आजादी के 14 साल बाद भारत को मिला समंदर किनारे का वह हिस्सा...
पुर्तगालियों ने 1510 में बीजापुर के सुल्तान युसूफ आदिल शाह को हराकर वेल्हा गोवा (पुराना गोवा) पर कब्जा कर स्थाई कॉलोनी बनाई.
नई दिल्ली: सन 47 में देश आजाद होने के बाद सरदार पटेल के प्रयासों से देसी रियासतों का एकीकरण तो हो गया लेकिन गोवा, भारत के अधीन नहीं आया. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां पर 1510 से ही पुर्तगालियों का औपनिवेशिक शासन था. आजादी के बाद भी भारत के आग्रह के बावजूद जब पुर्तगाल ने गोवा और दमन एवं दीव पर अपने नियंत्रण को नहीं छोड़ा तो भारत ने ऑपरेशन विजय के तहत 18-19 दिसंबर, 1961 को वहां सैन्य ऑपरेशन किया. उसके 36 घंटे के भीतर ही गोवा भारत का हिस्सा बन गया. इस कारण 19 दिसंबर को हर साल गोवा मुक्ति दिवस के रूप में मनाया जाता है. 30 मई, 1987 को गोवा को अलग राज्य का दर्जा दिया गया जबकि दमन एवं दीव केंद्रशासित क्षेत्र बने रहे. इस संदर्भ में गोवा में पुर्तगालियों के 451 साल के शासन के इतिहास पर आइए डालते हैं एक नजर:
पुर्तगाल
भारत में सबसे पहले पुर्तगाली आए. उन्होंने 1510 में बीजापुर के सुल्तान युसूफ आदिल शाह को हराकर वेल्हा गोवा (पुराना गोवा) पर कब्जा कर स्थाई कॉलोनी बनाई. 1843 में उन्होंने पणजी को राजधानी बनाया. हालांकि अंग्रेजों से इतर पुर्तगाल की नीतियां अपेक्षाकृत उदार रहीं. गोवा के कुलीन तंत्र को पुर्तगाल ने कुछ विशेषाधिकार दिए थे. 19वीं सदी में ये व्यवस्था हुई कि गोवा में जो लोग संपत्ति कर देते थे, उनको पुर्तगाली संसद में गोवा का प्रतिनिधि चुनने के लिए मत देने का अधिकार मिल गया.
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गोवा मुक्ति आंदोलन
1910 में पुर्तगाल में राजशाही का खात्मा हो गया. इससे इसकी सभी औपनिवेशिक कॉलोनियों को लगा कि उनको स्व-शासन का अधिकार मिल जाएगा लेकिन पुर्तगाल की नीतियों में कोई बदलाव नहीं हुआ. लिहाजा यहां पर पुर्तगाल से आजादी की आवाज उठी. 1920 के दशक में डॉ त्रिस्ताव ब्रगेंजा कुन्हा(1891-1958) के नेतृत्व में आजादी की मांग तेज हुई. इस कारण उनको 'गोवा राष्ट्रवाद का जनक' भी कहा जाता है.
1946 में समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया गोवा में अपने दोस्त से मिलने गए. वहां पर उनकी गोवा की मुक्ति के संदर्भ में चर्चा हुई. लिहाजा लोहिया ने वहां पर सविनय अवज्ञा आंदोलन किया. औपनिवेशिक गोवा के 435 सालों में यह अपनी तरह का पहला आजादी से जुड़ा आंदोलन था. यह इसलिए भी अहमियत रखता है क्योंकि गोवा में पुर्तगाली सरकार ने किसी भी प्रकार की जनसभा पर पाबंदी लगा रखी थी. हजारों लोगों ने इसमें हिस्सा लिया. हालांकि बाद में लोहिया को पकड़कर गोवा से बाहर भेज दिया गया.
सन 47 के बाद
आजादी के वक्त भारतीय नेताओं को लगा कि अंग्रेजों के जाने के बाद पुर्तगाली भी यहां से चले जाएंगे लेकिन पश्चिमी तट पर गोवा की रणनीतिक स्थिति के कारण पुर्तगाल इसको छोड़ने पर राजी नहीं हुआ.
27 फरवरी, 1950 को भारत सरकार ने पुर्तगाल से भारत में मौजूद कॉलोनियों के संबंध में बातचीत का आग्रह किया. लेकिन पुर्तगाल ने कहा कि गोवा उसकी कॉलोनी नहीं बल्कि महानगरीय पुर्तगाल का हिस्सा है. इसलिए भारत को इसका हस्तांतरण नहीं किया जा सकता. नतीजतन भारत के पुर्तगाल से कूटनीतिक संबंध खराब हो गए. 11 जून, 1953 को भारत ने लिस्बन से कूटनीतिक मिशन हो हटा लिया. 1954 में गोवा से भारत के विभिन्न हिस्सों में जाने के लिए वीजा पाबंदियां लगा दी गईं.
इस बीच गोवा में पुर्तगाल सरकार के खिलाफ आंदोलन तेज होता गया. 1954 में दादर और नागर हवेली के कई ऐंक्लेव्स पर भारतीयों ने कब्जा कर लिया. प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि पुर्तगाल की गोवा में मौजूदगी को सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. लेकिन पुर्तगाल अपनी बात पर अड़ा रहा और जब गोवा में असंतोष उसके खिलाफ बढ़ता गया तो 18 दिसंबर, 1961 को भारत ने गोवा, दमन और दीव पर सैन्य हस्तक्षेप किया. अगले 36 घंटे के भीतर जमीनी, समुद्री और हवाई हमले में पुर्तगाल के पांव उखड़ गए. पुर्तगाल के गवर्नर जनरल वसालो इ सिल्वा ने भारतीय सेना के सामने सरेंडर कर दिया और इस तरह गोवा 451 साल बाद पुर्तगाल के चंगुल से आजाद हो गया.