पंजाब यूनिवर्सिटी छात्रसंघ की पहली महिला अध्यक्ष बोलीं- `मैं किताबी कम्युनिस्ट नहीं हूं`
`जब मैं चुनाव प्रचार कर रही थी तो हमारा फोकस इस बात पर था कि गांव, कस्बे और दुनियाभर की गुटबाजी के नाम पर वोट न मांगा जाए.`
नई दिल्लीः कनुप्रिया पंजाब यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष का चुनाव जीतने वाली पहली लड़की हैं. यह जीत उनके लिए क्या मायने रखती है और वे आगे क्या करना चाहती हैं, इसको लेकर पहली बार उन्होंन जी डिजिटल पर अपने इरादे जाहिर किए. 'पंजाब यूनिवर्सिटी का चुनाव हो गया. मैं जीत गई. तो क्या हुआ. कुछ दोस्तों से सुनती हूं तो पता चलता है कि लोग इसे लड़कों की दुनिया में एक लड़की की जीत के तौर पर देख रहे हैं. कुछ लोग इसे प्रगतिशीलता की जीत के तौर पर देखते हैं. लेकिन जब मैं इस जीत को देखती हूं तो यह छात्रों के बीच पनपे एक आंदोलन की जीत दिखाई देती है. अपने संगठन स्टूडेंट फॉर सोसायटी (एसएफएस) के एक प्रत्याशी की जीत दिखाई देती है. यह उन मुद्दों की जीत लगती है, जिनके साथ एक प्रत्याशी जीता, हो सकता है मेरी जगह कोई लड़का लड़ता तो वह भी जीत जाता.'
क्योंकि जो बात हम कर रहे थे, उसकी जीत का मुझे भरोसा था. इसीलिए ऑर्गनाइजेशन ने जब मेरा नाम प्रत्याशी के तौर पर तय किया जो मैं बेझिझक चुनाव लड़ने को तैयार हो गई. मैं साइंस बैकग्राउंड की लड़की हूं. बीएससी जुओलॉजी (भूगर्भ विज्ञान) में किया और अब इसी विषय में पोस्टग्रेडुएशन कर रही हूं. लेकिन सच कहूं तो इस विषय से मेरा उतना ही वास्ता है, जितना इंतहान और अच्छे नंबरों के लिए हो सकता है. मैं इसे अपने भविष्य के तौर पर नहीं देखती.
मुझे कुछ और दिखाई देता है, जिसकी शक्ल मेरी आंखों के सामने अभी बहुत साफ नहीं है. तो जब मैं चुनाव प्रचार कर रही थी तो हमारा फोकस इस बात पर था कि गांव, कस्बे और दुनियाभर की गुटबाजी के नाम पर वोट न मांगा जाए. वोट मांगा जाए बेहतर दुनिया के सपने के नाम पर और आगे बढ़ती नौजवान पीढ़ी के नाम पर और उन सब बातों के नाम पर जिनका हमारी जिंदगी से लेना देना है. अब जैसे नशे का ही मामला है. मैं यह देखकर हैरान रह जाती हूं कि स्टूडेंट्स की दुनिया में शराब को नशा ही नहीं माना जा रहा. न जाने कौन-कौन से नशे यहां आ गए हैं. हमें इन सबसे लड़ना है. हमें हॉस्टल और यूनिवर्सिटी की दूसरी चीजों के लिए लड़ना है.
दरअसल हमारे संगठन का नाम स्टूडेंट्स फॉर सोसायटी यानी ‘समाज के लिए छात्र’ का मकसद ही है कि हम जिम्मेदार नागरिक बनें. इस संगठन में वामपंथी, नास्तिक, महिलावादी और वे सब स्टूडेंट्स शामिल हैं, जो खुद को पोंगापंथी सोच और धार्मिक कूपमंडूकता से बाहर समझते हैं. जो चाहते हैं कि एक बेहतर दुनिया बने. मैंने वामपंथ की बड़ी किताबें नहीं पढ़ी हैं. मैं विचारधारा की बारीकियों में अब तक नहीं उलझ पाई. मैं किताबी वामपंथी तो कतई नहीं हूं.
इसीलिए मैं अब तक यह नहीं समझ पाई कि मैं वामपंथी हूं, या महिलावादी हूं या नास्तिक हूं. मुझे खुद को किसी भी दायरे में बांधने में बड़ी उलझन होती है. लेकिन मुझे मीना कंडासामी किताबें पसंद हैं, जो औरत को इस तरह की औरत होने से आजाद करने की बात करती हैं. मेरे पास कोई नया नारा नहीं है, मैंने भी चुनाव में इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया. यह स्थायी नारा है, हर पीढ़ी आगे बढ़ने के लिए यही नारा लगाएगी.
इस चुनावी जीत के बाद कुछ लोगों ने मुझसे सवाल पूछा कि क्या आप अपने विषय में कैरियर बनाएंगी या फिर राजनीति में जाएंगी. मैं इसका क्या जवाबू दूं. एक बात तो तय है कि उस तरह का कैरियर बनाने का वाली नहीं हूं जिसमें एक डिग्री ली जाती है और उस डिग्री से नौकरी हासिल की जाती है. जहां तक राजनीति का सवाल है तो यूनिवर्सिटी के बाहर की दुनिया अलग है. वहां स्थापित राजनैतिक दल हैं. वहां इस तरह की प्रगतिशीलता की राजनीति कितनी कामयाब हो सकती है कहना कठिन है.
इसलिए मैं समझती हूं कि मेरा रास्ता सत्ता या चुनाव की राजनीति वाला शायद न हो, लेकिन जनता की राजनीति तो मैं करूंगी ही. बहुत से लोग पहले से ऐसा करते रहे हैं. मेरा कोई राजनैतिक आदर्श नहीं है. लेकिन भगत सिंह और करतार सिंह मुझे प्रेरणा देते हैं. मैं प्रेरणा में यकीन रखती हूं, न कि आदर्शों को मूर्ति की तरह पूजने में.
अपने समय में भगत सिंह और आज के समय में भी बहुत से मोटीवेशनल लोग मुझे प्रेरणा देते हैं. जनता के मुद्दों को उठाना, किसानों के लिए काम करना, मजदूरों की समस्याओं को समझना, अपने वक्त से मुठभेड़ करना, हर जागे हुए इंसान का फर्ज है. मैं इसी तरह की राजनीति में अपन भविष्य देखती हूं. यूनिवर्सिटी की जीत ने निश्चित तौर पर मेरा हौसला बढ़ाया है. मैं चाहती हूं कि जिन लोगों ने मुझे जिताया है, वे मेरे साथ रहें या न रहें, लेकिन उन मुद्दों के साथ हमेशा खड़े रहें, जिनके लिए उन्होंने मुझे चुना है. इंकलाब जिंदाबाद।