मैथिलीशरण गुप्त पुण्यतिथि: जब महावीर प्रसाद द्विवेदी के एक तंज ने गुप्त को बना दिया महान कवि...
आचार्य जी द्वारा लिखे ये शब्द पढ़कर मैथिलीशरण गुप्त ने बृजभाषा से तौबा कर ली. इसी के साथ, `रसिकेंद्र` को अपने नाम से हटा दिया. फिर शुरू हो गए खड़ी बोली में काम करने. साल 1905 में उनकी मेहनत रंग लाई और `हेमंत` कविता `सरस्वती` में प्रकाशित हो गई...
लखनऊ: भारत को अपनी कविताओं से मंत्रमुग्ध कर देने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की आज 57वीं पुण्यतिथि है. साल 1964 में आज के ही दिन उन्होंने अंतिम सांस ली और देश ने एक महान कवि को खो दिया. लेकिन, उनकी हर कविता की हर पंक्ति में वे आज भी जीवित हैं. 1886 में उत्तर प्रदेश के झांसी में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रमुख स्तंभ माने जाते थे. करीब 60 साल में उन्होंने 40 से ज्यादा मौलिक काव्य ग्रंथों की रचना की है.
सीएम योगी ने ट्वीट कर दी श्रद्धांजलि
मैथिलीशरण गुप्त की पुण्यतिथि पर आज सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट कर उन्हें याद किया. सीएम योगी ने पोस्ट में लिखा, "हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय काव्यधारा के अप्रतिम हस्ताक्षर, प्रखर चिंतक, 'पद्मभूषण' से सम्मानित, 'राष्ट्रकवि' मैथिलीशरण गुप्त जी को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि. आपका सृजन कार्य युगों-युगों तक हम सभी को प्रेरित करता रहेगा."
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दी थी पहली किवता
गौरतलब है कि अपने समय की प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका 'सरस्वती' में अपनी कविताएं छपवाने की ललक ने उन्हें देश के सबसे महान कवियों में से एक बना दिया. आम लोगों की भाषा में आम लोगों के लिए ही कविताएं लिखना उन्हें बहुत पसंद था. इसलिए उन्होंने अपनी पहली बृजभाषा की कविता सरस्वती के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पास भेजी. उपनाम में लिखा 'रसिकेंद्र'. लेकिन, द्विवेदी जी ने उन्हें एक पत्र के साथ कविता वापस भेज दी. उस पत्र में लिखा था कि सरस्वती में बृजभाषा में कविताएं नहीं छापी जातीं. आमजन की भाषा खड़ी बोली में लिखकर कविता भेजिए. इसी के साथ आचार्य ने लिखा, 'और हां, रसिकेंद्र बनने का जमाना गया!'
1905 में सरस्वती में प्रकाशित हुई पहली कविता
आचार्य जी द्वारा लिखे ये शब्द पढ़कर मैथिलीशरण गुप्त ने बृजभाषा से तौबा कर ली. इसी के साथ, 'रसिकेंद्र' को अपने नाम से हटा दिया. फिर शुरू हो गए खड़ी बोली में काम करने. साल 1905 में उनकी मेहनत रंग लाई और 'हेमंत' कविता 'सरस्वती' में प्रकाशित हो गई.
परलोक में भी आचार्य जी का साथ चाहते थे मैथिलीशरण गुप्त
इसके बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी और मैथिलीशरण गुप्त के बीच सम्मान और स्नेह के रिश्ते की कहानी दुनिया जानती है. न आचार्य जी गुरु थे और न ही गुप्त शिष्य थे, लेकिन उनके रिश्ते गुरु-शिष्य के रिश्ते से बहुत आगे थे. दोनों एक दूसरे के पूरक रहे. दोनों के बीच इतना स्नेह था कि गुप्त चाहते थे कि परलोक में भी उन्हें आचार्य जी जैसा ही मार्गदर्शक मिले. एक जगह मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा कि अयोग्य देखकर भी पंडित जी ने मुझे त्यागा नहीं, सदा के लिए अपना लिया. मुझे बोलचाल की भाषा में पद्य रचने का गुर मिल गया... अपने प्रभु से यही प्रार्थना करता हूं कि परलोक में भी उनका सा पथ प्रदर्सक मुझे प्राप्त हो.'
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