बांदा: अगर आप उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों से जुड़ी वहां की खासियत और ऐतिहासिक जानकारियों को जानने में दिलचस्पी रखते हैं, तो यह जानकारी आपको जरूर अच्छी लगेगी. यूपी में आज भी ऐसे अनगिनत किस्से दफन हैं, जिनके बारे में शायद आप जानते भी नहीं होंगे. इनमें मुगलकालीन किस्से भी शामिल हैं. ये किस्से उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक धरोहर हैं. यूपी के जिलों की खास बात यह है कि हर जिले की एक अलग विशेषता है, जो सभी जिलों को एक-दूसरे से अलग पहचान देती है. 


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इसी क्रम में आज हम बांदा के बारे में बात करेंगे. बांदा शज़र पत्थर के लिए जाना जाता है. यहां शज़र पत्थर का कारोबार सदियों पुराना है. ये अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी अपना जादू बिखेरते हैं. आज जानेंगे बांदा के शज़र पत्थर के खनन से लेकर इसे तराशने से जुड़ी हर एक दिलचस्प बात...


प्राकृतिक खूबसूरती के लिए मशहूर है  
शज़र पत्थर पर कुदरत खुद चित्रकारी करती हैं. इतने पत्थरों में कोई भी दो शज़र पत्थर एक से नहीं होते. ये पत्थर आज भी अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर हैं. शज़र पत्थर केन नदी में पाया जाता है, जो बांदा जिले के पश्चिम में बुंदेलखंड क्षेत्र में बहती है. इसके खनन से लेकर इसे तराशने तक बहुत सी प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है. यह कला कड़ा शारीरिक श्रम मांगती है. आभूषण और सजावटी सामान बनाने में इस पत्थर का प्रयोग किया जाता है. 


400 साल पहले हुई थी इसकी पहचान
प्राप्त जानकारी के मुताबिक, इस पत्थर की कहानी दिलचस्प है. केन नदी में ये हमेशा से मौजूद था, लेकिन इसकी पहचान लगभग 400 साल पहले अरब से आए लोगों ने बांदा में की थी. वो इसको देख कर दंग रह गए. फारसी भाषा में इसका मतलब है शाख, टहनी या छोटा सा पौधा. इसे आम बोलचाल की भाषा में हकीक ए- शजरी भी कहते हैं. इन पत्थरों में फूल पत्तियां और दृष्यावलियां प्राकृतिक रूप सी बनी हुई मिलती हैं, शायद इसीलिए इसे शज़र का नाम दिया गया है. मुगलों के राज में शज़र की डिमांड बढ़ गई. उस समय एक से एक कारीगर हुए, जिन्होंने इससे बेजोड़ कलाकृतियां बनाईं. शज़र ए ग्रेड का सबसे कीमती और मज़बूत पत्थर है. धीरे-धीरे बांदा शज़र पत्थर का केंद्र बन गया. सैकड़ों कारखाने खुल गए और तमाम लोगों को इससे रोज़गार मिला. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में शज़र पत्थर और इससे बनने वाली कलाकृतियों की काफी मांग है.


यह किस्सा भी है मशहूर
कहा जाता है कि इसकी खोज सन् 1800 में तत्कालीन नवाब अली जुल्फिकार अली बहादुर के समय हुई थी. जब कुछ लोग नदी के पत्थर को जमीन में पटककर आग जलाने के काम में इस्तेमाल करते थे. एक मौके में नवाब ने पत्थर की परतों में प्राकृतिक कलाकृतियों को देखा, तो इसे तराशने का आदेश दिया. उसी समय से यह शज़र पत्थर दुनिया की पहचान बना. 


ऐसे तैयार होते हैं शज़र पत्थर
कभी इस पत्थर को निकालने के लिए कारीगर बरसात में केन नदी के किनारे कैंप लगाते थे. नदी से पत्थर को पहले निकालना फिर उसको तराशना और फिर उसको मनचाही रूप में ढालना ये सब छोटे छोटे कारखानों में होता था. पीढ़ियों से ये हुनर चला आ रहा था. पहले पत्थर की कटाई और घिसाई होती है. इसके बाद इसे मनचाहे आकर में ढाल दिया जाता है. फिर पॉलिश कर के चमक लाई जाती है. 


शजर को नया रूप देने का काम हाथ से और केवल एक घिसाई मशीन से होता है. ऐसे यूनिट्स को बांदा में कारखाना कहते हैं. तैयार शज़र पत्थर को क्वालिटी के हिसाब से 1,2,3 ग्रेड में रखकर उसकी कीमत लगाई जाती हैं. इनकी कीमत सोने चांदी में जड़ने के बाद और बढ़ जाती हैं. जानकारों का मानना है कि पूरे विश्व में कहीं और इस तरह का पत्थर नहीं पाया जाता. 


रानी विक्टोरिया को भा गया था शज़र पत्थर
हस्तशिल्पी द्वारिका सोनी का कहना है कि 1911 में लंदन में शजर प्रदर्शनी लगी. जिसमें हस्त शिल्पी मोती भार्गव गए थे. प्रदर्शनी में खुद रानी विक्टोरिया ने इस नायाब पत्थर के नगीने को अपने गले का हार बनाया. वो इसे अपने साथ ले गयी थीं. धीरे-धीरे शजर कला ने उद्योग का रूप ले लिया. विदेशों में आज भी शजर के कद्रदान मौजूद हैं. दिल्ली, लखनऊ, जयपुर में लगने वाली शजर प्रदर्शनियों में अक्सर ईराक, सऊदी अरब, ब्रिटन आदि देशों के लोग शजर की खरीददारी करते हैं


कई तरह से किया जाता है इस्तेमाल
आज दुनिया भर में शज़र पत्थर मशहूर हैं. आज भी यह बांदा में सिर्फ केन नदी की तलहटी में पाया जाता है. ऐतिहासिक खजुराहो और कलिंजर गुफाओं के निर्माण में भी इनका प्रयोग हुआ है. ये पत्थर आभूषणों, कलाकृति जैसे ताज महल, सजावटी सामान और कुछ अन्य वस्तुएं जैसे वाल हैंगिंग में लगाने के काम में प्रयोग होता हैं. कुछ लोग इसको बीमारी में फायदा पहुंचाने वाला पत्थर भी मानते हैं.


शजर पत्थर पर आकृतियां
स्थानीय लोगों की मानें तो शजर पत्थर पर ये आकृतियां तब उभरती हैं, जब शरद पूर्णिमा की चांदनी रात को किरण उस पत्थर पर पड़ती हैं. उस समय जो भी चीज बीच में आती है, उसकी आकृति पत्थर पर उभर आती है. हालांकि, विज्ञान के अनुसार शज़र पत्थर डेंड्रिटिक एगेट पत्थर है और ये कुदरती आकृति जो इस पर अंकित होती है, दरअसल वो फंगस ग्रोथ होती हैं.


कुरान की आयतें भी लिखवाते हैं इस पर
शज़र पत्थर का महत्त्व मुसलमानों में बहुत हैं. वो इसे हकीक भी कहते हैं. इस पत्थर पर वो कुरान की आयतें लिखवाते हैं. आज भी मक्का हज के लिए जाने पर वो इस पत्थर को ले कर जाते है. व्यापारियों के मुताबिक, ईरान में इसकी मुंहमांगी कीमत मिलती है.


इतिहास के पन्नों मे गुम हो कर रह जाएगा
आज अपने ही घर बांदा में शजर पत्थर बेघर सा हो गया हैं. कद्रदान बहुत हैं लेकिन सीधे बेचने का कोई तरीका नहीं हैं इसीलिए मुनाफा घटता गया और लोग ये काम छोड़ते गए. हालांकि, बांदा से ये पत्थर आज भी पूरे विश्व में और ज्यादातर खाड़ी देशों में जाता हैं. इसकी मांग ईरान में बहुत ज्यादा है और उसी की वजह से बंदी की कगार पर पहुंच चुके शजर को दुबारा बाजार मिल गया है.


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