Udaipur News: देश और दुनिया मे अपनी खूबसूरती को लेकर विख्यात लेकसिटी उदयपुर को अब एक ओर नई पहचान मिल गई है. मेवाड़ की सैकड़ों साल पुरानी कोफ्तगिरी मेटल शिल्प कला को जीआई टैग मिल गया है. जीआई टैग मिलने के बाद कोफ्तगिरी का काम करने वाले सिकलीगर समाज के लोगो मे उत्साह नजर आ रहा है. साथ ही कोफ्तगिरी मेटल शिल्प कला के उत्पाद अब देश के साथ विदेशो में भी विख्यात हो सकेंगे.


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 राजा- महाराजाओं के लिए  बनते थे हथियार
उदयपुर में रियासत काल से ही सिकलीगर समाज के लोग कोफ्तगिरी मेटल का काम करते आ रहे है. पहले ये लोग राजा- महाराजाओं के लिए तलवारें, ढाल, खंजर सहित अन्य औजार बनाने के लिए अपनी कलाकारी करते थे, लेकिन समय में आए बदलाव के साथ ही इन पौराणिक हथियारों का उपयोग कम हो गया. ऐसे में इस कला से जुड़े सिकलीगर समाज के लोग इस काल से दूर होते गए, लेकिन अब इस कला को जीआई टैग मिला तो इसमें काम करने वाले कलाकारों की खुशी का ठिकाना नहीं है.


मिलेगा अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान
शिल्प कला से जुड़े सिघलीघर समाज के लोगों का कहना है की  जीआई टैग  मिलने से इस कला को अब अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलेगी. जिससे विदेशो में भी उनकी कला को नई पहचान मिलेगी.


करीब 300 वर्षों पूरानी है यह कला
उदयपुर शहर के घंटाघर स्थित दशोरा की गली में कोफ्तगिरी का कार्य करने वाले  कारीगर राम चंद्र सिकलीगर ने बताया की यह कला करीब 300 वर्षों पूरानी है. रिहासत काल मे उनके पुरखे राजा महाराजाओं वे यहां काम करते थे. महाराजाओं के लिए इस प्रकार की खास कारीगरी वाली तलवारे, ढाले, छूरिया तैयार  की जाती.


 कैसे की जाती है यह कला
कोफ्तगिरी का काम करने वाले कलाकारों का कहना है कि वह मेटल के ऊपर सोने और चांदी का आकर्षक काम करते हैं.  तलवार, ढाल और अन्य औजारों को आकर्षक रूप देते हैं. तलवार एक हत्था बनाने में कई बार डेढ़ से 2 महीने का भी समय लग जाता है. उनके कला की कीमत उसमें किए जाने वाले काम पर निर्भर करती है. जितना बारीक वर्क वे मेटल के ऊपर करेंगे उसकी कीमत उतनी ही अधिक होगी, लेकिन उसकी कीमत 15 से 20 रुपए से शुरू होती है. जो लाखों रुपए तक जाती है. कोफ्तगिरी का काम करने वाले परिवार के लोग अपनी आने वाली पीढ़ी को भी इस कला से जोड़ रहे हैं. अब जीआई टैग मिलने के बाद जो इस कला को छोड़ चुके हैं, उनके भी इससे जुड़ने की संभावना है.


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