कमल पिमोली/ पौड़ी गढ़वाल: ग्लेशियर पिघल रहे हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो उसका एक बड़ा कारण पानी ही होगा. 21वीं सदी की दुनिया लगातार गर्म होती जा रही है. मौसम मे अनियमित परिर्वतन आ रहे है. मौसम मे आ रहे बदलाव के लिए ब्लैक कार्बन सबसे बड़ा कारक है. वैज्ञानिकों का मानना है कि कार्बनेसियस एरोसोल मुख्यतः दो अवयवों ऑर्गेनिक कार्बन और ब्लैक कार्बन से मिलकर बनता है. जिसमें ब्लैक कार्बन काफी खतरनाक है. यह एक हफ्ते तक वातावरण में उड़ता रहता है. यह मैदानी क्षेत्रों से उड़कर हिमालय में जमा हो जाता है. जब यह ग्लेशियर में जमा होता है तो सूर्य की किरणों को बहुत तेजी से अवशोषित करता है. इससे ग्लेशियर की ऊपरी परत गरम हो जाती है और ग्लेशियर पिघलने लगते हैं. उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन पर कार्य कर रहे गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रो आलोक सागर गौतम का कहना है कि अगर इसी तरह उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन बढ़ता रहा तो आने वाले तीन से चार सालों में हिमालय के कई ग्लेश्यिरों पर इसका असर बड़े पैमाने पर देखने को मिलेगा. जुटाए गए डेटा के मुताबिक, 2.60 माइक्रो ग्राम प्रति मीटर से 3.60 प्रति मीटर पर कार्बन ग्लेशियर साइड पर मिल रहा है. यह चिंता का विषय है. इससे बारिश का पैटर्न भी बिगड़ रहा है. 


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जंगलों में अतिक्रमण से बढ़ा संकट
हिमालयी क्षेत्रों में जड़ी-बूटियों से लेकर हिमालय की सेहत पर कार्य करने वाले 'उच्च शिखरिय पादप शोध संस्थान' उत्तराखंड के वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय रीजन में जंगलों की तरफ तेजी के साथ अतिक्रमण हुआ है. इसकी वजह पर्यटन है. लोग बड़ी संख्या में बुग्यालों, जंगलों में निर्माण कार्य कर रहे हैं. इस निर्माण से नई पौध नहीं बन पा रही है. इसका परिणाम साफ तौर पर उच्च हिमालय में देखने को मिल रहा है. यहां पहले के मुकाबले ज्यादा तेजी से बर्फ पिघल रही है. यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है.  


जल संकट बढ़ेगा
वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तेजी के साथ उच्च हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. उससे आने वाले समय में पानी का संकट पैदा हो सकता है. हिमालय रीजन में आने वाले सालों में पानी का संकट गहरा सकता है. इसका असर हिमालयी राज्यों पर तो पड़ेगा ही साथ ही भारत के पड़ोसी देशों में भी इसका असर देखने को मिलेगा. इसके पीछे वैज्ञानिकों का अपना मत है. वैज्ञानिक मानते है. कि इस संकट से बचने के लिए ठोस एक्शन लेने की जरूरत है. पॉलिसी वॉच इंडिया के निदेशक अभिषेक दुबे के अनुसार हिमालय को बचाने के लिए पर्यावरणीय मुद्दों को जनभागीदारी से जोड़ना होगा. प्रति व्यक्ति कार्बन फुटप्रिंट कम करके हिमालय में बर्फ की चादरों को पिघलने से रोका जा सकता है. पर्यावरणविदों का मानना है कि नियोजित विकास भी हमें विनाश की तरफ ले जा रहा है. समय आ गया है कि जीडीपी की तरह हिमालय को बचाने के लिए जीईपी ग्रास एनवायरमेंट पॉलिसी पर भी ध्यान दिया जाए. 


प्लास्टिक वेस्ट भी अहम कारक
हिमालय में बर्फ की पिघलती चादर के पीछे एक अहम वजह प्लास्टिक उत्पादों की बढ़ती खपत भी है. वेस्ट टू वेल्थ पर रिसर्च कर रहीं डॉ हरवीन कौर के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक अब क्रायोस्फीयर में दाखिल हो रहे हैं. इससे ग्लेशियर के पिछलने की रफ्तार काफी ते हो गई है. डॉ कौर का कहना है कि प्लास्टिक में डॉक्सिन, फ्यूरान, कार्बन मोनोऑक्साइड और फार्मलडिहाइड जैसी घातक गैस होती हैं. यह हिमालय के पूरे इकोसिस्टम को नष्ट कर रही हैं. उनका कहना है कि यदि हिमालय को बचाना है तो प्लास्टिक वेस्ट प्रबंधन को मजबूत करने के साथ उसका विकल्प भी खोजना होगा. दरअसल हवा में ब्लैक कार्बन, ग्लेश्यिरों का पिघलना, अनियमित बारिश, बादल फटना इस बात का संकेत है कि यदि जल्द ही प्रभावी कदम नही उठाए जाते हैं तो लोगों को जीवन देने वाला हिमालय मानव अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा.