अजीत सिंह/अयोध्या:  22 जनवरी 2024 को अयोध्या में जन्मभूमि पर बन रहे भव्य राममंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होगी. यकीनन यह गोरक्षपीठ के लिए एक सपने के साकार होने जैसा होगा. करीब 100 साल से पीठ की तीन पीढ़ियों का यह सपना रहा है. अपने-अपने समय में इस दौरान राम मंदिर को लेकर होने वाले संघर्ष की पीठ के तबके पीठाधीश्वरों ने अगुवाई की थी. पीढ़ियों का यह संघर्ष अब मंदिर के रूप में हर्ष का प्रतिरूप सा दिखेगा. 


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चुनौतीपूर्ण थे हालात 
100 वर्षों में मंदिर आंदोलन से जुड़ी हर घटना के समय पीठ के मौजूदा पीठाधीश्वर और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दादागुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ या उनके गुरुदेव ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ की प्रभावी उपस्थिति रही. दिग्विजयनाथ ने इसकी (श्रीराम मंदिर) बात तब की जब हालात बेहद चुनौतीपूर्ण थे. उस समय कांग्रेस की आंधी चल रही थी. धर्मनिरपेक्षता का नारा उफान पर था. हिंदू और हिंदुत्व की बात करना अराष्ट्रीय माना जाता था.  


महंत अवेद्यनाथ का सपना 
महंत अवेद्यनाथ का तो ताउम्र सपना था कि उनके जीते जी यह काम हो जाए. वह मंदिर आंदोलन से जुड़ी शीर्ष संस्थाओं के शीर्ष पदाधिकारी भी थे. जब मंदिर आंदोलन चरम पर था तो उनकी ही वजह से गोरक्षपीठ, अयोध्या के बाद इसका केंद्र बन गया था. संयोग से अपने योग्य शिष्य योगी आदित्यनाथ की देखरेख में इस सपने को साकार होते देख उनकी आत्मा जरूर खुश होगी. खासकर यह देखकर कि देश और दुनिया के करोड़ों हिंदुओं के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर करीब 500 वर्ष के इंतजार के बाद 5 अगस्त 2020 को भव्यतम मंदिर की बुनियाद उनके शिष्य मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उपस्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रखी.


मंदिर आंदोलन का इतिहास 
मंदिर आंदोलन के इतिहास पर गौर करें तो पता चलेगा कि देश की जंगे आजादी और आजादी के तुरंत बाद के वर्षों में जब हिंदू और हिंदुत्व की बात करना भी गुनाह था, तब योगी आदित्यनाथ के दादागुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ ने गोरक्षपीठाधीश्वर और सांसद के रूप में हिंदू- हिंदुत्व की बात को पुरजोर तरीके से उठाया. न सिर्फ उठाया बल्कि राम मंदिर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई. सच तो यह है कि करीब 500 वर्षों से राम मंदिर के लिए संघर्ष को 1934 से 1949 के दौरान आंदोलन चलाकर एक बेहद मजबूत बुनियाद और आधार देने का काम महंत दिग्विजयनाथ ने ही किया था.  दिसंबर 1949 में अयोध्या में रामलला के प्रकटीकरण के समय वह वहीं मौजूद थे.


नब्बे का दशक...
उसके बाद तो यह सिलसिला ही चल निकला. नब्बे के दशक में जब राम मंदिर आंदोलन चरम पर था तब भी गोरक्षपीठ की ही केंद्रीय भूमिका रही.  मंदिर आंदोलन से जुड़े सभी शीर्षस्थ लोगों अशोक सिंहल, विनय कटियार, महंत परमहंस रामचंद्र दास, उमा भारती, रामविलास वेदांती आदि का लगातर पीठ में आना-जाना लगा रहता था. उनकी इस बाबत तबके गोरक्षपीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ से लंबी गुफ्तगू होती थी.  यही नहीं 1984 में शुरु रामजन्म भूमि मुक्ति आंदोलन के शीर्षस्थ नेताओं में शुमार महंत अवेद्यनाथ आजीवन श्रीरामजन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति के अध्यक्ष व रामजन्म भूमि न्यास समिति के सदस्य रहे.


बतौर उत्तराधिकारी महंत अवेद्यनाथ के साथ दो दशक से लंबा समय गुजारने वाले उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी इस पूरे परिवेश की छाप पड़ी. बतौर सांसद उन्होंने अपने गुरु के सपने को आवाज दी. मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपनी पद की गरिमा का पूरा खयाल रखते हुए कभी राम और रामनगरी से दूरी नहीं बनाई. गुरु के सपनों को अपना बना लिया, नतीजा सबके सामने है. उनके मुख्यमंत्री रहते हुए ही राम मंदिर के पक्ष में देश की शीर्ष अदालत का फैसला आया. देश और दुनिया के करोड़ों रामभक्तों, संतों, धर्माचार्यों की मंशा के अनुसार योगी की मौजूदगी में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन्मभूमि पर भव्य एवं दिव्य राम मंदिर की नींव रखी. 


बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जितनी बार गए, अयोध्या को कुछ न कुछ सौगात देकर आए. उनकी मंशा अयोध्या को दुनिया का सबसे खूबसूरत पर्यटन स्थल बनाने की है. इसके अनुरूप ही अयोध्या के कायाकल्प का काम जारी है. सरकार की मंशा है कि अयोध्या उतनी ही भव्य दिखे जितनी त्रेता युग में थी. इसकी कल्पना गोस्वामी तुलसीदास ने कुछ इस तरह की है,"अवधपुरी अति रुचिर बनाई. देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई". अयोध्या के इस स्वरूप की एक झलक दीपोत्सव के दौरान दिखती भी है. कायाकल्प के बाद यह स्वरूप स्थाई हो जाएगा. तब भगवान श्री राम की अयोध्या कुछ वैसी ही होगी, जिसका वर्णन उन्होंने खुद कभी इस तरह किया था. "अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ, जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि. उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।"