यूपी चुनाव 2022: अब किस तरह वोट करता है उत्तर प्रदेश का दलित? कभी होता था BSP का एकक्षत्र राज
INDEPTH: यूपी में दलितों की राजनीति किस तरीके से बदल रही है और उसका प्रभाव अगले चुनाव में कैसा होने वाला है? आइए जानते हैं...
रजत सिंह, निमिषा श्रीवास्तव/लखनऊ: राजनीति में हमेशा से नारों का अपना महत्व रहा है. कभी कांशीराम ने नारा दिया, 'ठाकुर बाभन बनिया चोर, बाकी सब हैं डीएसफोर. तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार'. साल 2007 में उनकी शिष्या मायावती इसके बिल्कुल विपरित नारा देती हैं, 'पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा', 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है'. एक साल 2007 का समय था और एक आज का समय है, मायावती ने इसके बाद सिर्फ नीचे की ओर ही सफर किया है. अब साल 2021 में मायावती एक बार फिर ब्राह्मणों की ओर रुख कर रही हैं. ब्राह्मण सम्मेलन बुलाया जा रहा है. सतीश मिश्रा ने एक बार फिर से मोर्चा संभाल लिया है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि जिस दलित को अपना कोर वोट मानकर बसपा ये प्रयोग कर रही है, क्या वह उसके साथ हैं? यूपी में दलितों की राजनीति किस तरीके से बदल रही है और उसका प्रभाव अगले चुनाव में कैसा होने वाला है? आइए जानते हैं...
जगजीवन राम नहीं बने प्रधानमंत्री, कांशीराम नेता बन गए
नारों की बात करें, तो एक और नारा भारतीय राजनीति में खूब चर्चित हुआ था. आपातकाल के दौरान कहा गया, 'जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जाएगी इंदिरा गांधी'. जगजीवन राम ही वो नेता हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित पहचान को एक अलग मुकाम दिया. जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक बद्री नारायण, जो अपनी हालिया किताब 'रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व' को लेकर चर्चा में हैं, बताते हैं कि दलित राजनीति में चेतना काम 1930 के दौर में स्वामी अच्युतानंद के समय में ही शुरू हो गया था. शुरुआत में दलितों की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस हुआ करती थी. हालांकि, कांशीराम जैसे नेता अपनी कोशिश कर रहे थे. इसके अलावा, आगरा बेल्ट में कुछ नेता थे, जो दलित की राजनीति कर रहे थे.
बद्री बताते हैं कि असली परिवर्तन जगजीवन राम के प्रधानमंत्री ना बनने पर हुआ. दरअलस, 1977 में जब जनता पार्टी जीत कर आई, तो तीन लोग प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे. जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई. जब मोरारजी के नाम पर मुहर लगी, तो दलित समुदाय के अंदर रोष आ गया. उस समय को याद करते हुए आज भी दलित रो उठते हैं. उस दिन कई घरों में खाना नहीं बना था. इस नाराजगी को मोबलाइज कर कांशीराम ने एक बड़ा वोट बैंक खड़ा कर लिया, जिसने आगे चलकर मायावती के मुख्यमंत्री बनने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई.
कितना बड़ा है दलित वोट बैंक?
ओबीसी समुदाय के बाद दलित वोट की उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक, यूपी में 42-45 फीसदी ओबीसी हैं, उसके बाद 20-21 फीसदी संख्या दलितों की है. 20-21 फीसदी में सबसे बड़ी संख्या जाटव की है, जो करीब 54 फीसदी हैं. इसके अलावा दलितों की 66 उपजातियां हैं, जिनमें 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिनका संख्या बल ज्यादा नहीं हैं. इसमें मुसहर, बसोर, सपेरा और रंगरेज शामिल हैं. 20-21 फीसदी को दो भागों में बांट दें, तो 14 फीसदी जाटव हैं और बाकियों की संख्या 8 फीसदी है.
जाटव के अलाव अन्य जो उपजातियां हैं, उनकी संख्या 45-46 फीसदी के करीब है. इनमें पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक करीब 5 फीसदी हैं. कुल मिलाकर पूरे उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिलें हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है.
यूपी के दलित नेता
उत्तर प्रदेश में दलित नेताओं की बात की जाए, तो बसपा प्रमुख सबसे बड़ी नेता के तौर पर सामने आती हैं. वह उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. साथ ही साथ चार बार वह सत्ता का सफर तय कर चुकी हैं. इसके अलावा किसी भी पार्टी के पास इतना बड़ा चेहरा नहीं है. भाजपा के पास सुरेश पासी, रमापति शास्त्री , गुलाबो देवी और कौशल किशोर जैसे नेता हैं. इसके अलावा विनोद सोनकर हैं, जो भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष हैं. कांग्रेस के पास आलोक प्रसाद और पीएल पुनिया जैसे नेता हैं. वहीं, चंद्रशेखर आजाद भी कुछ समय पहले से काफी चर्चा में आए हैं.
किसे वोट करते हैं दलित?
उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा प्रयोग साल 2007 में मायावती ने किया. सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से उन्होंने विधानसभा में 30.43 फीसदी वोटों के साथ 206 सीट हासिल कर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी बसपा 27.4 फीसदी वोट के साथ 21 सीटें जीतने में सफल रही. लेकिन साल 2012 में सोशल इंजीनियरिंग की चमक कमजोर पड़ गई. वोट गिरते हुए 25.9 फीसदी पर पहुंच गए और बसपा 206 से गिरकर 80 पर पहुंच गई. सबसे बड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनावों में लगा, जब बसपा को सिर्फ 20 फीसदी वोट मिले और खाता भी नहीं खुला. 2017 में 23 फीसदी वोट के साथ बसपा को सिर्फ 19 सीटें मिलीं, जिनमें बगावत के बाद अब सिर्फ 7 विधायक बचे हैं.
चुनावी रणनीतिकार और पॉलिटिकल एक्सपर्ट अमिताभ तिवारी कहते हैं, 'अगर आप आंकड़ों को देखें, तो भाजपा इस वक्त देश की सबसे बड़ी दलित पार्टी है. लड़ाई सिर्फ उत्तर प्रदेश में है.' सीएसडीएस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 24 फीसदी दलितों का वोट हासिल हुआ. वहीं, कांग्रेस को 18.5 फीसदी, बसपा को 13.9 फीसदी वोट मिले थे.
अगर आप लंबे समय से दलितों का पूरे भारत में वोटिंग पैटर्न देखें, तो यह कांग्रेस से शिफ्ट हो कर भाजपा की ओर चली गई है. सीएसडीएस की रिपोर्ट्स के मुताबिक, साल 1971 में भाजपा को 10 फीसदी दलित वोट मिलता था, जो साल 2014 तक 24 फीसदी पहुंच गया. बसपा को साल 2004 में सबसे अधिक 24 फीसदी वोट मिले थे, जो 2014 में 14 फीसदी हो जाता है. जबकि कांग्रेस 71 में 46 फीसदी दलित वोट करते थे, 2014 में गिरकर 19 फीसदी हो गया.
गैर जाटव ने पलटा गेम
एक प्रसंग यूपी की राजनीति में दलित परिपेक्ष्य को बड़ा साफ करता है. दरअसल, 2006 में मायवाती से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछा गया कि उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? मायवती ने जवाब दिया- 'मेरा उत्तराधिकारी जाटव ही होगा, उनमें से एक जिन्होंने मनुवादियों के हाथों सबसे ज्यादा जुल्म सहे हैं.' कहा जाता है कि यहीं से भाजपा ने गैर जाटव का एक राग पकड़ा, जो अब सुर में बदल गया है.
अमिताभ तिवारी कहते हैं कि साल 2012 में जब मायावती विधानसभा का चुनाव हारीं, तो उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने साथ नहीं दिया. लेकिन जब आप आंकड़ें देखेंगे, तो साल 2012 में ब्राह्मण और मुस्लिम दोनों ने बसपा का साथ दिया, लेकिन दलित उनसे छिटक गए. अमिताभ की बातों को अगर आंकड़ों से देखें, तो मामला बिल्कुल साफ हो जाता है. 2014 में गैर जाटव का 61 फीसदी वोट भाजपा को मिला. वहीं, 11 फीसदी जाटव ने भी वोट किया. ठीक इसके उलट बसपा को 68 फीसदी जाटव और 11 फीसदी गैर जाटव ने वोट दिया है.
यही नहीं, Axix My India डेटा एक और चौंकाने वाले विषय की ओर इशारा करता है. साल 2019 में करीब 60 फीसदी गैर जाटव के साथ 21 फीसदी जाटव ने भी भाजपा को वोट दिया.
आरक्षित सीट का खेल
दलित को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था है. सीट की स्थिति की बात करें, तो यूपी विधानसभा की 403 सीटों में से इस वक्त 86 सीट आरक्षित हैं. इन सीटों पर जिसका कब्जा रहा, वह यूपी की सत्ता पा गया.
साल 2017 में 85 रिजर्व विधानसभा सीट में भाजपा ने 65 गैर जाटव को टिकट दिया था. भाजपा ने 76 आरक्षित सीटों पर जीत हासिल की. जबकि बसपा के खाते में सिर्फ 2 गईं. सुभासपा (सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी) 3 और अपना दल ने 2 सीटें जीतीं.
2012 के विधानसभा चुनाव देखे जाएं, तो सपा ने 58, बसपा ने 15 और भाजपा ने सिर्फ 3 सीटों पर जीत हासिल की थी.
वहीं, 2007 में बसपा 62, सपा 13, भाजपा 7 और कांग्रेस ने 5 सीटों पर जीत हासिल की थी.
गौरतलब है कि साल 2017 में भाजपा, 2012 में सपा और 2007 में बसपा ने यूपी की राजनीति में परचम लहराया था.
हालांकि, अगर ये आंकड़ें सीटों के हिसाब से देखें, तो 9 ऐसी सीटें रही हैं, जहां भाजपा हमेशा से मजबूत रही है. वहीं, सपा 3 सीटों पर लगातार अच्छा प्रदर्शन करती रही है. शाहजहांपुर में कांग्रेस, तो मिश्रिख बसपा का गढ़ रहा है. हरदोई और लालगंज में हमेशा मुकाबला कांटे का रहा है.
भाजपा के साथ क्यों आया गैर जाटव?
अमिताभ तिवारी बताते हैं कि साल 2007 से पहले लंबे समय तक उत्तर प्रदेश में स्थिर सरकारें नहीं रहीं. इसकी बड़ी वजह थी जाति त्रिकोण. सपा के पास यादव, मुस्लिम और अन्य जातियों के कुछ वोट थे, जो 25 फीसदी के करीब थे. भाजपा के पास सवर्ण और कुछ ओबीसी वोट थे, जो 20 फीसदी के करीब थे. वहीं, मायावती की बसपा की भी यही स्थिति थी. दलितों के वोट के साथ वो भी 20 प्रतिशत के करीब पहुंचने में सफल हो जाती थीं. गेम 2007 में पलटा, जब मायावती ने बहुजन से सर्वजन की राजनीति शुरू की. ऐसे में ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम का एक कॉम्बिनेशन बना, जिससे बसपा को 30.43 मत हासिल हुआ. यहीं से गैर जाटव का मामला शुरू हुआ. क्योंकि इस सरकार में दलितों से ज्यादा ब्राह्मणों को प्रतिनिधित्व मिला.
दलित सुमदाय का अध्ययन करने वाले प्रोफेसर बद्री नारायण बताते हैं कि यह एक लंबा प्रोसेस है. जो आज वोट दिख रहा है, वो आरएसएस के कार्यों की लंबी प्रक्रिया है. दरअसल, आरएसएस में जाति वाला कोई फैक्टर नहीं है. ऐसे में जब वह गैर जाटव यानी कम संख्या वाली दलित जातियों के पास पहुंचे, तो उनके अंदर एक किस्म की छटपटाहट थी. उनको प्रतिनिधित्व देना था. आरएसएस ने यह फीडबैक भाजपा को दिया होगा, जिस पर काम किया गया. यह कोई एक चुनाव का परिणाम नहीं है. धीरे-धीरे गैर जाटव की छोटी-छोटी जातियों को इकट्ठा करके एक बड़ा वोट बैंक बनाया गया.
उन्होंने अपनी किताब 'फैलिनेटिंग हिंदुत्व: सैफरन पॉलिटिक्स एंड दलित मोबिलाइजेशन' में भी इस बात का जिक्र किया है. उन्होंने अपनी किताब में आरएसएस के कई कार्यक्रमों का जिक्र किया है, जिसके जरिए उन्होंने उन जातियों को अप्रोच किया, जिन्हें ना आवाज मिली, ना पहचान मिली और ना ही सत्ता. धीरे-धीरे आरएसएस ने भाजपा का काम आसान कर दिया.
अगर आप पासी जाति का उदाहरण लें. तो इस वक्त भाजपा उत्तर प्रदेश में उदा देवी की मूर्तियां लगवा रही हैं, जो इस समुदाय के लिए काफी सम्मान वाली बात है. इसके अलावा, इस वक्त भाजपा के 23 विधायक और 6 सांसद इस समुदाय से आते हैं. कौशल किशोर को मोदी मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया है. योगी कैबिनेट में सुरेश पासी इस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. साल 2017 में अवध-पूर्वांचल की पासी बहुल सीटों जैसे बाराबंकी की जैदपुर और हैदरगढ़, सीतापुर की मिश्रिख, हरदोई की बालामऊ और गोपामऊ सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों को मिली जीत इशारा करती है कि पासी बिरादरी में भाजपा ने अपनी पैठ बना ली है.
मायवाती हैं बड़ा चेहरा, फिर भाजपा बिना नेता कैसे लड़ रही है?
अगर उत्तर प्रदेश में दलितों के बड़े नेताओं की बात की जाए, तो मायावती के आगे कोई नहीं टिकता. अगर भाजपा को देखें, तो ऐसा कोई दलित चेहरा नहीं है. इस मामले में बद्री नारायण कहते हैं कि प्रतिनिधित्व के लिए मंत्री या मुख्यमंत्री होना जरूरी नहीं है. ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य और पार्टी में पद देकर भी इसे साधा जा सकता है. फिलहाल, भाजपा यही कर रही है. उसे ओबीसी की तरह दलित नेताओं को कल्टिवेट करने की जरूरत है.
वरिष्ठ पत्रकार और फिलहाल कांग्रेस पार्टी से जुड़े असित नाथ तिवारी कहते हैं कि भाजपा का फोकस मूलतः ओबीसी पॉलिटिक्स पर है. यूपी में ओबीसी और दलित दो ध्रुव हैं. जहां ओबीसी हैं, वहां दलित नहीं जाएंगे. बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ दलित नहीं जाएंगे. वहीं, भाजपा के पास ओबीसी की नाराजगी झेलने की हिम्मत भी नहीं है. ऐसे में यहां भाजपा के लिए मुश्किलें हैं.
हालांकि, अमिताभ तिवारी इससे अलग विचार रखते हैं. वे कहते हैं कि बसपा लगातार तीन चुनाव हार चुकी है. गैर जाटव पहले ही भाजपा के साथ हैं. डाटा भी देखें, तो जाटव का झुकाव भाजपा की ओर दिखता है. अगर चुनाव दो तरफा होता है, यानी भाजपा बनाम सपा, तो जाटव भी भाजपा की ओर जा सकते हैं. क्योंकि कोई भी समुदाय पावर चाहता है, जाटव को यह उम्मीद मायावती के साथ नहीं दिख रही है. वहीं, यूपी में ओबीसी खासकर यादव बनाम दलित का नरेटिव रहा है. ऐसे में वह भाजपा में अपनी जगह तलाश सकते हैं. हालांकि, यह चुनाव के बाद ही पता चलेगा.
क्या चंद्रशेखर आजाद बनेंगे मायावती के विकल्प या होगी बसपा की वापसी?
इस वक्त दलित राजनीति में मायवाती के अलावा चंद्रशेखर आजाद की भी पार्टी दिख रही है. आजाद की पहचान अग्रेसिव राजनीति की रही है. बद्री नारायण कहते हैं कि चेहरा होना और चुनाव में परफॉर्मेंस करना दोनों अलग चीजें हैं. आजाद के पास कोई नरेटिव नहीं है. उन्हें पता ही नहीं है कि वो क्या कर रहे हैं. अगर कांशीराम को देखें, तो वह मंच से पहले कई जातियों के नाम लेते थे, फिर भाई का संबोधन करते थे. उनके पास एक नरेटिव था. आजाद के पास सिर्फ जाटव राजनीति ही दिखती है. फिलहाल, वह NGO जैसा काम कर रहे हैं. इससे कुछ खास फायदा होता नहीं दिख रहा है.
वहीं, अमिताभ कहते हैं कि आजाद के पास पोटेंशियल है. लेकिन उन्हें अभी बहुजन का पूरा समर्थन हासिल नहीं है. ना ही वह कुछ ऐसा नरेटिव बनाते दिख रहे हैं, जो चुनाव को पलट सके. अगर वह 3 फीसदी भी मत हासिल करते हैं, तो बड़ी बात होगी.
मायावती की वापसी को लेकर अमिताभ कहते हैं कि ब्राह्मण सम्मेलन करने से वोट तो नहीं मिल जाएगा. भले ही ये कहा जा रहा है कि ब्राह्मण भाजपा से नाराज हैं, लेकिन अभी उन्हें कोई विकल्प नहीं दिख रहा है. वहीं, मायावती का भाजपा के बी टीम वाला प्रोजेक्शन भी उनको नुकसान पहुंचा रहा है.
असित नाथ इससे अलग विचार रखते हैं, वह कहते हैं कि मायवाती एक बार ब्राह्मण का प्रयोग कर चुकी हैं. फिर सम्मेलन कर रही हैं, लेकिन इससे ब्राह्मण वोट उन्हें नहीं मिल जाएगा. भाजपा सरकार से ब्राह्मण नाराज हैं. ऐसे में ब्राह्मण कहां जाएगा. नाराजगी में कई बार समुदाय बदले की भावना से भी रिएक्ट करता है. अगर ब्राह्मण देखेगा कि कहीं राजपूत कैंडिडेट खड़ा है और उसकी लड़ाई समाजवादी पार्टी से है, तो वहां बाह्मण सपा के साथ चला जाएगा. वहीं, जहां बसपा से टक्कर होगी, वहां बसपा को फायदा मिलेगा. जहां कांग्रेस से सीधी टक्कर होगी, वहां कांग्रेस के साथ जाएगा.
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