Pratapgarh: अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इनमें से कुछ क्रांतिकारियों ने जिले के देवगढ़ (देवलिया) रियासत, प्रतापगढ़ और मालवा में क्रांति की अलख जगाई थी. नई पीढ़ी इनके योगदान से अनभिज्ञ हैं, इनमें से कुछ क्रांतिकारियों के योगदान को इतिहास के पन्नों में महत्वपूर्ण जगह नहीं मिल पाई. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जले के ऐसे ही वीर योद्धाओं से रूबरू करवाने जा रहा ज़ी न्यूज़ अंग्रेजों से 1804 में प्रस्तावित संधि-पत्र को ठुकराया था. कुंवर दीपसिंह आजादी का बिगुल बंगाल में बजने के बाद आनंद मठ संगठन के कुछ क्रांतिकारी दक्षिणी राजपूताना, प्रतापगढ़-मालवा अंचल में आ गए थे. देवलिया प्रतापगढ़ के कुंवर दीपसिंह बंगाली क्रांतिकारियों के संपर्क में आए. दूसरी ओर उनका संबंध होल्कर दरबार से था, क्योंकि उसकी रियासत मुगलों को होलकर के जरिए खिराज देती थी. उस समय जसवंतराव होल्कर के मन में भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के ज्वार उठ रहे थे. दीपसिंह और जसवंतराव होल्कर ने क्रांति की तैयारियां की और उनका पहला काम उन संधियों को नहीं होने देना था, जिन्हें चम्बल के किनारे पड़ाव डालकर बैठा लॉड लेक और दुसरे अंग्रेज मालवा और राजपूताने की देशी रियासतों के राजाओं से संपन्न कर रहे थे. यह कुंवर दीपसिंह का ही प्रयत्न था कि अंग्रेज सन् 1804 में प्रतापगढ़ रियासत से संधि-पत्र लिखवाने में असफल रहें. 


यह भी पढ़ें- प्रतापगढ़ में आजादी के अमृत महोत्सव के पर निकाली तिरंगा रैली, शहीदों को अर्पित किए श्रद्धा सुमन


बंगाल से रियासत देवलिया प्रतापगढ़ आए क्रांतिकारी रामकृष्ण दास नामक निंबार्क संप्रदाय के नौजवान को राज परिवार ने सन् 1802 में अपने सबसे बड़े निजी मंदिर रघुनाथद्वारा का महंत बना दिया, जिससे शरणागत क्रांतिकारी को पद- मर्यादा के अनुरूप सुरक्षित रख सके. अंग्रेज जासूस आनंदमठ गिरोह के बिखरे हुए लोगों और जसवंत राव होल्कर से जुड़े विप्लावियो का सुराग लगाते हुए देवलिया पहुंचे. उनके संकेत पर बंगाल पैदल सेना की एक टुकड़ी रामकृष्ण दास और कुंवर दीपसिंह को गिरफ्तार करने देवलिया से लगभग 11 मील दूर मालवा की दिशा में आई. दीपसिंह ने चतुराई दिखाते हुए कप्तान जॉन वायली ओर अन्य लोगों को मौत के घाट उतार दिया. राज-काज दीपसिंह के पास रहा अंग्रेज हस्तक्षेप कर न सके. 


अंत में अंग्रेजों ने दीप सिंह को हटाने के लिए सेना भेजी, जिस का मुकाबला करते हुए दीपसिंह को बंदी बना लिया गया. महारावत ने प्रतापगढ़ के निकट कनोरा के किले में कैद करना चाहा और 3 दिसंबर सन् 1823 को इस बात का इकरार कप्तान मैकडोनाल्ड के नाम लिख दिया था, लेकिन अंग्रेजों ने अस्वीकार करते हुए अंत में ग्वालियर-राज्यान्तर्गत चचेरे की गढ़ी में रखा. 21 अप्रैल 1826 को दीप सिंह को तरबूज में जहर देने का जघन्य कार्य अंग्रेजों के जासूसों ने किया.


पीर खूंमेदान खां, मुहम्मद बेग की बदौलत सूरजपोल पर लहराया आजाद हिंदुस्तान का झंडा: पीर खुमैदान खां बसाड़ में शहीद हो गए. राजा दलपतसिंह ने कासिम खां और दूसरे सरदारों की जिस धोखे से हत्या की थी, उससे क्रांतिकारी सेना आग बबूला हो गई. खूंमेदान खां अपना गुस्सा नहीं रोक पाया. मुहम्मद बेग और दूसरे कई सरदार बसाड़ और बगवास में राजा की सेना से भिड़ गए. इन बहादुरों ने कई हजार सिपाहियों को खदेड़ भगा दिया. शहर के दरवाजे तोड़ दिए. पहला गोला चला था कि सूरजपोल के मेहराब का एक कोना चूर-चूर हो गया. सूरजपोल पर आजाद हिंदुस्तान का झंडा फहरा दिया. लोग शाह निहानचंद के खून के प्यासे हो रहे थे, निहालचंद औरत के भेष में मंदसौर चला गया.


दीपसिंह और जसवंतराव होल्कर को सहयोग मिलता तो 1857 की क्रांति 40 साल पहले हो जाती
भारत यात्रा पर आए पादरी बिशप हैबर ने 1882 में मालवा की ओर देवलिया प्रतापगढ़ की भी यात्रा की थी, उसने अपने यात्रा- वर्णनों में कुंवर दीपसिंह का काफी उल्लेख किया. अपनी पुस्तक 'नरेटिव ऑफ ए जर्नी द अपर प्राविसेज ऑफ इंडिया' में लिखा 'दीपसिंह ने तीन आदमियों को मार दिया था और अन्य कई को मरवा दिया था. उसका पिता वहां का राजा बड़ा सीधा और वृद्ध था और दीपसिंह का दमन नहीं कर सकता था. वह तो दीपसिंह को कैद से छुड़वाने के लिए व्यग्र था. यह निविनवाद सत्य है कि यदि जसवंतराव होल्कर, कुंवर दीपसिंह और बंगाल के साथियों को देश के अन्य शासकों ओर जनता का सहयोग मिल जाता तो सन 1857 की क्रांति 40-50 साल पहले ही हो जाती और सफल भी रहती.


प्रतापगढ़ पहुंचे सेनानी तांत्या टोपे का तीन हजार आदिवासियों ने दिया साथ
अंग्रेजी सेना का मुकाबला करते हुए क्रांतिकारी तांत्याटोपे मेवाड़ के पूर्वी भाग में जालिंद्री घाटे के मार्ग से मांडलगढ़ रतनगढ़ और सिंगोली होते हुए रामपुरा की ओर रवाना हुए. विगेडियर पार्क और मेजर टेलर ने उस और का रास्ता रोक लिया, तब वे वरसल्यावास होते हुए भीलवाड़ा पहुंचे. 9 अगस्त 1858 को सांगानेर के पास कोटेश्वरी नदी के किनारे जनरल राबट्र्स की सैना से उनका मुकाबला हुआ. इसके बाद वे मेवाड़ के पश्चिम की ओर गए. अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया और नाथद्वारा के पास 14 अगस्त को उनका मुकाबला हुआ. इसके बाद आकोला के मार्ग से चित्तौडगढ़ से दक्षिण की तरफ जाट और सिंगोली को लूटते हुए वे झालावाड़ पहुंचे. ब्रिगेडियर पार्क उनके पीछे था. इसके बाद छोटा उदयपुर पहुंचे. तांत्याटोपे कुशलगढ़ से बासवाड़ा पहुंचे. वहां कप्तान लियर माउथ आ पहुंचा. तात्या वहां से सलुंबर होते हुए भींडर आ गए. तात्या उदयपुर जाना चाहते थे, लेकिन वहां अंग्रजों की जबरदस्त तैयारी थी. तात्या पहाड़ी मार्ग से प्रतापगढ़ आ गए. उस समय तीन हजार से अधिक आदिवासियों ने देशभक्ति दिखाते हुए तात्या का साथ दिया, तभी मेजर रॉक यहां आ पहुंचा. 23 दिसंबर 1858 को भीषण लड़ाई हुई और दोनों ओर के कई सैनिक मारे गए.


क्रांतिकारी मेहताब अली शाह के नेतृत्व में लड़ा गया था युद्ध
रियासतकालीन दौर में सबसे बड़ी लड़ाई क्रांतिकारी घुड़सवार सेना के नायक मेहताब अली शाह के नेतृत्व में लड़ी गई, लेकिन राजपूत सरदारों ने ऐसा जमकर युद्ध किया कि सभी क्रांतिकारी वीरगति को प्राप्त हुए गुलाम रसूल और नरपत सिंह ने वीरगति पाई. स्वयं महताब अली शाह भी शहीद हुए. जावरा के नवाब, रतलाम और सैलाना के राजे फिरंगियों की सहायता कर रहे थे. उसे रसद पहुंच रहे थे और क्रांतिकारियों के खिलाफ जासूसी कर रहे थे, वरना ड्युरेंड बचकर नहीं निकल सकता था. वीर हीरासिंह शाह मेहताब अली गुलाम मुहम्मद, गुलाम रसूल और दूसरे वीरों ने लेफ्टिनेंट मार्टन, कर्नल स्टार्ट और जावरा के नवाब को दिन में ही तारे दिखा दिए थे.


Reporter: Vivek Upadhyay