे छीन लिया गया. 1951 में उसकी लंदन के कैम्ब्रिज में ही मौत हो गई. 17 दिन बाद कैम्ब्रिज के ही इमेन्युअल कॉलेज ने उसे अपने खर्चे पर कैम्ब्रिज सिटी सीमेट्री में दफना दिया. कहा जाता है कि बाद में ये खर्चा चुपचाप पाकिस्तानी सरकार ने भिजवा दिया था. लेकिन क्या सोचा था रहमत अली ने और क्या मिला उसको पूरा जीवन पाकिस्तान के मिशन में लगने के बाद?

 

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भारतीय हीरे के शाप से मिली थी टैवर्नियर को बुरी मौत?

आपने भी इतिहास की किताबों में टैवर्नियर के बारे में पढ़ा होगा, वो फ्रांसीसी यात्री जो जहांगीर के शासनकाल में भारत आया था. टैवर्नियर हीरों का व्यापारी था, हालांकि भारतीय किताबों में उसे यात्री के तौर पर उस दौर की घटनाओं को जानने के श्रोत के तौर पर दर्ज किया गया है. उसकी किताबों से उस वक्त की अच्छी जानकारी मिलती है. लेकिन उसी टैवर्नियर को लेकर हॉलीवुड में एक मूवी 1953 में बनाई गई, ‘द डायमंड क्वीन’, जो भारत के गोलकुंडा की खान से निकले हीरो ‘होप’ के बारे में थी, जिसे टैवर्नियर ने कटवा कर ‘टैवर्नियर ब्ल्यू’ नाम दिया था. इस मूवी में दिखाया गया था कि कैसे इस शापित हीरे के चलते दुनिया भर में ना जाने कितने मशहूर लोग बुरी मौत मरे थे, इनमे टैवर्नियर की मौत भी शामिल थी. 

 

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जंगली कुत्तों ने नोंच नोंच कर मार डाला

84 साल की उम्र में टैवर्नियर को जंगली कुत्तों ने नोंच नोंच कर मार डाला था. टैवर्नियर पर आरोप है कि भारत के कई मशहूर हीरों को तो उसने खरीदा था, लेकिन कई हीरे वो चुराकर भारत से ले गया था. जब वो सारी सम्पदा लेकर फ्रांस के राजा के पास पहुंचा, तो बदले में कहा जाता है कि उसे 500 किलो सोना मिला था. 

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बुरी मौत से बचाने में सम्पदा काम नहीं आई

लेकिन बुरी मौत से बचाने में उसकी ये बड़ी सम्पदा काम नहीं आई. दुनिया भर के जो मशहूर बड़े हीरे हैं, उनमें से ज्यादातर भारत की गोलकुंडा खान से निकले हैं और माना जाता है कि इनमें से अधिकतर को भारत से बाहर ले जाने वाला टैवर्नियर ही था.

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जलियांवाला बाग कांड के दोनों डायर हुए अकाल मौत के शिकार

जलियांवाला बाग कांड की क्रूर यादें आज पीढ़ियों बाद भी लोगों के दिलों में जिदा हैं, लोग भूले नहीं हैं जनरल रेगिनाल्ड डायर की उस क्रूरता को, जिसमें ना जाने कितने लोग तो जान बचाने के लिए कुंए में कूद गए थे, लेकिन मौत ने वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा. लेकिन लोगों को कम ही इस बात का पता है कि इस क्रूर कांड का आदेश देने वाले जनरल डायर को भगवान ने उसकी सजा केवल 8 साल के अंदर ही दे दी थी, दर्दनाक मौत देकर. जब जनरल डायर जलियांवाला बाग हत्याकांड के अगले साल ही लंदन चला गया तो रिटायरमेंट की लाइफ गुजारने लगा. 

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पैरालिसिस अटैक में आवाज ही चली गई

लंदन में उसके खिलाफ जांच बैठाई गई तो रुडयार्ड किपलिंग जैसे लेखक खुलकर उसके समर्थन में फंड इकट्ठा करने लगे. यहां तक सिखों के कुछ नेताओं को भी डायर ने अपने पाले में ले लिया, लेकिन कुदरत को तो सजा देनी थी. उसको कई तरह के ब्रेन स्ट्रोक पड़ने लगे, उसके शरीर का एक हिस्सा बिलकुल बेकार हो गया, एक पैरालिसिस अटैक में तो उसकी आवाज ही चली गई. महीनों तक वो एक कमरे में अकेला पड़ा रहा, दोस्तों ने भी दूरियां बना लीं. महीनों तक दर्द से तड़पता रहा वो और 23 जुलाई 1927 को उसकी मौत हो गई.

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ऊधम सिंह ने गोलियों से भून डाला

एक और डायर था पंजाब का उस वक्त का लेफ्टिनेंट गर्वनर माइकल ओ डायर. उसी ने जनरल डायर को बचाने में काफी अहम भूमिका निभाई थी. पंजाब के क्रांतिकारी ऊधम सिंह ने 13 मार्च 1940 को उसे लंदन में ही जाकर गोलियों से भून डाला. इस तरह जलियांवाला बाग के दोनों अपराधियों को अकाल मौत मिली.

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