Rajasthan Culture | Sharad Poornima : चित्तौड़गढ़ शहर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ घोसुण्डा गांव में शरद पूर्णिमा के दिन आज भी भगवान कान्हा को ढूंढा जाता है. कारण यह है कि भगवान ने 450 साल पहले एक भगत (काबरा) परिवार को दर्शन देकर हर साल इसी गांव में आने का वचन दिया था. यहां उन्हीं के आने का जश्न मनाने के लिए तीन दिन का लालाजी-कानजी के नाम का मेला भरता है और उनकी दी हुई निशानी मुकुट को सिर्फ इन्हीं तीन दिनों में दर्शन के लिए निकाला जाता है.


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भगवान कृष्ण ने ली थी परीक्षा


घोसुण्डा गांव में रहने वाले भगत परिवार के राजेश काबरा ने बताया कि 450 साल पहले उनके पूर्वज गोवर्धन दास भगत भगवान कृष्ण के भक्त थे और लोगों की सेवा भी किया करते थे. उन्होंने कभी भी किसी के बीच में भेदभाव नहीं किया. वे काफी गरीब भी थे. माना जाता है कि उनकी परीक्षा लेने के लिए भगवान कोड़ी साधु के रूप में आए. गांव के लोगों ने कोड़ी साधु को देखकर दूर भगाया और गोवर्धन दास के पास भेज दिया. गोवर्धन दास ने साधु को देखकर दूर नहीं भगाया बल्कि उनकी सेवा की. साधु ने जब खाने के लिए भोजन मांगा तो गोवर्धन दास और उनकी पत्नी के पास कुछ नहीं था. उन्होंने कढ़ी और जौ की रोटी खिलाई. रात को सोने की जगह मांगी तो दंपति ने अपनी छोटी सी कुटिया उनको दे दी. इस बात से भगवान इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने बाल स्वरूप और चतुर्भुज स्वरूप में अपने दर्शन दिए.


हर साल गांव में आने का दिया वचन 


यह बात अगर गोवर्धन दास गांव वालों को बताएंगे तो उनका सब मजाक उड़ाएंगे इसलिए भगवान ने दर्शन के साथ ही उन्होंने निशानी के तौर पर अपना मोर पंख वाला मुकुट उन्हें सौंप कर गए. वो शरद पूर्णिमा का दिन ही था. गोवर्धन दास ने भगवान से पूरे गांव को दर्शन देने की विनती की. इस पर भगवान ने हर साल इसी दिन गांव में आने का वचन दिया था. इसलिए यहां गांव में तीन दिवसीय लालाजी-कानजी के नाम का मेला लगता है.


शरद पूर्णिमा के दिन दर्शन के लिए रखा जाता है मुकुट 


मुकुट को भगत परिवार ने संभाल कर रख रखा है. जिस जगह भगवान जी आए थे, उसी जगह पर एक छोटा सा मंदिर भी है, जो भगत परिवार के घर के अंदर है. मुकुट को शरद पूर्णिमा से एक दिन पहले निकाला जाता है और बाल स्वरूप को धारण करवाया जाता है. लेकिन शरद पूर्णिमा के दिन ही उसे मंदिर से बाहर निकालकर घर के बाहर चौक पर रखा जाता है, जहां सभी गांव वाले आकर दर्शन करते हैं. यहां दर्शन के लिए लगभग 50 से 60 गांव के लोग आते हैं. शरद पूर्णिमा से पहले के दिन रात को गांव वाले लगभग 10 से 12 किलोमीटर तक भगवान को ढूंढने के लिए गांव में घूमते हैं, ताकि उन्हें भगवान नजर आ जाए.


पूजारी गोवर्धन सुखवाल ने बताया कि मेले के पहले दिन नरसिम्हा, वराह और नारद की लीलाओं का मंचन होता है. दूसरे दिन कृष्ण-बलराम का वेश धारण कर जुलूस निकाला जाता है. तालाब की पाल तक ले जाकर 16 मटको की नांव पर सवार होकर भगवान जी को झूला झुलाया जाता है. उसके बाद गेंद लीला की जाती है. शाम को 7 बजे भगवान जी को घर लाया जाता है और 10 बजे रासलीला का आयोजन होता है. तीसरे दिन भजन संध्या का भी आयोजन होता है.


बनाई जाती है जो की बाटी


इन 3 दिनों में सभी समाज मिलकर अपना अपना काम करते हैं. जैसे ब्राह्मण समाज पूजा पाठ का ध्यान रखता है, सुथार समाज लकड़ी से जुड़ी हुई हर काम करता है, भोई समाज नाव बनाने और झूला झुलाने का काम करता है. इसी तरह सभी समाज ने अपनी-अपनी जिम्मेदारी ले रखी है. उन्होंने कहा कि भगत परिवार के पूर्वज ने कभी भी किसी भी व्यक्ति के किसी भी रूप को रुप से घृणा नहीं की जबकि बाकी और ने भगवान जी की कदर नहीं की, इसलिए भगवान जी से इनके घर ही पधारे. इन 3 दिनों में आज भी जो की बाटी बनाई जाती है. घर की महिलाएं मांगी देवी (75) अनोख कुंवर (60), सीमा (41), अंजू (40), श्वेता (35) मिलकर सुबह-शाम ठाकुर जी की सेवा करते हैं.


3 दिन का यह मेला तंग गली के एक किलोमीटर तक लगता है लेकिन इसमें भी 200 से 250 दुकानें सज जाती है. आसपास के 50 से 60 गांव के लोग यहां मेले में आते हैं. सबसे ज्यादा जलेबी की दुकानें है. लोगों का कहना है कि मात्र 4 से 5 घंटे में ही सभी दुकानों की जलेबी खत्म हो जाती है. यहां लगने वाले झूला चकरी की इन 3 दिनों में इतनी इनकम होती है जितनी साल भर में भी नहीं होती.


Reporter- Deepak Vyas


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