Dungarpur Unique Holi : होली का पर्व वागड़वासियों के लिए एक महत्वपूर्ण त्यौहार माना जाता है. होली के रंग में वागड़वासी एक महीने तक रंगे रहते है साथ ही सदियों से चली आ रही कुछ खास परंपराओं का भी निर्वहन करते है. होली के पर्व के तहत जिले के कोकापुर गाँव में दहकते अंगारों पर चलने की परम्परा के साथ भीलूडा में पत्थर मार खुनी होली खेली जाती है. वहीं देवल व जेठाना गाँव में गेर खेलने की परम्परा होली के त्यौहार को अलग ढंग से पेश करती है .
प्रदेश में होली पर अलग-अलग रंग देखने के साथ अनूठी परम्पराओं का निर्वहन किया जाता है. उसी के तहत प्रदेश के आदिवासी बहुल डूंगरपुर जिले में भी होली पर अलग-अलग परम्पराओं का निर्वहन सदियों से लोग करते आ रहे है.


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दहकते अंगारे पर करते है चहलकदमी


उन्ही परंपराओं में से एक परंपरा है दहकते अंगारों पर चहलकदमी करने की सुनकर व देखकर आश्चर्य जरूर लगे लेकिन वाकई में डूंगरपुर जिले के कोकापुर गांव में होली के अवसर पर जलती होलिका पर चलने की परंपरा है जो अपने आप में क्षेत्र का अनोखा आयोजन है. परंपरानुसार सैकड़ो ग्रामीणजनों की मौजूदगी में होलिका दहन के दूसरे दिन अलसुबह कई लोग होलिका स्थल पर पहुचंते है और जलती होली के दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलकर प्राचीन मान्यताओं और लोक परंपराओं का निर्वहन कर उत्सवी श्रद्धा का इजहार करते है. गाँव मे मान्यता है कि होलिका दहन से बाद दहकते अंगारों पर चहलकदमी करने से गाँव पर कोई विपदा नहीं आती और गांववासियों का स्वस्थ्य भी ठीक रहता है . इस परम्परा को देखने हाजारो की संख्या में आस पास के क्षैत्र से लोग कोकापुर गांव आते है वही हजारो साल से ग्रामीण इस परम्परा को निभाते आ रहे है ओर कोई भी अनहोनी नही हुई है.


भीलूडा में खेली जाती है खुनी होली


देश में होली का त्यौहारो लाल-पिले रंगो से खेला जाता है. वही डूंगरपुर जिले के भीलूडा गांव में पिछले 200 सालों से धुलंडी पर खुनी होली खेलने की परम्परा है. देशभर में यही एकमात्र क्षेत्र है जहां बरसाने की लट्ठमार होली से भी खतरनाक पत्थरमार होली खेली जाती है. होली पर्व पर रंगों के स्थान पर पत्थर बरसा कर खून बहाने को भी शगुन मानने का अनोखा आयोजन होता है, जिसे स्थानीय बोली में पत्थरो की राड़ कहा जाता है. इस परंपरा में भीलूड़ा व आसपास के गांवों से आये लगभग 400 लोग प्रतिभागी के रूप में स्थानीय रघुनाथ मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं. जैसे ही यह खेल शुरू होता है वैसे ही हाथों में पत्थर, गोफन और ढाल लिये ये लोग दो टोलियों में बंट जाते है और होरिया के चीत्कार लगाते हुए एक- दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देते हैं.


पत्थरों की बारिश और बचाव करते दोनो पक्षों को देखकर करीब एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्रा में सुरक्षित ऊॅंची जगहों पर दर्शक रूप में जमा हजारों लोगों का समूह बेहद रोमांचित हो जाता है. दूर-दूर से आमने-सामने पत्थर फेंकते दोनों समूहों के प्रतिभागियों के पास कुछ ढाले भी होती हैं जो प्रतिपक्ष से आने वाले पत्थरों की बौछारों को रोकती हैं. चोट लगने और खून बहने पर दोनों पक्षों के प्रतिभागी विचलित नहीं होते बल्कि इसे आगामी वर्ष के लिये शुभ संकेत मानकर दुगुने उत्साह के साथ खेलने में लग जाते हैं. दूसरी ओर कुछ लोग गंभीर रूप से घायल प्रतिभागियों को इलाज के लिए पास ही स्थित अस्पताल ले जाते हैं. अस्पताल में डाक्टरों का एक दल विशेष रूप से इस खेल के लिये ही तैनात रहता है.


वेदकालीन भारतीय संस्कृति में विविध त्यौहारों को अनोखी परंपराओं के साथ मनाने की परिपाटी ने प्राचीन काल से ही देशी-विदेशी जनों को बेहद आकर्षित किया है. हर एक त्यौहार को मनाने की अलग अनोखी परिपाटी प्राचीन काल से ही भारतवर्ष की विशेषता रही है, ऐसे में यदि मौजमस्ती और हास्य व्यंग्य का मनमौजी त्यौहार होली हो तो बात कुछ अलग ही हो जाती है .