Emergency Special: इलाहाबाद के जिस कमरे में करते थे नेहरू वकालत, वहीं सुनाया गया इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला
Emergency Special: यहीं से आपातकाल के आग को हवा मिली, जो 25 जून को पूरे देश के लोकत्रंत में लगा दी गई.
रजत सिंह/ नई दिल्ली: 12 जून 1975 की सुबह इलाहाबाद हाईकोर्ट खचाखच भरा हुआ था. देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लोकसभा की सदस्यता पर फैसला होने वाला था. कमरा नंबर 15, जहां कभी इंदिरा के पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके दादा मोतीलाल नेहरू अपनी वकालत किया करते थे. उसी कमरे में न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा का कोर्ट लगा. राज्य बनाम राजनारायण केस की सुनवाई करते हुए जगमोहन ने ऐतिहासिक फैसला दिया. सरकारी मिशनर के इस्तेमाल के आरोप को सही बताते हुए उन्होंने इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द कर दिया. यहीं से आपातकाल के आग को हवा मिली, जो 25 जून को पूरे देश के लोकत्रंत में लगा दी गई.
कौन थे जगमोहन सिन्हा?
जगमोहन सिन्हा ने अपने करियर की शुरुआत उत्तर प्रदेश के बरेली से की थी. यहां उन्होंने 14 साल वकालत की. फिर जिला जज बनाए गए. साल 1970 में वह इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज नियुक्त हुए. ठीक इसके 5 साल बाद उन्होंने यह फैसला दिया. वह उस दौर के काफी सख्त जज माने जाते थे. यहां तक कि जब उन्होंने यह फैसला दिया, तो आदेश था कि कोई भी कोर्ट में ताली नहीं बजाएगा. उनकी बेटी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि वह फैसला सुनाकर वैसे ही घर आए, जैसे रोज आया करते थे.
कटघरे में 5 घंटे खड़ी रहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री
देश के पूरे इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी प्रधानमंत्री को कोर्ट के कटघरे मे खड़ा होना पड़े. लेकिन साल 1971 में रायबरेली से चुनाव हारने के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ समाजवादी नेता राजनारायण ने याचिका दाखिल की. उन्होंने आरोप लगाया कि पीएम ने चुनाव जीतने के लिए भ्रष्ट साधन और सरकारी मिशनरी का इस्तेमाल किया. जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की कोर्ट में इस विषय पर 1973-74 में खूब बहस हुई और फिर वो दिन आया जब खुद इंदिरा गांधी को गवाही देनी पड़ी.
19 मार्च 1975 के इंदिरा गांधी कोर्ट में पहुंची. कोर्ट में सिर्फ जज के आने पर लोग खड़े होते हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री के सम्मान में कोई खड़ा नहीं हुआ. मीडिया रिपोर्ट्स में राजनारायण के वकील शांति भूषण के हवाले से बताया जाता है कि सिर्फ वकील एससी खरे ही खड़े हुए, वो भी आधे. मतलब कुछ ऐसा कि ना वो बैठे हैं और ना ही खड़े. इंदिरा गांधी के लिए एक कुर्सी मंगवाई गई. और पूरे पांच घंटे सवाल-जवाब किया गया.
दोनों पक्षों का दबाव, लेकिन टसमस नहीं हुए जस्टिस सिन्हा
बताया जाता है कि जस्टिस सिन्हा के ऊपर दोनों ही पक्षों की ओर से भारी दबाव था. आरोप तो ये भी लगते हैं कि इंदिरा गांधी ने फैसले को जानने के लिए उनके पीछे जासूस लगा दिए थे. पीएम के निजी डॉक्टर माथुर, जस्टिस सिन्हा के रिश्तेदार थे. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने का ऑफर भी दिया था. इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी अपनी किताब में इस बात का जिक्र करते हैं कि कई लोगों ने कहा कि जस्टिस सिन्हा को सुप्रीम कोर्ट का जज बनने का लालच दिया गया. शर्त ये थी कि वे इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसला सुना दें.
इस मामले पर सुनाया फैसला
दरअसल, इंदिरा गांधी के ऊपर कुल 14 आरोप लगा गए थे. जस्टिस सिन्हा ने उन्हें 12 आरोपों से बरी कर दिया. लेकिन दो ऐसे आरोप थे, जिनके आधार पर उनका निर्वाचन रद्द करने का फैसला लिया गया. इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि जिन आरोपों में इंदिरा गांधी को दोषी पाया गया, उनमें पहला था- यूपी सरकार ने उनके भाषण देने के लिए ऊंचा मंच बनाया था ताकि वे जनता को प्रभावित कर सकें. दूसरा ये कि उनके चुनाव प्रभारी यशपाल कपूर चुनाव प्रचार शुरू होने के वक्त तक सरकारी सेवा से जुड़े हुए थे.
20 दिन की मोहल्लत और 13 दिन में लग गया आपातकाल
जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी को 20 दिन का समय दिया, ताकि वे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकें. इंदिरा गांधी ने ऐसा ही किया. लेकिन 23 जून को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर ने जस्टिस सिन्हा के फैसले पर आंशिक रोक लगा दी. मतलब उन्होंने इंदिरा गांधी की सदस्यता तो बरकरार रखी, लेकिन लोकसभा में मत देने पर रोक लगा दी. इसके बाद 26 जून की सुबह मंत्री की बैठक बुलाई गई. इस बैठक में यह बताया गया कि आधी रात यानी 25 जून से देश में आपातकाल लागू है.