डॉ. गजादान चारण : टाटा आईपीएल, 2023 का सजीव प्रसारण देखने हेतु जैसे ही Jio TV खोला तो वहां भाषा-चयन का एक विकल्प दिखाई दिया. लिखा था ‘‘अपनी पसंद की भाषा में सुनिए IPL कॉमेंट्री.’’ जैसे ही विकल्प चुनने हेतु क्लिक किया तो एक साथ 12 भाषाओं के नाम सामने आए-अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम, भोजपुरी, बंगाली, पंजाबी एवं ओडिया. अपने हर मुकाबले के साथ और अधिक रोमांचकारी होता जा रहा है. क्रिकेट-प्रेमी अपनी-अपनी पसंद की टीमों एवं खिलाड़ियों के साथ अपनी भावनाएं जोड़कर एक-एक पल का आनंद ले रहे हैं. क्रिकेट की दीवानगी हमारे देश के आबालवृद्ध सबके सिर चढ़कर बोलती है, ऐसे में इस बार आईपीएल-आयोजकों ने अपनी-अपनी पसंद की भाषा में मैच का सजीव प्रसारण सुन कर चौगुना आनंद ले रहे हैं.


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उपयुर्क्त 12 भाषाओं में मेरी पसंद की, मेरी अपनी मातृभाषा राजस्थानी का नाम नहीं देख कर मन मायूस हुआ. एक बार के लिए सोचा कि मेरी मातृभाषा को ना संविधान द्वारा मान्यता है, ना राज्य सरकार द्वारा, अतः उसमें कॉमेंट्री कैसे हो सकती है किंतु अगले ही पल विचार आया कि ये दोनों मान्यताएं तो भोजपुरी को भी नहीं है. फिर भोजपुरी में कॉमेंट्री कैसे? ऐसा क्या है भोजपुरी में या भोजपुरी बोलने वालों में, जो राजस्थानी या राजस्थानी बोलने वालों में नहीं है? यह जानने के लिए भोजपुरी का विकल्प चयन करके कॉमेंट्री सुनना शुरु किया-आवाज आई ‘‘जिया जवान जिया, लही गइल-लही गइल, हई देखल धोनी के छक्का, भइया ये प्लेयर हवे के चीता हवे हो. चीता ते तेज दौरत है.’’ आवाज थी वर्तमान में गोरखपुर से सांसद एवं ख्यातनाम भोजपुरी कलाकार रविकिशन की. क्रिकेटर शिवमसिंह तथा सांसद रविकिशन के मुंह से अपनी मायड़भाषा भोजपुरी सुनकर भोजपुरी भाषाभाषी लोगों ने सोशल मीडिया पर इसे जमकर सराहा. लाइक, कमेंट एवं Jio TV के इस कदम की सराहना करते हुए भोजपुरी भाषाभाषियों ने अपनी मातृभाषा के प्रति सच्चे प्रेम का पुष्ट परिचय दिया है. चिंतन का विषय यह है कि आखिर आईपीएल आयोजन एवं प्रसारण मंडल को भोजपुरी में ऐसा क्या दिखाई दिया कि उन्होंने भोजपुरी कॉमेंट्री को सहर्ष सहमति दी.


क्या ऐसा राजस्थानी में नहीं हो सकता था? क्या राजस्थानी भाषा के पास वो भाषिक-ताकत नहीं है, जिसके माध्यम से क्रिकेट जैसे रोमांचक मुकाबलों का लाइव-टेलिकास्ट किया जा सके? यदि निरपेक्ष दृष्टि से देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसा तो बिल्कुल नहीं है. राजस्थानी तो वो भाषा है, जिसमें बड़े-बड़े युद्धों का सजीव-प्रसारण हुआ है और इस अंदाज में हुआ है कि, सदियों बाद भी पढ़ने वाले के सामने वह परिदृश्य जीवंत रूप में उभर आता है. विषय एवं वर्णन के अनुरूप छंद का चयन कर साहित्यसाधकों ने जिस तरह से युद्ध का चित्रण किया है, वह सुधी पाठक को आह्लादित करने वाला है. एक उदाहरण देखिए-
दुव सेन उदग्गन, खग्ग समग्गन, अग्ग तुरग्गन बग्ग लई।
मचि रंग उतंगन, दंग मतंगन, सज्जि रनंगन जंग जई।।


इसे गद्य रूप में प्रस्तुत करें तो कहेंगे कि "सालमसिंह एवं बुद्धसिंह दोनों की सेनाएं एक-दूसरे से भिड़ने को उद्विग्न है. सभी यौद्धा तलवारें ताने हुए हैं. देखते ही देखते क्षिप्र गति से अश्वारोही अग्रिम पंक्ति में आ गए हैं. स्वयं को सामने वाले से श्रेष्ठ  साबित करने हेतु तत्पर युद्धरत वीरों के मुखमंडल क्रोध के कारण सूर्य की भाँति लाल हो गए, युद्ध भूमि में हाथियों की ठेलमपेल ऐसी, जिसे देखकर ऐरावत भी विस्मित हो जाए, दोनों सेनाएं रणांगन में भयंकर युद्ध में जुट गईं.
इससे सिद्ध होता है कि शब्द संपदा, संप्रेषणीयता एवं उक्ति की युक्ति के दृष्टिकोण से तो राजस्थानी में कोई कमी नहीं है. 


दूसरा प्रश्न उठता है क्या हमारे किसी सांसद को रविकिशन की तरह अपनी मातृभाषा बोलनी नहीं आती? क्या शिवमसिंह की भांति हमारे किसी क्रिकेटर को अपनी मातृभाषा नहीं आती? छोड़िए सांसद एवं क्रिकेटर को! राजस्थानी में तो ऐसे-ऐसे धुरंधर कलमकार बैठे हैं, जिन्होंने कविता, कहानी, रिपोर्ताज से लेकर नाटक एवं अभिनय सहित सभी विधाओं में दिए जाने वाले शिखर पुरस्कार अपने नाम किए हैं, क्या उनमें से कोई ऐसी पहल नहीं कर सकता? क्या हमारे राजस्थान एवं राजस्थानी से जुड़ी सरकारी-गैरसरकारी संस्थाएं एवं उनके पदाधिकारी मात्र पुरस्कार देने एवं लेने के लिए ही हैं या वे भी ऐसी कोई पहल कर सकती/सकते हैं? क्या ये संस्थाएं कोई नवीन पहल करती ही नहीं है? शायद ऐसा तो नहीं है. यह चिंतन एवं चिंता आप पाठकों पर छोड़ता हूँ.


अगली बात देखें तो वस्तुतः बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोगों को उनके घर जैसा माहौल देने हेतु उनकी मातृभाषा भोजपुरी में कॉमेंट्री की शुरुआत की गई है. इस शुरुआत में वहां की आम जनता का योगदान भी कम नहीं आंका जा सकता. क्या हमारी मायड़भाषा को बोलने वाली सामान्य जनता इस दृष्टि से जागरूक है? नहीं है तो कब होंगी? कौन करेगा? कब करेगा? यह भी चिंतनीय है.
भाषा की मान्यता मात्र सरकार या सरकार से जुड़ीं संस्थाओं की पहल के भरोसे मिल पाना कहां संभव होगा. आज हमारी राजस्थानी को केंद्रीय साहित्य अकादेमी, यूजीसी नेट सहित  देश एवं देश के बाहर शोध के क्षेत्र में मान्यता है तो उसमें कुछ समर्पित भाषा प्रेमियों का योगदान रहा है, जो अपनी भाषा के सामने अन्य किसी वैचारिकता को बड़ा नहीं मानते थे. लगता है हमारी युवा पीढ़ी को भोजपुरी वालों की तरह आईपीएल हो या फ़िल्म का क्षेत्र सब जगह दखल बनानी होगी, नवीन पहल करनी होगी. इसी से भाषा एवं भाषा के संस्कार बचे रह सकते हैं और इसी माध्यम से असली आनंद को बचा सकेंगे. अस्तु!


लेखक के बारे में


डॉ. गजादान चारण 'शक्तिसुत'
सह-आचार्य एवं अध्यक्ष- हिंदी विभाग
जीएचएस राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़