कौशांबी/अली मुक्ता: सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संगमनगरी (पूर्ववर्ती इलाहाबाद) में क्रांति की मशाल कौशांबी के रहने वाले मौलवी लियाकत अली ने बखूबी संभाली थी. आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने उन्हें ही ये जिम्मेदारी सौंपी थी.  इसकी बड़ी वजह थी कि लियाकत अली व्यूह रचना के माहिर खिलाड़ी माने जाते थे.  खुसरोबाग से उन्होंने अंग्रेजों के समानांतर सरकार चलाई. पर आज ये क्रांतिकारी गुमनामी के अंधेरे में खो गया है.


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कौशांबी ज़िले के महगवां के रहने वाले महान क्रांतिकारी मौलाना लियाकत अली खान को जनपदवासी भूल से चुके हैं. इसके पीछे कारण है कि एक अदद स्कूल के अलावा उनके नाम से एक भी चिन्ह नही है, जिससे मौलाना को याद किया जा सके.


कांपने लगते थे अंग्रेज
मौलवी लियाकत अली का नाम सुनते ही अंग्रेज कांपने लगते थे. मौलाना के जलवा और जलाल को देखते हुए छह इंफ्रंट्री बटालियन के रामचंद्र 150 फौजियों के साथ बगावत कर मौलाना के साथ हो लिए. मौलाना ने 6 जून 1857 में क्रांतिकारियों की अगवाई करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना और अधिकारियों को खदेड़ दिया था और शहर पर 12 दिनों तक अधिकार कर लिया. मौलवी ने खुद को दिल्ली सम्राट बहादुर शाह जफर का प्रतिनिधि घोषित किया और कौसरबाग से शहर का प्रशासन अपने मुख्यालय में चलाया.


कई क्रांतिकारियों को किया गया शहीद
इसके बाद क्रूर कर्नल कहे जाने वाली नील ने कमान संभाली और  कई क्रांतिकारियों  को शहीद कर दिया गया.  इतना ही नही छोटे बच्चों को भी कोतवाली में स्थित नीम के पेड़ पर फांसी दे दी गई. मौलाना लियाकत अली को मुंबई से गिरफ्तार किया गया और उनको काला पानी की सजा सुनाई गई. वहां की सेल्यूलर जेल में वह बंद रहे. वहां 17 मार्च 1881 को उनकी मृत्यु हुई, जहां अंग्रेजों ने दफन करने के बाद उनकी मजार बनवाई और फोटो और वीडियो परिजनों को भेजा.


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गुमनामी में खोए मौलाना लियाकत अली
मौलाना के नाम पर दशक भर पहले तक लोग गर्व करते थे, लेकिन युवा पीढ़ी जांबाज क्रांतिकारी को भूल चुकी है.   उनकी याद में न कोई सड़क है और न ही स्मृति स्थल.  वह गुमनामी में खो चुके हैं. उनकी बेटी चांद बीबी को पेंशन मिलती थी लेकिन अब वो भी बंद हो चुकी है. क्रांतिकारी मौलाना लियाकत अली खान के नाम पर ऐसा कुछ नहीं है कि लोग याद रख सकें.


बुनकर परिवार में हुआ था जन्म
मौलाना लियाकत अली का जन्म 5 अक्टूबर, 1817 को उत्तर प्रदेश के कौशांबी ज़िले के महगांव में एक बुनकर परिवार में हुआ था. उनकी मां अमीनाबी और पिता सैयद मेहर अली थे. उन्होंने बचपन से ही ब्रिटिश विरोधी रवैया अपना लिया था.  वह ब्रिटिश सेना में शामिल हो गए और भारतीय सैनिकों के मन में ब्रिटिश विरोधी विचारों को शामिल करना शुरू कर दिया.  ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने इसे भांप लिया और उन्हें सेना से निष्कासित कर दिया गया था.


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