अजीत सिंह/जौनपुर: 'लड़े फिरंगियों की टोलियों से , डरे नहीं थे जो गोलियों से'. स्वतंत्रता की सुगंध है वो उन्हें युगों का प्रणाम बोलो. इसी आस्था और विश्वास के साथ जौनपुर के हजारों लोग धनियामऊ पुल के पास स्थिति शहीद स्तंम्भ पर श्रद्वासुमन अर्पित करते हैं. ये उन शहीदों का स्तंम्भ है जिन्होंने 16 अगस्त 1942 को अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ विगुल फूंका था. 


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वाराणसी-लखनऊ हाईवे पर स्थिति पुल स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रमुख गवाह है. 16 अगस्त 1942 को आजादी के दीवानों ने सिर पर कफन बांधकर बदलापुर थाने पर तिरंगा लहराने के लिए जा रहे थे. अंग्रेजी फौज को रोकने के लिए पहले भारत मां के वीर सपूतों ने इस पुल को तोड़ना शुरू कर दिया. इसी बीच गोरों की फौज वहां पहुंच गयी. आजादी के दीवाने बिना कोई परवाह किये अपने अभियान को आगे बढ़ते गये. इसी बीच अंग्रेजों ने धुआंधार फायरिंग शुरू कर दी. इस गोलीबारी में टोली के लीडर जमींदार सिंह, रामनंद, रघुराई और राजदेव सिंह शहीद हो गये और दर्जन भर से अधिक लोग घायल हो गये. 


देश की आजादी में अपने प्राणों की आहूति देने वाले रामनंद और रघुराई के घर और गांव की हालात गुलामी जैसी ही बरकार है. शहीद के परिवार वाले दूसरे के खेतों में कड़ी मेहनत करके अपना पेट पाल रहे हैं. उधर विधायक और मंत्री ने शहीदों के नाम पर शहीदी स्तंम्भ और मैरेज हाल तो बनवा दिया है लेकिन बिजली, पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से मरहूम हैं. 


शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही निशां बाकी होगा. इस नारे के साथ हम हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फहराकर आजाद होने का गर्व करते हैं, क्या यह गर्व आज तक शहीद रमानंद और रघुराई के परिवार वाले महसूस कर पाते हैं. यह किसी ने पता लगाने की जहमत नहीं उठाई हैं.