लिख रहा हूं मैं अंजाम, जिसका कल आगाज आएगा मेरे लहू का हर एक कतरा, इंकलाब लाएगा
मेरे जज्बातों से इस कदर वाकिफ हैं मेरी कलम मैं इश्क भी लिखना चाहूँ तो भी, इंकलाब लिख जाता है!
कारवां जिन का लुटा राह में आज़ादी की क़ौम का मुल्क का उन दर्द के मारों को सलाम
लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी
जमाने भर में मिलते हैं आशिक कई मगर वतन से खूबसूरत कोई सनम नहीं होता नोटों में लिपटकर, सोने में समिटकर मरे हैं शासक कई मगर तिरंगे से खूबसूरत कोई कफन नहीं होता
दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी
वतन के जाँ-निसार हैं वतन के काम आएँगे हम इस ज़मीं को एक रोज़ आसमाँ बनाएँगे
दिलों में हुब्ब-ए-वतन है अगर तो एक रहो निखारना ये चमन है अगर तो एक रहो
जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली जब हम बैठे थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली