हेमकान्त नौटियाल/उत्तरकाशी: आज हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र ढोल, मसक, रणसिंगां आदि विलुप्ति की कगार पर है. इन वाद्य यंत्र को बजाने वाले वादकों का कहना है कि आज लोग पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध के पीछे भाग रहे हैं. इस दौरान हम अपनी पौराणिक संस्कृति को छोड़ रहे है. जिसके कारण वाद्य यंत्र की पौराणिक संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है. दरअसल, आज आवश्यकता है इन्हें जीवित रखने की. ये जीवित रहेंगे तो, हमारी पौराणिक संस्कृति भी जीवित रहेगी. वहीं, उत्तरकाशी में पूर्व सैनिक कल्याण संघठन द्वारा सैनिक मेले में प्रतिवर्ष ढोल सागर प्रतियोगिता का आयोजन करके पौराणिक वाद्य यंत्र जीवित रहे इस ओर प्रयासरत है.


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इन वाद्य यंत्रों को बजाने वालों ने बताया कि पौराणिक वाद्य यंत्रों के बाजगी कहते हैं. उन्होंने बताया कि हमारी रोजी-रोटी पुरातन समय से इन्हीं वाद्य यंत्रों पर चल रही है. आज जब पाश्चात्य संस्कृति के कारण वाद्य यंत्र विलुप्त हो रहे हैं, तो अब हमारे सामने रोजी-रोटी का भी संकट खड़ा हो गया है. हमारे बच्चे भी इन वाद्य यंत्रों को बजाने की रूचि नहीं रखते हैं. 


बजगियों ने वाद्य यंत्रों को लेकर उठाई ये मांग
इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले बजगियों का कहना है कि जब से शिव की उत्पत्ति हुई, तब से ही ढोल दमाऊ की उत्पत्ति हुई है. हम लोग राज्य सरकार और केंद्र सरकार से मांग करते है कि जनपद , ब्लॉक और ग्राम स्तर पर पौराणिक वाद्य यंत्रों की शिक्षा सीखने के लिए सरकार को स्कूल की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि हमारी पौराणिक संस्कृति जीवित रहे.


शोध करने वाले जयप्रकाश राणा ने दी जानकारी
ढोल सागर से शोध करने वाले जयप्रकाश राणा ने जानकारी दी. उन्होंने बताया कि राजस्थान सरकार ने इस दिशा में कदम उठाए हैं. इस तर्ज पर न्याय और ग्राम पंचायत स्तर पर पौराणिक वाद्य यंत्रों को सीखने के लिए केंद्र या स्कूल खुलना चाहिए, जिससे बाजगी समुदाय के लोगों को सरकार की तरफ से सहायता मिलनी चाहिए. तभी हमारे यह पौराणिक वाद्य यंत्र जीवित रह पाएंगे.


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