20वीं सदी से पहले ज्यादातर लोगों के पास घड़ियां नहीं होती थीं. शहरों में पहर या घंटा बीतने की जानकारी देने के लिए इनका निर्माण हुआ.
18वीं सदी से पहले घरों में भी घड़ियां भी बहुत कम थीं. काफी महंगी और मरम्मत के कारण घंटाघर बनाए गए.
शहरों में पहले बड़े-बड़े कारखाने होते थे, जहां मजदूरों के आने-जाने औऱ लंच टाइम जैसी चीजों के लिए भी घंटाघर बनाए गए.
घंटाघर में पेंडुलम वाली घड़ियां होती थीं और साथ में पीतल के बड़े घंटे लगते थे, जिसे बजाकर दूर तक पहर होने का ऐलान होता था.
धीरे-धीरे घंटाघर के टॉवर के साथ डायल वाली सुइयों वाली घड़ी लगाई जाने लगी इसे देखकर भी लोग समय देख लेते थे.
जोधपुर के घंटाघर की घड़ी 113 साल पुरानी है, जो लंदन के क्लॉक टॉवर जैसी ही है.
मेरठ के घंटाघर की आवाज इतनी दमदार थी कि 15 किमी दूर तक सुनाई देती थी.
देहरादून का घंटाघर षटकोणीय यानी छह दिशाओं वाले आकार का है.
लखनऊ का घंटाघर का टॉवर सबसे ऊंचा है, जो 1887 में बना और 221 फीट का है.
जयपुर का घंटाघर महाराजा सरदार सिंह ने बनाया था और यह 100 फीट ऊंचा है.
बहराइच का घंटाघर 1911 में बना था और यह आजादी के आंदोलन का भी गवाह रहा है.
दिल्ली का घंटाघर चांदनी चौक का शान था, जो 1863 में बना, लेकिन 1950 के आसपास यह ढह गया.
हरिद्वार का घंटाघर को द क्लॉक टॉवर ऑफ हरिद्वार (The Clock Tower of Haridwar) का राजा बिरला टॉवर (Raja Birla Tower) भी कहते हैं.इसे 1938 में राजा बलदेव दास बिरला ने बनाया था. ये हर की पौड़ी की शान है.
इलाहाबाद का घंटाघर 1913 में बना था. इसे प्रयागराज क्लॉक टॉवर (Prayagraj Clock Tower) के नाम से भी आजकल जाना जाता है.