राजस्थान में खत्म हो रहे हैं कुएं और बावड़ियां और दम तोड़ रही परंपराएं
Kota : घर में कोई भी शुभ मंगल कार्य होता था तो, कुएं-बावड़ियों पर जाने की परम्परा थी. शादी के बाद नवदम्पती कुएं पर जाकर पूजा अर्चना कर प्रसाद चढाते थे, लेकिन कुओं एवं बावड़ियों का अस्तित्व समाप्ति के साथ ही परम्पराओं ने भी इनसे मुंह मोड़ लिया है. अब तो हालत यह है कि नई पीड़ी इन परंपराओं से अनजान है.
Kota : हमारे पुरखों की प्यास बुझाकर उनका जीवन बचाने वाले ऐतिहासिक कुएं और बावड़ियों का अस्तित्व संकट में है. एक समय था जब गांव-कस्बों की पेयजल व्यवस्था परम्परागत जलस्त्रोतों तालाब, नाड़ियों और परम्परागत कुएं-तालाबों पर निर्भर थी, लेकिन शहर से लेकर गांवों तक पाइपलाइन, हैंडपंप और नलकूपों से पेयजल आपूर्ति शुरू होने के बाद लोगों ने कुएं-बावड़ियों से मुंह मोड़ लिया.
अब हालात यह है कि बरसों तक लोगों की प्यास बुझाने वाले अधिकतर कुएं-बावडिय़ों का अस्तित्व समाप्त हो गये हैं. अधिकांश कुएं-बावड़ियां गंदगी से अटी है तो इनके आसपास अतिक्रमण होने और पक्के निर्माण होने से इनमें अब पानी की आवक भी नहीं होती.
ऐसे में शहर और गांव-कस्बों में बने ज्यादातर कुएं-बावडियों में कचरा भरा हुआ है. जानकारों की मानें तो डेढ़ दशक पहले तक अधिकांश कुएं-बावडिय़ों का अस्तित्व था, लेकिन वर्तमान में कुछ ही अधिकांश कुएं-बावडिय़ां बची हुई है. जो बची हुई हैं. उनमें भी बबूल और झाड़ियां उगी है तो गंदगी से इनका पानी पीने के लायक भी नहीं रहा.
खो गई कई परंपराएं भी
बुजुर्गों की माने तो घर में कोई भी शुभ मंगल कार्य होता था तो, कुएं-बावडिय़ों पर जाने की परम्परा थी. शादी के बाद नवदम्पती कुएं पर जाकर पूजा अर्चना कर प्रसाद चढाते थे, तो नई दुल्हन और बच्चा होने के बाद कुएं से पानी भरवाकर मंगल गीत गाते घर तक बधावणा किया जाता था. लेकिन कुओं एवं बावड़ियों का अस्तित्व समाप्ति के साथ ही परम्पराओं ने भी इनसे मुंह मोड़ लिया है. अब तो हालत यह है कि नई पीड़ी तो इनसे अनजान है.
कुएं-बावड़ियों का भी अलग उपयोग
जानकार बताते हैं कि अकाल के हालात में प्यासे नहीं रहे, इसके लिए बुजुर्गों ने बड़ी संख्या में कुएं और बावड़ियां बनाई थी. कुओं एवं बावड़ियों का उपयोग भी अलग-अलग होता था. खेतों में बने कुएं का उपयोग सिंचाई के लिए तो बगीचियों व मंदिरों में इनके पानी का उपयोग पेयजल व मांगलिक कार्यों के लिए होता था. वहीं अन्य कुओं पर कपडे धोने और पशुओं की प्यास बुझाने काम में लिए जाते थे. इससे पानी की एक बूंद भी व्यर्थ नहीं होती थी.
फिर हो गई इनकी अनदेखी
गांव-कस्बे एवं शहरों में पानी हैंडपंप, नलकूप व पाइपों से पहुंचा वहीं सिंचाई के लिए भी खेतों में नलकूप खुदने लगे. ऐसे में इनकी उपयोगिता भी कम हो गई और लोगों ने इनसे मुंह मोड़ लिया. अब अब इनका अस्तित्व ही संकट में आ गया. सांगोद शहर में भी कई कुएं-बावड़िया बने हुए है, लेकिन उपयोगी एक भी नहीं रहा. अतिक्रमण और गंदगी के ढ़ेरों से कुओं-बावड़ियों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है.
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