सावन में भोले बाबा को प्रसन्न करने के लिए भक्तजन कांवड़ यात्रा करते हैं और अपने आराध्य देव शिव को गंगा जल अर्पित करते हैं. सावन में जगह जगह गेरुआ वस्त्र पहने शिव भक्त दिखाई देते हैं जो कंधे पर कांवड़ रख कर यात्रा करते हैं. कुछ भक्त गाड़ी में संगीत बजाते हुए कांवड़ यात्रा करते हैं वहीँ कुछ लोग बिना धरती पर रखे कांवड़ लाते हैं. कांवड़ यात्रा कई प्रकार की होती है. यहाँ जाने सबसे कठिन कांवड़ यात्रा कौन सी होती है. 


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डाक कांवड़ - डाक कांवड़ यात्रा में भक्त समूह में कांवड़ यात्रा करते हैं और उनका चलता लगातार जारी रहता है, शंकर भगवन को जल चढ़ाकर ही वह विश्राम करते हैं. सरकार और प्रशासन डाक कांवड़ियों के लिए रास्ता खुला रखते हैं ताकि उनकी यात्रा में कोई अवरोश उत्पन्न न हो. 


सामान्य कांवड़ यात्रा - सामान्य कांवड़ यात्रा में भक्त कुछ देर चलते हैं और थकन होने पर कुछ देर विश्राम करते हैं. ज्यादातर लोग सामान्य कांवड़ यात्रा करते हैं और पैदल चलते हुए आराम आराम से अपने आराधय देव शिव शम्भू को जलाभिषेक करते हैं. 


खड़ी कांवड़ यात्रा - खड़ी कांवड़ यात्रा में दो या दो अधिक शिव भक्त मिलकर यात्रा करते हैं. इस तरह की यात्रा में कांवड़ को काँधे से नीचे नहीं रखा जा सकता केवल कांधा बदला जाता है. जब एक यात्री विश्राम करता है तो दूसरा व्यक्ति कांवड़ को कंधे पर रखकर पैर चलाते रहता है. 


दांडी या दंडवत कांवड़ यात्रा - यह कांवड़ यात्रा सबसे कठिन होती है. इसमें भक्त लेटकर दंडवत प्रणाम करते हुए यात्रा करते हैं. कई बार इसमें एक महीने से अधिक का समय लग जाता है. इस तरह की कांवड़ यात्रा में यात्री के शरीर पर कई जख्म भी हो जाते हैं. लेकिन आस्था और विश्वाश की प्रतीक इस यात्रा में भक्त पूरे मन से इसे पूरा करते हैं. और भोले बाबा के जयकारे लगातार जारी रहते हैं. 


कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा 
 भगवान परशुराम भगवान शिव के परम भक्त थे. मान्यता है कि वे सबसे पहले कांवड़ यात्रा लाये थे  उस समय सावन का पवित्र माह चल रहा था. परशुराम कांवड़ लेकर बागपत जिले के पास पुरा महादेव गए थे. उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा का जल लेकर शिव शंकर का अभिषेक किया था.  उसी समय से इस परंपरा को निभाते हुए भोलेनाथ के भक्त श्रावण मास में कांवड़ यात्रा जाते हैं.