जयंती विशेष: भगत सिंह को तो जानते हो, आज का दिन राजगुरु का है, जानें उनकी अनसुनी बातें
चंद्रशेखर आजाद के अलावा क्रांतिकारियों के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआए) में दूसरा शानदार शूटर था, तो वो थे शिवराम राजगुरु.
मां क्यों कहती थी उन्हें ‘बापू साहेब
उसी साल यानी 1908 में खुदीराम बोस को फांसी की सजा हुई थी, तो राजगुरु के विचार सुनकर लोग कहते थे कि उनके अंदर खुदीराम बोस की आत्मा घुस गई है. जब वो छोटे थे उनके पुणे के पास उनकी कस्बे तालुका खेड, जिसे आज राजगुरु नगर के नाम से जाना जाता है, के पास भीमा नदी पर बना एक पुराना पुल धंसने लगा था. लोग कहने लगे थे कि इसको बचाने के लिए किसी बच्चे की बलि देनी होगी, सो सारी मांएं उन दिनों डर के मारे अपने बच्चों को आंखों से ओझल नहीं होने देती थीं. एक दिन उनकी मां ने देखा कि एक साधू उनके बेटे को काफी देर से मोहमग्न होकर देख रहा था, वो डर गईं, साधु के पास जाकर पूछा महाराज से घूरने की वजह पूछी. साधु ने शांत स्वर में मुस्कराकर कहा, ‘देवी, आपके बालक पर काशी विश्वनाथ की असीम कृपा होगी. ये महान कार्य करने के लिए पैदा हुआ है, ये कोई साधारण बच्चा नहीं है.' उनकी मां ने उसी दिन से बेटे का नाम लेने के बजाय उसको ‘बापू साहेब’ कहना शुरू कर दिया.
शंकराचार्य ने सिखाया शुद्धि के लिए व्रत करना
इधर मां की मौत के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई दिनकर के कंधों पर थी, जो 10वीं में पढ़ रहा था, राजगुरु 6 साल के थे. दिनकर को पुणे के राजस्व विभाग में नौकरी मिल गई, वो शादी के बाद वहीं चला गया. इधर उनके कस्बे में एक बार जगदगुरु शंकराचार्य आए, उन्हीं के पुरखों के बनवाए विष्णु मंदिर में रुके. शिवराम उनके भक्त बन गए रोज जाने लगे, एक बार उनके कहने पर शिवराम ने शारीरिक, मानसिक शुद्धि के लिए पांच दिनों का निर्जला व्रत किया, ये उनका पहला अनुभव था, पांच दिनों तक न खाना और न पानी. बाद में लाहौर जेल मे जो भूख हड़ताल की और काशी में जो गुरबत के दिन बताए, उसमे भी काम आया.
लोकमान्य तिलक ने पहनाई उनके गले में माला
एक बार उनके कस्बे में लोकमान्य तिलक की सभा हुई, किसी भी तरह सबसे आगे जाकर शिवराम ने उनका पूरा भाषण सुना. देश के लिए कुछ करने की उनकी इच्छा और बलवती हो गई थी. तब वह कक्षा 3 में ही पढ़ते थे. अगले ही दिन उनको पता चला कि तिलक तो उनके कस्बे में ही शंकर राव दीक्षित के यहां रुके हैं, वो फौरन जा पहुंचे. इतनी भीड़ इंतजार में खड़ी थी, लेकिन सबको चीरते हुए सीधे घर में घुस गए और जा पहुंचे तिलक के कमरे में बेधड़क और जाते ही तिलक के पैर छू लिए. तिलक तो उस बच्चे का साहस और अंदाज देखकर हैरान थे, फौरन एक माला उठाई और शिवराम के गले में डाल दी और कहा, ‘शिवराम जैसे साहसी बच्चों के होते हुए स्वराज का लक्ष्य अब ज्यादा दूर नहीं है’. लेकिन जब वही माला पहने वो अपने घर गए, तो अंग्रेजी सरकार का मुलाजिम उनका भाई दिनकर नाराज हो गया, और उसके गले से वो माला तोड़कर फेंक दी और पढ़ाई पर ध्यान लगाने को कहा.
संस्कृत और अंग्रेजी की लड़ाई में छोड़ दिया घर
फिर भाई के पास पुणे आए गए, न्यू इंग्लिश हाई स्कूल मे पढ़ने के लिए, भाई अंग्रेजी सीखने को जोर देता था और शिवराम संस्कृत के ग्रंथ पढ़ने में मन लगाते थे, संस्कृत में उनके अंक भी अच्छे आते थे. शिवराम भाई को साफ कह देते थे कि जब मुझे अंग्रेजी सरकार की नौकरी करनी ही नहीं है तो अंग्रेजी क्यों सीखूं? वो कहते थे ये म्लेच्छों की की भाषा है. एक दिन 1924 में जब शिवराम 16 साल के थे, उनका स्कूल की परीक्षाओं के नतीजे आए, अंग्रेजी में उनके अंक कम थे, दिनकर बिगड़ गया. फिर कुछ अंग्रेजी के वाक्य उसकी भाभी के सामने शिवराम को दोहराने के आदेश दिया, नहीं तो घर से निकल जाने को कहा. शिवराम को ये नागवार गुजरा और फौरन भाई भाभी के पैर छूकर घर छोड़ दिया, एक धोती, एक टोपी और एक शर्ट के साथ. जेब में थे बस 3 आना.
काशी विश्वनाथ की शरण
फिर कई मंदिरों मे रुकते हुए नासिक पहुंचे, नासिक में कुछ दिन संस्कृत पढ़ी, वहां से झांसी पहुंचे, रानी लक्ष्मीबाई के किले पर उनको श्रद्धांजलि दी, उनको वो बहुत मानते थे. वहां एकनाथ सदाशिव गोरे ने संस्कृत की शिक्षा के लिए उन्हें काशी जाने की सलाह दी, वहां से वो काशी निकल गए. सबसे पहले काशी विश्वनाथ के दर्शन किए, रात एक घाट पर गुजारी, वहां एक पैसा पड़ा मिल गया, उससे खाना खाया. वहां अहिल्या आश्रम में उनके एक परिचित थे, वहीं रुक गए. एक स्कूल संगवेद संस्कृत स्कूल में पढ़ाई शुरू कर दी. ढाई साल तक वहां संस्कृत पढ़ी, भाई को एक चिट्ठी लिखी और बताया कि काशी में हूं. भाई ने पांच रुपए महीने के भेजने शुरू कर दिए. लेकिन उससे खर्च नहीं चलता था, तो कभी ट्यूशन पढ़ाकर कभी किसी और की मदद से अपने बाकी खर्च निकाले, एक बार तो पूरे 21 दिन नीम की पत्तियां, अंकुरित गेहूं और पानी पीकर गुजारने पड़े.
सावरकर के भाई से मुलाकात
एक बार जब वो सूर्य नमस्कार कर रहे थे, तो मराठी स्टाइल में उनको संस्कृत श्लोक पढ़ते देख एक लड़का उनके पास आया, दोनों मित्र बन गए, नाम था श्रीराम बलबंत सावरगांवकर. दोनों ने मिलकर ‘गीवर्ण वागवर्धिनी सभा’ नाम से एक संस्था भी खोली, जिसके जरिए केवल संस्कृत को प्रोत्साहन दिया जाता था. उन्हीं दिनों शिवराम ने कुश्ती और तीरंदाजी सीखी, तैराक तो पहले से थे. बाद में सावरगांवकर के जरिए क्रांतिकारियों से उनकी मुलाकात हुई. उन दिनों वीर सावरकर के भाई बाबा राव सावरकर अपने इलाज और अभिनव भारत संगठन के लिए क्रांतिकारियों की गुपचुप भर्ती के लिए काशी आए थे, उनसे भी मिले. सावरकर ने उन्हें अमरावती जाकर हनुमान व्यापम प्रसारक मंडल में तंत्रशुद्धि क्रिया सीखने के लिए कहा.
अंग्रेज को पीटा तो बन गए आजाद के चहेते
सावरगांवकर ने ही उन्हें चंद्रशेखर आजाद व बाकी क्रांतिकारियों से मिलवाया. एक दिन आजाद के दल के साथी वैशम्पायन क्रांतिकारियों की भर्ती के लिए काशी आए थे, पार्क में उनकी सीट पर जबरन एक अंग्रेज ने बैठने की कोशिश की तो गुस्से में राजगुरु ने उसको पीट दिया. उसके बाद तो आजाद, भगत सिंह के दल में उनकी मजबूत जगह बनती चली गई, उनकी शूटिंग स्किल्स और निशाना देखकर हर कोई हैरान था, उनको टाइटल दिया गया था ‘द गनमैन ऑफ एचएसआरए’, धीरे धीरे वो आजाद के चहेते बन गए. सांडर्स की हत्या के काम को अंजाम देने में भी वो साथ थे. लेकिन मारना स्कॉट को था भगत सिंह ने सांडर्स पर गोली चला दी. फिर आजाद के मना करने के बावजूद वही पिस्तौल लेकर सेंट्रल असेम्बली चले गए और उसी पिस्तौल से फायर कर दिया. नतीजा ये हुआ कि तीनों को सांडर्स हत्याकांड में फांसी की सजा सुनाई गई.
RSS प्रमुख डा. के बी हेडगेवार ने दी नागपुर में शरण
सांडर्स की हत्या के बाद राजगुरु अमरावती, नागपुर जैसे कई इलाकों में छुपते रहे, इसी दौरान नागपुर में उनके छुपने की व्यवस्था राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के एक कार्यकर्ता के घर डा. केबी हेडगेवार ने करवाई, वो उनसे मिले भी थे. राजगुरु की बायोग्राफी ‘राजगुरु द इन्विसिविल रिवोल्यूशनरी’ के लेखक अनिल वर्मा ने इसका उल्लेख किताब में किया है. दरअसल हेडगेवार न केवल क्रांतिकारियों के संगठन अनुशीलन समिति से जुड़े रहे थे बल्कि कांग्रेस में भी रहे थे. तिलक भी इसी तरह छुप छुपकर क्रांतिकारियों की मदद करते थे.
वैसे भी तिलक, बाबा राव सावरकर और हेडगेवार जैसे लोगों का प्राचीन परम्पराओं, संस्कृत भाषा समेत बाकी भारतीय भाषाओं से प्रेम जगजाहिर था, ऐसे में शिवराम राजगुरु जो संस्कृत पढ़ने के लिए घर छोड़कर चले गए थे का वैदिक ज्ञान उनके लिए चर्चा का विषय था. कहा तो ये तक जाता है कि सांडर्स केस की सुनवाई के दौरान वो अंग्रेज जज को संस्कृत में जवाब दे देकर परेशान कर देते थे और हंसते हुए भगत सिंह को कहते थे कि इसका अनुवाद कर दो.