Jaisalmer news:  जैसलमेर रियासत के महारावल दुर्जनशाल स्मारक पर आज हवन व विधिवत पूजा अर्चना का कार्यक्रम आयोजित हुआ. इस दौरान जैसलमेर के ढिब्बा पाड़ा स्थित महारावल दुर्जनशाल के स्मारक पर पूजा अर्चना की गई. इस दौरान काफी तादाद में लोगों द्वारा महारावल दुर्जनशाल (दूदोजी)व वीरवर त्रिलोकसी के साथ ही 1315 ई. में जैसलमेर के हुए दूसरे शाके में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले योद्धाओं की मूर्तियां पर विधिवत पूजा अर्चना कर उन्हें याद किया गया.


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इस दौरान स्मारक के आस-पास हुए अवैध अतिक्रमण को लेकर राजपूत समाज के लोगों ने नाराजगी जाहिर की गई. वही अवैध अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने की जिला प्रशासन से मांग की गई. इस दौरान दर्शन को आए लोगों का साफ तौर पर कहना है कि यदि समय रहते जिला प्रशासन द्वारा पुरातत्व विभाग के अधीन आने वाले जैसलमेर के तमाम स्मारकों से यदि भूमाफियों के अवैध कब्जे समय रहते नहीं हटाए जाते हैं तो वे आंदोलन करेंगे.


कौन थे राव महारावल दूदा
जैसलमेर का दूसरा शाका 1315 ईस्वी में हुआ उस समय जैसलमेर रियासत के दूदा तिलोक सिंह महारावल थे और फिरोज तुगलक ने जैसलमेर पर हमला कर दिया. 8 महीने तक तुगलक सेना ने किले के चारों तरफ घेराबंदी करके रखी जब किले में राशन खत्म हो गया तो महारावल अपनी सेना के साथ केसरिया बाना पहने युद्ध के मैदान में कूद पड़े और ऐसे में युद्ध में जहां महारावल दूदा का सिर धड़ से अलग हो गया लेकिन बिना सिर के ही महारावल युद्ध में लड़ते दिखे जिसे देख दुश्मन भी अचंभित रह गए. वही सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा.


वही क्षत्राणियो ने जौहर किया. महारावल जिस समय वीरगति को प्राप्त हुए उस समय उनकी रानी अपने पीहर खींवसर,नागौर में थी और ऐसे में जब रानी को पता चला कि उनके पति वीरगति को प्राप्त हुए हैं तो उन्होंने अपने पति के सिर के साथ जोहर करने की इच्छा जताई. ऐसे में कवि सादू चारण ने एक छंद का वाचन किया और उस समय युद्ध भूमि में पड़े हजारों धड़ो में से एक सिर इस छंद का वाचन सुन खड़ा हो गया जो राव दूदा का था. जिसे कवि चारण लेकर रानी के पास पहुंचे और उस सिर के साथ रानी सत्ती हुई.


जैसलमेर का पहला शाका
इतिहासकारों के अनुसार जैसलमेर का पहला शाका 1294 ई. के लगभग हुआ. उस समय जैसलमेर के महारावल मूलराज जेतसिंह थे और अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने हमला किया तो यहां के पुरुष केसरिया बाना पहनकर जहां युद्ध भूमि में उतरे तो वहीं दूसरी तरफ 22000 क्षत्राणियो ने जौहर किया था. इतिहासकारों के अनुसार ये शाका (युद्ध) 8 से 12 साल तक चला था.


जैसलमेर का तीसरा शाका (ढाई शाका,अधूरा शाका)


1550 ईस्वी में जैसलमेर के महारावल लूणकरण का एक अफगानी मित्र था अमीन अली पठान. वो जैसलमेर आया और उसके ठहरने की व्यवस्था हुई. पठान को पता चला कि दुर्ग में कुछ सैनिक है, राजा खुद व उसकी रानियां है तो उसने राजा से कहा कि उसकी बेगमें यहां की रानियां से मिलना चाहती है. वही उसने डोली में सैनिक भेज दिए.जिसका राज रास्ते में ही खुल गया और राजा व सैनिकों ने जोहर नहीं होते देखते हुए अपनी पत्नियों के सतीत्व की रक्षार्थ उन्हें मौत के घाट उतार दिया. इस प्रकार इस युद्ध में वीरों ने केसरिया तो किया लेकिन रानियों ने जोहर नहीं किया. इसी कारण इसे आधा शाखा माना जाता है.


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