लखनऊ: 90 के दशक की शुरुआत में रामजन्मभूमि आंदोलन की वजह से बीजेपी का सितारा बुलंदी पर था. कल्याण सिंह पूर्ण बहुमत के साथ उत्तरप्रदेश विधानसभा का चुनाव जीत चुके थे. 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. वह भी तब जब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वस्त किया था कि बाबरी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचने दिया जाएगा. कल्याण सिंह ने खुद ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
जयंत मल्होत्रा ने मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के बीच एक मुलाकात करवाई. यह बैठक अक्टूबर 1993 में जयंत मल्होत्रा के अशोक होटल के कमरे में हुई. जयंत शायद पहले उद्योगपति थे जिन्होंने कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी पर दांव लगाया था.


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काफी गहरी थी मुलायम और कांशीराम की दोस्ती
एक और उद्योगपति संजय डालमिया ने भी इस समझौते को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अजय बोस मायावती की जीवनी 'बहनजी द पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ मायावती' में लिखते हैं कि 'जयंत मल्होत्रा और संजय डालमिया की नजदीकी ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दोनों को उनके प्रयासों का जल्द ही इनाम भी मिला. जब 1994 को मल्होत्रा को बीएसपी और डालमिया को समाजवादी पार्टी ने राज्यसभा का टिकट दिलवाया.' साल 1991 में कांशीराम ने इटावा से लोकसभा और मुलायम सिंह यादव ने जसवंत नगर से विधानसभा का चुनाव एक-दूसरे के सहयोग से जीता. मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम को जितवाने में अपनी पूरी ताकत झोक दी थी. इटावा के चुनाव ने दोनों नेताओं को ये संदेश भी दिया कि यादव वोट दलित उम्मीदवारों को और दलित वोट यादव उम्मीदवारों को ट्रांसफर किए जा सकते हैं.' इस गठबंधन को प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और कांग्रेस पार्टी का भी समर्थन प्राप्त था जो हर कीमत पर बीजेपी के विजय रथ को रोकना चाहते थे. 


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'मुलायम सिंह यादव-कांशीराम गठबंधन' ने 1993 के विधानसभा चुनाव में गजब की सफलता हासिल की. समाजवादी पार्टी ने करीब 260 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 109 सीटों पर जीत दर्ज की जबकि बहुजन समाज पार्टी ने 163 सीटों पर चुनाव लड़ कर अपने 67 विधायक विधानसभा में पहुंचाए. बीजेपी 177 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका. मुलायम सिंह ने कांग्रेस दूसरे छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों के सहयोग से सरकार बनाई. उनके 27 सदस्यीय मंत्रिमंडल में बीएसपी के 11 मंत्रियों को जगह दी गई. मायावती इस मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं बनीं, लेकिन उन्हें इस गठबंधन को चलाने की अधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई. व्यक्तित्व के टकराव और वैचारिक दूरी के कराण दोनों दलों के रास्ते अलग होने लगे.


कांशीराम ने मुलायम को रोकने अटल से किया संपर्क


बद्री नारायण कांशीराम की जीवनी 'लीडर ऑफ द दलित्स' में लिखते हैं. 'इस बिगड़ाव के पीछे कई कारण थे. मायावती की पूरी कोशिश थी कि वह इस गठबंधन को नियंत्रित करें जबकि मुलायम सिंह को ये बात कतई पसंद नहीं थी. गठबंधन के शुरुआती दिनों से ही मुलायम सिंह यादव बहुजन समाज पार्टी को तोड़ कर उसके विधायकों को अपनी तरफ करने की कोशिश कर रहे थे. दूसरी तरफ कांशीराम भी गुप्त रूप से विपक्षी दलों के नेताओं, खासकर अटल बिहारी वाजपेई के संपर्क में थे. ताकि मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा सके.'


मुलायम खुद को मानते थे चरण सिंह का उत्तराधिकारी


मायावती न सिर्फ मुलायम सरकार के कामकाज को बहुत बारीकी से मॉनिटर करने लगीं बल्कि उसकी सार्वजनिक रूप से आलोचना भी करने लगीं. वहीं मुलायम सिंह अपने आप को चरण सिंह का उत्तराधिकारी मानते थे. उनको कांशीराम की वैचारिक सोच से कोई लेना-देना नहीं था. उधर मायावती के लिए नई सरकार ने उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के सारे दरवाज़े खोल दिए. गठबंधन के समन्वय की जिम्मेदारी मिलने के बाद अभी 40 की भी नहीं हुईं. मायावती इसे अपनी राजनीतिक छवि बनाने के मौके के तौर पर देख रही थीं. उन्होंने कांशीराम के उत्तर प्रदेश से अलग रहने के फैसले का स्वागत किया.


गठबंधन के सत्ता संभालने के कुछ दिनों बाद जब उन्हें 'सुपर चीफ मिनिस्टर' कहा जाने लगा तो उन्हें अंदर ही अंदर अपार खुशी हुई. मुलायम सिंह यादव को उनकी ये सक्रियता रास नहीं आ रही थी. नतीजा साफ था बहुजन समाज पार्टी द्वारा गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने और बीजेपी के सहयोग से प्रदेश में नई सरकार बनाने में हुई. जातीय दबंगई का आरोप लगाते हुए मायावती ने 2 जून 1993 को मुलायम सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया.


गेस्ट हाउस कांड से बढ़ी तल्खी
आपसी मनमुटाव के चलते 2 जून 1995 को बसपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. इस वजह से मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई. सरकार को बचाने के लिए जोड़-घटाव किए जाने लगे. ऐसे में अंत में जब बात नहीं बनी तो नाराज सपा के कार्यकर्ता और विधायक लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस पहुंच गए. जहां मायावती कमरा नंबर-1 में ठहरी हुई थीं.
2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में अपने विधायकों के साथ बैठक कर रही थीं. तभी दोपहर करीब तीन बजे कथित समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की भीड़ ने अचानक गेस्ट हाउस पर हमला बोल दिया. 
ब्रह्मदत्त द्विवेदी को भाई जैसा सम्मान दिया
कहा जाता है कि अपनी जान पर खेलकर बीजेपी विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी मौके पर पहुंचे और सपा समर्थकों को पीछे ढकेला. ब्रह्मदत्त द्विवेदी की छवि भी दबंग नेता की थी. खुद मायावती ब्रम्हदत्त द्विवेदी को भाई कहने लगीं और सार्वजनिक तौर पर कहती रहीं कि अपनी जान की परवाह किए बिना उन्होंने मेरी जान बचाई थी. ब्रह्मदत्त द्विवेदी संघ के सेवक थे और उन्हें लाठी चलाना भी बखूबी आता थी. इसलिए वो एक लाठी लेकर हथियारों से लैस गुंडों से भिड़ गए थे. यही वजह है कि मायावती ने भी उन्हें हमेशा अपना बड़ा भाई माना और कभी उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया. पूरे राज्य में मायावती बीजेपी का विरोध करती रहीं, लेकिन फर्रुखाबाद में ब्रह्मदत्त द्विवेदी के लिए प्रचार करती थीं. गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती और मुलायम की राहें हमेशा के लिए जुदा हो गईं लेकिन फौरन ही 67 विधायकों वाली मायावती को बीजेपी ने पहली बार मुख्यमंत्री बनवा दिया. मायावती ने 3 जून 1993 को राज्य की पहली दलित महिला सीएम बनने का गौरव हासिल किया. मायावती और बीजेपी की दोस्ती लंबी नहीं चल सकी और चार महीनों में ही उनकी कुर्सी चली गई.


वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद भी बरकरार रखी कुर्सी
मुलायम सिंह यादव 1989 में पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें. नवंबर 1990 में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद मुलायम सिंह यादव ने चन्द्रशेखर के जनता दल का दामन थाम लिया. वह कांग्रेस की मदद से मुख्यमंत्री बने रहे. अप्रैल 1991 में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया.