किस बात से डर रही है उत्तराखंड कांग्रेस? अल्पसंख्यक सम्मेलन की तारीख नहीं कर पा रही तय
उत्तराखंड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर समर्थन में खड़े नजर आए. कहते हैं किसी को बड़ा भाई बोलना बुरा नहीं है. पीसीसी चीफ की मानें तो जल्द ही अल्पसंख्यक सम्मेलन की तारीख तय कर ली जाएगी. पार्टी के सभी बड़े नेता किसी न किसी कार्यक्रम में बिजी हैं, लिहाजा सम्मेलन के लिए वक्त नहीं निकल पा रहा...
देहरादून: उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में होने वाले कांग्रेस के अल्पसंख्यक सम्मेलन (Congress Minority Sammelan) की तारीख ही तय नहीं हो पा रही है. माना जा रहा है कि इस अल्पसंख्यक सम्मेलन के साइड इफेक्ट सामने आ सकते हैं. लिहाज़ा बदले सियासी माहौल में विपक्षी दल इसे फिलहाल टालने में ही भलाई समझ रहा है.
14 नवंबर को होना था सम्मेलन
पहले सलमान खुर्शीद (Salman Khurshid) की विवादस्पद पुस्तक (Sunrise Over Ayodhya), फिर उस पर राशिद अल्वी (Rashid Alvi), मणि शंकर अय्यर (Mani Shankar Iyyer) और फिर हालिया नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Siddhu) के पाकिस्तान (Pakistan) प्रेम ने कांग्रेस को असहज कर दिया है. हालांकि, उत्तराखंड में मुस्लिम मतदाता (Muslim Vote Bank) मैदानी जिलों में ही प्रभाव रखते हैं, फिर भी कांग्रेस (Uttarakhand Congress) सम्मेलन की तारीख टालती जा रही है. बता दें कि पहले यह सम्मेलन 14 नवंबर को होना था. हवाला दिया गया कि बड़े नेता कार्यक्रमों में बिजी हैं, लिहाज़ा अभी सम्मेलन नहीं किया जा सकता. भाजपा भी इसी तरफ इशारा कर रही है कि सियासी नफा नुकसान के डर से कांग्रेस सम्मेलन न कराने में ही भलाई समझ रही है.
कांग्रेस का दावा- जल्द तय की जाएगी तारीख
इधर, उत्तराखंड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर समर्थन में खड़े नजर आए. कहते हैं किसी को बड़ा भाई बोलना बुरा नहीं है. पीसीसी चीफ की मानें तो जल्द ही अल्पसंख्यक सम्मेलन की तारीख तय कर ली जाएगी. पार्टी के सभी बड़े नेता किसी न किसी कार्यक्रम में बिजी हैं, लिहाजा सम्मेलन के लिए वक्त नहीं निकल पा रहा.
तारीख तय करते समय क्यों नहीं रखा गया शेड्यूल का ख्याल?
मान लिया जाए कि कांग्रेस के गिनती के ही बड़े नेता कार्यक्रमों में व्यस्त होने के कारण समय नहीं निकाल पा रहे, लेकिन सवाल तो फिर भी खड़े होते ही हैं कि जब सम्मेलन की तारीख तय की गई थी तो उस समय बड़े नेताओं के शेड्यूल का ख्याल क्यों नहीं रखा गया. या फिर मसला बहुसंख्यक मतदाओं के नाराज होने का तो नहीं है?
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