मो.गुफरान/प्रयागराज: देश आजादी का 75 वां अमृत महोत्सव मना रहा है. ऐसे में आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने वाले शहीदों के साथ ही उन वृक्षों को याद करना भी बेहद जरूरी हो गया है. देश की आजादी की अगर बात करें तो यह आसानी से नहीं मिली है. इसे पाने के लिए हजारों क्रांतिकारियों ने अपनी जान की कुर्बानी दी है. जिसके बाद देश को आजादी मिली है. संगम नगरी की बात करें तो आजादी की कुर्बानियों के गवाह कई वृक्ष आज भी क्रांतिकारी आंदोलन की यादें ताजा कर रहे हैं. जिसमें फांसी इमली का पेड़ और चौक स्थित नीम का पेड़ या फिर शहीद चंद्रशेखर आजाद पार्क में मौजूद जामुन के पेड़ आज भी देशभक्ति की सुगंध अपनी टहनियों में समेटे हुए हैं. 


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अपने आगोश में क्रांतिकारियों के जज्बे और जुनून को समेटे हैं यहां के वृक्ष
कहा जाता है कि जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था तो क्रांतिकारियों ने इन्हीं पेड़ों के आड़ में आकर अंग्रेजों से लोहा लिया था. एक पक्ष यह भी है की अंग्रेजी हुकूमत और उनके लोगों ने आजादी के लिए बिगुल फूंकने वाले क्रांतिकारियों को इन्हीं पेड़ों पर ही सूली पर भी चढ़ाया है. इतिहासकार प्रो योगेश्वर तिवारी की मानें तो प्रयागराज में 6 हजार से अधिक क्रांतिकारियों को इन्हीं पेड़ों के टहनियों पर फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था. इसकी तस्दीक 3 महीने तक 8 बैल गाड़ियों पर सूर्योदय से सूर्यास्त तक मृतकों के शव को ले जाने से होती है. इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि कहीं भी सड़क किनारे या बीच बाजार पेड़ को देखने पर अंग्रेज क्रांतिकारियों को फांसी दे देते थे. प्रयागराज के वृक्ष कुछ इसी तरीके से अपने आगोश में क्रांतिकारियों के जज्बे और जुनून को समेटा है और उन वृक्षों से आज भी देशभक्ति की खुशबू महक रही है.


सुलेम सराय स्थित हैं इमली का पेड
प्रयागराज के चौक स्थित नीम के पेड़ तो अब खत्म हो चुके हैं,लेकिन सुलेम सराय स्थित फांसी इमली के पेड़ का कुछ हिस्सा आज भी आजादी की महक को अपनी टहनियों में समेटे हुए हैं. जानकारों की माने तो अंग्रेजों ने 1857 में सैकड़ों लोगों को इन्हीं इमली के पेड़ों पर फांसी के फंदे पर लटका दिया था. तब के इलाहाबाद और मौजूदा समय के कौशांबी और उसके आसपास से पकड़ कर लाने वाले क्रांतिकारियों को बगैर मुकदमा चलाए ही इन्हीं इमली के पेड़ों पर सूली पर चढ़ा दिया जाता था. इतिहास के पन्नों में आजादी की महक को अपनी टहनियों में समेटे प्रयागराज के ये वृक्ष आज भी अंग्रेजी हुकूमत के जुल्म और सितम के गवाह हैं. 


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कई दिनों तक पेड़ से शवों को नहीं हटाते थे अंग्रेज 
इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के लोग पेड़ों पर क्रांतिकारियों को फांसी के फंदे पर चढ़ाने के बाद कई दिनों तक शवों को नहीं हटाते थे. इसका मकसद सिर्फ इतना था ताकि प्रयागराज और भारतीयों के मन में डर और खौफ पैदा किया जा सके. हालांकि क्रांतिकारियों ने अपने जज्बे और हौसले के दम पर अंग्रेजों से लोहा लिया. देश आज आजादी का 75 वां अमृत महोत्सव मना रहा है. ऐसे में उन दरख्तों और वृक्षों को याद करना भी किसी शहीद से कम नहीं है. क्योंकि यह वृक्ष आज भी हमारी आजादी की गवाही में निशान के तौर पर मौजूद हैं.


इसलिए वृक्षों को भारत में पूजनीय भी माना जाता है
इतिहास के जानकार बाबा अभय अवस्थी बताते हैं कि 1857 की गदर के बाद जिस तरीके से तमाम क्रांतिकारियों के बलिदान और त्याग का जिक्र है. उसी तरीके से वृक्षों का भी देश की आजादी के योगदान में जिक्र है. प्रयागराज के चंद्र शेखर आजाद पार्क में मौजूद जामुन का पेड़, चौक का नीम का पेड़ या फिर सुलेम सराय स्थित इमली का पेड़, इन सभी पेड़ों की भूमिका भी आजादी के योगदान में दर्ज है. बाबा अभय अवस्थी बताते हैं कि क्रांतिकारियों के लिए आंदोलन के समय वृक्ष ही सबसे अच्छे मित्र हुआ करते थे. उस दौर में दीवाल या फिर कोई आड़ लेने की जगह नहीं होती थी, जिसके चलते क्रांतिकारी इन्हीं पेड़ों को ही अपना मित्र मानते थे और इन्हीं का आड़ लेकर अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेते थेय प्रयागराज के चंद्रशेखर आजाद पार्क में उनके शहादत स्थल पर मौजूद जामुन का मूल पेड़ तो आज नहीं है, लेकिन उनकी शहादत स्थल की पहचान दिलाने के लिए दोबारा रोपित किए गए जामुन का पेड़ जरूर मौजूद हैं. इसी जगह पर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लोहा लेते हुए जब उनके पास सिर्फ एक गोली बची थी तो उससे उन्होंने खुद को खत्म करते हुए कहा था कि 'आजाद थे, आजाद हैं, आजाद रहेंगे'. इसलिए वृक्षों को भारत में पूजनीय भी माना जाता है.


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