तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा बिछड़ के उनसे सलीक़ा न ज़िन्दगी का रहा
इन्साँ की ख़्वाहिशों की कोई इन्तिहा नहीं दो गज़ ज़मीं भी चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद
जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो दीवाना-वार चाँद से आगे निकल गए ठहरा न दिल कहीं भी तिरी अंजुमन के बाद
बहार आए तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने
मेरा बचपन भी साथ ले आया गाँव से जब भी आ गया कोई
आज फिर टूटेंगी तेरे घर नाज़ुक खिड़कियाँ आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में ख़ार-ओ-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले मैं अगर थक गया, क़ाफ़िला तो चले
दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं याद इतना भी कोई न आए जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ
पाया भी उनको खो भी दिया चुप भी हो रहे इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं जो इक ख़ुदा नहीं मिलत तो इतना मातम क्यों मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता