नई दिल्ली: बांग्लादेश को आजादी दिलाने के लिए भारत-पाकिस्तान की लड़ाई पूरी दुनिया जानती है. दुनिया ये भी जानती है कि बहादुर भारतीय सेना अगर पूर्वी पाकिस्तान पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ हथियार नहीं उठाती तो बांग्लादेश का आजाद होना मुश्किल था. यह संभव हुआ हमारी इंडियन आर्मी के जज्बे और ताकत से. महज 13 दिन चले इस युद्ध को इतिहास की सबसे छोटी लड़ाइयों में से एक माना जाता है. 50 साल पहले हुए इस युद्ध के बाद आज भी भारतीय सेना का बांग्लादेश सम्मान करता है. इस जीत में सबसे बड़ा हाथ है भारतीय सेना के उन 3 जांबाज अफसरों का जिनकी रणनीति की वजह से पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए थे. आइए बताते हैं आपको इनके बारे में...


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जनरल जेएफआर जैकब
जनरल जेएफआर जैकब (Lieutenant General JFR Jacob) 1971 में भारतीय सेना की पूर्वी कमान के चीफ ऑफ स्टाफ थे. बांग्लादेश की आजादी के बाद जैकब को भारत ही नहीं, बांग्लादेश में भी सम्मानित किया गया. 1971 के युद्ध में जैकब की रणनीति थी 'वॉर ऑफ मूवमेंट' (War of Movement). इस रणनीति के तहत इंडियन आर्मी पाकिस्तानी सेना के कब्जे वाले शहरों को छोड़कर दूसरे रास्तों से पूर्वी पाकिस्तान में घुसी.  


जब सरेंडर के पेपर ले ढाका पहुंच गए थे जैबक
16 दिसंबर को जनरल जैकब को आदेश मिला था कि ढाका जा कर पाकिस्तान के सरेंडर की तैयारी करें. इसके बाद जैकब सरेंडर के पेपर लेकर ढाका को रवाना हो गए. उस समय तक पाकिस्तानी जनरल एके नियाज़ी के 26 हजार 400 सैनिक ढाका में मौजूद थे, जबकि भारत के लगभग 3000 सैनिक ही ढाका को घेरे हुए थे. हालांकि, पाकिस्तानी सेना हौसले खो चुकी थी. जनरल जैकब ने एएके नियाज़ी से अपनी फौज को आत्मसमर्पण का आदेश देने को कहा. जैकब ने इसके लिए आधे घंटे का समय मांगा था. उन्होंने ये साफ किया था कि सरेंडर पेपर पर साइन करने के बाद नियाज़ी और उनके परिवारवालों की सुरक्षा करेंगे. इसके बाद रेसकोर्स मैदान में पेपर साइन कर बांग्लादेश को आजादी मिल गई थी.


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जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा
अपने मजबूत इरादों से पूर्वी पाकिस्तान को आजादी दिलाने वाले जांबाज इंडियन आर्मी अफसरों में लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा (Gen Jagjit Singh Arora) भी शामिल हैं. माना जाता है कि 1971 युद्ध में असली काम जगजीत सिंह अरोड़ा ने ही किया था. जनरल अरोड़ा ने पूर्वी पाकिस्तान की आजादी लिए शुरू किए गए ऑपरेशन का नेतृत्व किया था. लेफ्टिनेंट अरोड़ा ने भारतीय सेना को छोटी-छोटी टुकड़ियों में बांटा था. सभी टुकड़ियों को अलग-अलग रास्तों से पाकिस्तान के हर पोस्ट पर कब्जा करने का आदेश दिया. उनकी इस रणनीति की मदद से इंडियन आर्मी कुछ ही दिनों में ढाका पहुंच गई थी.


कहा जाता है कि पाकिस्तानी जनरल एके नियाज़ी जब लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत अरोड़ा के सामने सरेंडर कर रहे थे, तो रो दिए थे.


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सैम मानेक शॉ
तीसरे जांबाज फौजी थे थलसेना प्रमुख मानेक शॉ (Sam Manekshaw). कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने उनसे सवाल किया था कि क्या वह इंदिरा गांधी का तख्त पलटना चाहते हैं? इस पर मानेक शॉ ने जवाब दिया था कि, 'आपको नहीं लगता कि मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकता हूं, क्योंकि आप की तरह ही मेरी नाक भी लंबी है. लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता. सियासत से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं और यही अपेक्षा मैं आप से भी रखता हूं.'


पीएम इंदिरा गांधी के फैसले पर जताई थी असहमति
दरअसल, पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ते तनाव और भारत में शरणार्थियों की संख्या को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मार्च, 1971 में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई करना चाहती थीं लेकिन थलसेना प्रमुख मानेक शॉ ने इस पर असहमति जताई थी और 6 महीने का समय मांगा था. इसके बाद उन्होंने जो रणनीति बनाई उसका अंजाम हम सबके सामने है.


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